- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 124 में ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
युधिष्ठिर का प्रस्न
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! युधिष्ठिर ने पूछा भरतश्रेष्ठ! आपके मत में साम और दान में कौन सा श्रेष्ठ है इनमें जो उत्कृष्ट हो उसे बताइये।
भीष्म द्वारा साम गुण की प्रशंसा का वर्णन
भीष्म जी ने कहा बेटा! कोई मनुष्य साम से प्रसन्न होता है और कोई दान से। अत पुरुष के स्वभाव को समझकर दोनों से एक को अपनाना चाहिये। राजन! भरत श्रेष्ठ! अब तुम साम के गुणों को सुनो। साम के द्वारा मनुष्य भयानक-से-भयानक प्राणी को वश में कर सकता है। इस विषय में एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया जाता है जिसके अनुसार कोई ब्राह्मण किसी जंगल में किसी राक्षस के चंगुल में फंसकर भी साम नीति के द्वारा उससे मुक्त हो गया था। एक बुद्धिमान एवं वाचाल ब्राह्मण किसी निर्जन वन में घूम रहा था। उसी समय किसी राक्षस ने आकर उसे खाने की इच्छा से पकड़ लिया। बेचारा ब्राह्मण बड़े कष्ट में पड़ गया। ब्राह्मण की बुद्धि तो अच्छी थी ही वह शास्त्रों का विद्वान भी था। इसलिये उस अत्यन्त भयानक राक्षस को देखकर भी वह न तो घबराया और न व्यथित ही हुआ। बल्कि उसके प्रति उसने साम नीति का ही प्रयोग किया।
राक्षस ने ब्राह्मण के शान्तिमय वचनों की प्रशंसा करके उनके सामने अपना प्रश्न उपस्थित किया और कहा यदि मेरे प्रश्न का उत्तर दे दोगे तो तुम्हें छोड़ दूँगा! बताओ मैं किस कारण से अत्यन्त दुर्बल और सफेद ;पाण्डुद्ध हो गया हूँ।
ब्राह्मण द्वारा राक्षस के सफेद और दुर्बल होने का कारण बताना
यह सुनकर ब्राह्मण ने दो घड़ी तक विचार करके शान्तभाव से निम्नांकित गाथाओं ;वचनों द्वारा उस राक्षस के प्रश्न का उत्तर देना आरम्भ किया। ब्राह्मण बोला राक्षस! निश्चय ही तुम सुहृदजनों से अलग होकर परदेश में दूसरे लोगों के साथ रहते और अनुपम विषयों का उपभोग करते हो इसीलिये चिन्ता के कारण तुम दुबले एवं सफेद होते जा रहे हो। निशाचर! तुम्हारे मित्र तुम्हारे द्वारा भलीभाँति सम्मानित होने पर भी अपने स्वभाव दोष के कारण तुमसे विमुख रहते हैं, इसीलिये तुम चिन्तावश दुबले होकर सफेद पड़ते जा रहे हो। जो गुणों में तुम्हारी अपेक्षा निम्न श्रेणी के हैं, वे जड़ मनुष्य भी धन और ऐश्वर्य में अधिक होने के कारण निश्चय ही सदा तुम्हारी अवहेलना किया करते हैं, इसीलिये तुम दुर्बल और सफेद (पीले) होते जा रहे हो। तुम गुणवान, विद्वान एवं विनीत होने पर भी सम्मान नहीं पाते और गुणहीन तथा मूढ़ व्यक्तियों को सम्मानित होते देखते हो, इसीलिये तुम्हारे शरीर का रंग फीका पड़ गया है और तुम दुर्बल हो गये हो। जीवन निर्वाह का कोई उपाय न होने से तुम क्लेश उठाते होंगे, किन्तु अपने गौरव के कारण जीविका के प्रतिग्रह आदि उपायों की निन्दा करते हुए उन्हें स्वीकार नहीं करते होंगे। यही तुम्हारी उदासी और दुर्बलता का कारण है। साधो! तुम सज्जनता के कारण अपने शरीर को कष्ट देकर भी जब किसी का उपकार करते हो, तब वह तुम्हें अपनी शक्ति से पराजित समझता है, इसीलिये तुम कृशकाय और सफेद होते जा रहे हो। जिनका चित्त काम और क्रोध से आक्रान्त है, अतएव जो कुमार्ग पर चलकर कष्ट भोग रहे हैं। सम्भवत: ऐसे ही लोगों के लिए तुम सदा चिन्तित रहते हो, इसीलिये दुर्बल होकर सफेद (पीले) पड़ते जा रहे हो।[1] यद्यपि तुम अपनी उत्तम बुद्धि के द्वारा सम्मान के योग्य हो तो भी अज्ञानी पुरुष तुम्हारी हंसी उड़ाते हैं और दुराचारी मनुष्य तुम्हारा तिरस्कार करते हैं।[2] इसी चिन्ता से तुम्हारा शरीर सुखकर पीला पड़ता जा रहा है। निश्चय ही कोई शत्रु मुंह से मित्रता की बातें करता हुआ आया, श्रेष्ठ पुरुष के समान बर्ताव करने लगा और तुम्हें ठगकर चला गया, इसीलिये तुम दुर्बल और सफेद होते जा रहे हो। तुम्हारी अर्थगति-कार्यपद्धति सबको विदित है, तुम रहस्य की बातें समझाने में कुशल और विद्वान हो तो भी गुणज्ञ पुरुष तुम्हारा आदर नहीं करते हैं, इसी से तुम सफेद और दुर्बल हो रहे हो। तुम दुराग्रही दुष्ट पुरुषों के बीच में ही संशय रहित होकर उत्तम बात कहते हो, तो भी तुम्हारे गुण वहाँ प्रकाशित नहीं होते, इसीलिये तुम दुर्बल होते और फीके पड़ते जा रहे हो अथवा यह भी हो सकता है कि तुम धन, बुद्धि और विद्या से हीन होकर भी केवल शारीरिक शक्ति से सम्पन्न होकर ऊंचा पद चाहते रहे हो और इसमें तुम्हें सफलता न मिली हो, इसीलिये तुम पाण्डुवर्ण के हो गये हो और तुम्हारा शरीर भी सूखता जा रहा है। मुझे यह भी जान पड़ता है कि तुम्हारा मन तपस्या में लगा है और इसीलिये तुम जंगल में रहना चाहते हो, परंतु तुम्हारे भाई-बन्धु इस बात को पसंद नहीं करते हैं, इसीलिये तुम सफेद और दुर्बल हो गये हो। अथवा यह भी संभव है कि तुम्हारा पुत्र दुर्विनीत-उद्दण्ड हो, या दामाद घर की सारी सम्पत्ति झाड़-पोंछकर ले जाने वाला हो या तुम्हारी पत्नी प्रतिकूल स्वभाव की हो, इसी से तुम कृशकाय और पीले हो जा रहे हो।
तुम्हारे भाई बड़े बेईमान हों अथवा तुम्हारे पिता-माता या ज्येष्ठ भाई एवं गुरुजन भूख से दुर्बल होकर मर गये हों इस बात की सम्भावना हे। शायद इसी से तुम्हारे शरीर का रंग सफेद हो गया है और तुम सूखते चले जा रहे हो अथवा यह भी अनुमान होता है कि पहले तुमने किसी ब्राह्मण या गौ की हत्या की हो किसी ब्राह्मण या देवता का किसी समय अधिक से अधिक धन चुरा लिया हो इसीलिये तुम कृशकाय और पीले हो रहे हो। यह भी सम्भव है कि तुम्हारी स्त्री का किसी ने अपहरण कर लिया हो अथवा तुम बूढ़े हो चले हो या जगत के मनुष्य तुम से द्वेष करने लगे हों अथवा अज्ञान के द्वारा ही तुम बढ़े-चढ़े हो और इसीलिये चिन्ता के कारण तुम्हारा शरीर सफेद तथा दुर्बल हो गया हो। बुढ़ापे के लिये तुम्हारे पास धन का संग्रह देखकर दूसरों ने तुम्हारी उस निजी सम्पत्ति का अपहरण कर लिया हो अथवा जीविका के लिये दुष्ट पुरुषों की अपेक्षा रखनी पड़ती हो इसकी भी सम्भावना जान पड़ती है। शायद इसी चिन्ता से तुम्हारा शरीर दुर्बल होता और पीला पड़ता जा रहा हो। यह भी सम्भव है कि तुम्हारी स्त्री परम सुन्दरी होने के कारण तुम्हें बहुत प्रिय हो और तुम्हारे पड़ोस में ही कोई बहुत सुन्दर महाधनी और कामी नवयुवक निवास करता हो! इसी चिन्ता से तुम दुबले और पीले पड़ते जा रहे हो।[2] निश्चय ही तुम धनवानों के बीच परम उत्तम और समयोचित बात कहते होंगे किंतु वह उन्हें पसंद न आती होगी।[3] इसीलिये तुम सफेद और दुर्बल हो रहे हो। तुम्हारा कोई पहले का दृढ़ निश्चय वाला प्रिय व्यक्ति मूर्खता के कारण तुम पर कुपित हो गया होगा और तुम उसे किसी तरह समझा-बुझाकर शान्त नहीं कर पाते होंगे। इसीलिये तुम दुर्बल और फीके पड़ते जा रहे हो। निश्चय ही कोई मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार किसी अभीष्ट कार्य में नियुक्त करके सदा अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहता है इसीलिये तुम श्वेत; पीत वर्ण के और दुबले हो रहे हो। अवश्य ही तुम सदगुणों से युक्त होने के कारण दूसरे लोगों द्वारा पूजित होते हो परंतु तुम्हारा मित्र समझता है कि यह मेरे ही प्रभाव से आदर पा रहा है। इसीलिये तुम चिन्ता से दुर्बल एवं पीले होते जो रहे हो। निश्चय ही तुम लज्जावश किसी पर अपना आन्तरिक अभिप्राय नहीं प्रकट करना चाहते क्योंकि तुम्हें अपनी अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के विषय में संदेह है इसीलिये चिन्तावश सूखते और पीले पड़ते जा रहे हो। निश्चय ही संसार में नाना प्रकार की बुद्धि और भिन्न-भिन्न रुचि रखने वाले लोग रहते हैं।
उन सबको तुम अपने गुणों से वश में करना चाहते हो। इसीलिये क्षीणकाय और पाण्डुवर्ण के हो रहे हो। अथवा यह भी हो सकता है कि तुम विद्वान न होकर भी विद्या से मिलने वाले यश को पाना चाहते हो। डरपोक और कायर होने पर भी पराक्रम जनित कीर्ति पाने की अभिलाषा रखते हो और अपने पास बहुत थोड़ा धन होने पर भी दानवीर होने का यश पाने के लिये उत्सुक हो। इसीलिये कृशकाय और पीले हो रहे हो। तुमने कोई कार्य किया जिसका चिरकाल से अभिलषित कोई फल तुम्हें प्राप्त होने वाला था किंतु तुम्हें तो वह प्राप्त हुआ नहीं और दूसरे लोग उसे हर ले गये। इसीलिये तुम्हारे शरीर की कान्ति फीकी पड़ गयी है और दिनों-दिन दुबले होते जा रहे हो। एक बात यह भी ध्यान में आती है कि तुम्हें तो अपना दोष दिखाई नहीं देता तथापि दूसरे लोग अकारण ही तुम्हें कोसते रहते हैं। शायद इसीलिये तुम कान्ति हीन और दुर्बल होते जा रहे हो। तुम विरक्त साधुओं को गृहस्थए दुर्जनों को वनवासी तथा संन्यासियों को मठ-मन्दिर में आसक्त देखते हो इसीलिये सफेद औद दुर्बल होते जा रहे हो। तुम्हारे स्नेही बन्धु-बान्धव रोग आदि से पीड़ित होकर महान दुख भोगते हैं और तुम उन्हें उस पीड़ा जनित कष्ट से मुक्त नहीं कर पाते हो तथा अपने आपको भी तुम अर्थ-लाभ से हीन पाते हो शायद इसीलिये तुम सफेद और दुबले-पतले हो गये हो।[3] तुम्हारी बातें धर्म अर्थ और काम के अनुकूल एवं सामयिक होती हैं तो भी दूसरे लोग उन पर ठीक विश्वास नहीं करते हैं।इसलिये तुम कान्ति हीन एवं कृशकाय हो रहे हो। मनीषी होने पर भी तुम जीवन-निर्वाह की इच्छा से ही अज्ञानी पुरुषों के दिये हुए धन को लेकर उसी पर गुजारा करते हो इसीलिये तुम कान्ति हीन और दुर्बल हो। पापियों को आगे बढ़ते और कल्याणकारी कर्मों में लगे हुए पुण्यात्मा पुरुषों को दु:ख उठाते देखकर अवश्य ही तुम सदा इस परिस्थिति की निन्दा करते हो इसीलिये दुर्बल और पाण्डुवर्ण के हो गये हो। एक दूसरे से विरोध रखने वाले अपने सुहृदों को रोककर तुम निश्चय ही उनका प्रिय करना चाहते हो इसीलिये चिन्ता के कारण श्रीहीन और दुर्बल हो गये हो। वेदज्ञ ब्राह्मणों को वेद विरुद्ध कर्म में तत्पर और विद्वानों को इन्द्रियों के अधीन देखकर मेरी समझ में तुम निरन्तर चिन्तित रहते हो। सम्भवत इसीलिये तुम्हारा शरीर सफेद; पीला पड़ गया है और तुम दुर्बल हो गये हो। ऐसा कहकर जब उस ब्राह्मण ने राक्षस का समादर किया तब राक्षस ने भी ब्राह्मण का विशेष सत्कार किया। उसने ब्राह्मण को अपना मित्र बना लिया और उसे धन देकर छोड़ दिया।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 124 श्लोक 1-15
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 124 श्लोक 16-22
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 124 श्लोक 23-33
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 124 श्लोक 34-39
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| जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन
| दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित
| दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन
| पाँच प्रकार के दानों का वर्णन
| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
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| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
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| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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