भक्ति बिनु बैल विराने ह्वैंहौ।
पाउँ चारि, सिर सृंग, गुंग मुख, तब कैसै गुन गैहौ।
चारि पहर दिन चरत फिरत बन, तऊ न पेट अघैंहौ।
टेटू कंधऽरू फूटी नाकनि, कौ लौं धौं भुस खैहौ।
लादत, जोतत लकुट बाजिहै, तब कहँ मूँड़ दुरैहौ ?
सीत, धाम, धन, बिपति बहुत बिधि, भार तरैं मरि जैहौ।
हरि-संतनि कौ कह्यौ न मानत, कियौ आपुनौ पैहौ।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु, मिथ्या, जनम गँवैहौ।।331।।