ब्राह्मणगीता, एक ब्राह्मण का पत्नी से ज्ञानयज्ञ का उपदेश करना

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 20 में ब्राह्मणगीता, एक ब्राह्मण का पत्नी से ज्ञानयज्ञ का उपदेश करने का वर्णन हुआ है।[1]

श्रीकृष्ण का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! श्रीकृष्ण कहते हैं- भरत श्रेष्ठ! अर्जुन! इसी विषय में पति-पत्नी के संवाद रूप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है। एक ब्राह्मण, जो ज्ञान-विज्ञान के पारगामी विद्वान थे, एकान्त स्थान में बैठे हुए थे, यह देखकर उनकी पत्नी ब्राह्मणी अपने उन पति देव के पास जाकर बोली- ‘प्राणानाथ! मैंने सुना है कि स्त्रियाँ पति के कर्मानुसार प्राप्त हुए लोकों को जाती हैं, किंतु आप जो कर्म छोड़कर बैठे हैं और मेरे प्रति कठोरता का बर्ताव करते हैं। आपको इस बात का पता नही है कि मैं अनन्य भाव से आपके ही आश्रित हूँ। ऐसी दशा में आप जैसे पति का आश्रय लेकर में किस लोक में आऊँगी? आपको पति रूप में पाकर मेरी क्या गति होगी’। पत्नी के ऐसा कहने पर वे शान्तचित्त वाले ब्राह्मण देवता हँसते हुए से बोले- ‘सौभाज्यशालिनि! तुम पाप से सदा दूर रहती हो, अत: तुम्हारे इस कथन के लिये मैं बुरा नहीं मानता।

‘संसार में ग्रहण करने योज्य दीक्षा ओर व्रत आदि हैं तथा इन आँखों से दिखायी देने वाले जो स्थूल कर्म हैं, उन्हीं को वस्तुत: कर्म माना जाता है। कर्मठ लोग ऐसे ही कर्म को कर्म के नास से पुकारते हैं। ‘किंतु जिन्हें ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई है, वे लोग कर्म के द्वारा मोह का ही संग्रह करते हैं। इस लोक मेें कोई दो घड़ी भी बिना कर्म किये रह सके, ऐसा सम्भव नहीं है। मन से, वाणी से तथा क्रिया द्वारा जो भी शुभ या अशुभ कार्य होता है, वह तथा जन्म, स्थिति, विनाश एवं शरीर भेद आदि कर्म प्राणियों में विद्यमान हैं। ‘जब राक्षसों दुर्जनों ने जहाँ सोम और घृत आदि दृश्य द्रव्यों का उपयोग होता है, उन कर्म मार्गों का विनाश आरम्भ कर दिया, जब मैंने उनसे विरक्त होकर स्वयं ही अपने भीतर स्थित हुए आत्मा के स्थान को देखा। ‘जहाँ द्वन्दों से रहित व परब्रह्म परमात्मा विराजमान है, जहाँ सोम अग्नि के साथ नित्य समागम करता है तथा जहाँ सब भूतों को धारण करने वाला धीर समीर निरन्तर चलता रहता है।

ब्राह्मणगीता, एक ब्राह्मण का पत्नी से ज्ञानयज्ञ का उपदेश करने का वर्णन

‘जहाँ ब्रह्मा आदि देवता तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाले शान्तचित्त जितेन्द्रिय विद्वान योगयुक्त होकर उस अविनाशी ब्रह्म की उपासना करते हैं। ‘वह अविनाशी ब्रह्म घ्राणेन्द्रिय से सूघँने और जिह्वा द्वारा आस्वादन करने योगय नही हैं। स्पर्शेन्द्रिय त्वचा द्वारा उसका स्पर्श भी नहीं किया जा सकता, केवल बुद्धि के द्वारा उसका अनुभव किया जा सकता है। ‘वह नेत्रों का विषय नहीं हो सकता। वह अनिर्वयनीय परब्रह्म श्रवणेन्द्रिय की पहुँच से सर्वथा परे है। गन्ध, रस, स्पर्श रूप और शब्द आदि कोई भी लक्षण उसमें उपलब्ध नहीं है। ‘उसी से सृष्टि आदि का विस्तार होता है और उसमी में उसकी स्थिति है। प्राण, अपान, समान, व्यान और उदान- ये उसी से प्रकट होते और फिर उसमी में प्रविष्ट हो जाते हैं। ‘समान और व्यान- इन दोनों के बीच में प्राण और अपान विचरते हैं। उस अपान सहित प्राण के लीन होने पर समान और व्यान का भी लय हो जाता है। अपान ओर प्राण के बीच में उदान सबको व्याप्त करके स्थित होता है। इसीलिये सोये हुए पुरुष को प्राण और अपान नहीं छोड़ते हैं।[1]

‘प्राणों का आयतन (आधार) होने के कारण उसे विद्वान पुरुष उदान कहते हैं। इसलिये वेदवादी मुझ में स्थित तप का निश्चय करते हैं। ‘एक दूसरे के सहारे रने वाले तथा सबके शरीरों में संचार करने वाले उन पाँचों प्राणवायुओं के मध्य भाग में जो समान वायु का स्थान नाभिमण्डल है, उसके बीच में स्थित हुआ वैश्वानर अग्नि सात रूपों में प्रकाशमान है। ‘घ्राण (नासिका), जिह्वा, नेत्र, त्वचा और पाँचवाँ कान एवं मन तथा बुद्धि- ये उस वैश्वानर अग्नि की सात जिह्वाएँ हैं। सूँघने योज्य गन्ध, दर्शनीय रूप, पीने योज्य रस, स्पर्श करने योज्य वस्तु, सुनने योगय शब्द, मन के द्वारा मनन करने और बुद्धि के द्वारा समझने योज्य विषय- ये सात मुझ वैश्वानर की सतिधाएँ हैं। ‘सूँघने वाला, खाने वाला, देखने वाला, स्पर्श करने वाला, पाँचवाँ श्रवण करने वाला एवं मनन करने वाला और समझने वाला- ये सात श्रेष्ठ ऋत्विज हैं। ‘सुभगे! सूँघने योज्य, पीने योज्य, देखने योज्य, स्पर्श करने योज्य, सुनने, मनन करने तथा समझने योज्य विषय- इन सबके ऊपर तुम सदा दृष्टिपात करो (इनमें हविष्य बुद्धि करो)। ‘पूर्वोक्त सात होता उक्त सात हविष्यों का सात रूपों में विभक्त हुए वैश्वानर में भली-भाँति हवन करके (अर्थात् विषयों की ओर से आसक्ति हटाकर) विद्वान पुरुष अपने तन्मात्रा आदि योनियों में शब्दादि विषयों को उत्पन्न करते हैं। ‘पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज, मन और बुद्धि- ये सात योनि कहलाते हैं। ‘इनके जो समस्त गुण हैं, वे हविष्य रूप हैं। जो अग्रिजनित गुण (बुद्धिवृत्ति) में प्रवेश करते हैं। वे अन्त: करण में संस्कार रूप से रहकर अपनी योनियों में जन्म लेते हैं। ‘वे प्रलय काल में अन्त:करण में ही अवरुद्ध रहते और भूतों की सृष्टि के समय वहीं से प्रकट होते हैं। वहीं से गन्ध और वहीं से रस की उत्पत्ति होती है। ‘वहीं से रूप, स्पर्श और शब्द का प्राकट्य होता है। संशय का जन्म भी वहीं होता है और निश्चयात्मि का बुद्धि भी वहीं पैदा होती है। यह सात प्रकार का जन्म माना गया है। ‘असी प्रकार से पुरातन ऋषियों ने श्रुति के अनुसार घ्राण आदि का रूप ग्रहण किया है। ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय- इन तीन आहुतियों से समस्त लोक परिपूर्ण हैं। वे सभी लोक आत्मज्योति से परिपूर्ण होते हैं’।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-16
  2. महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 20 श्लोक 17-28

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