ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन

महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 59 के अनुसार ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन इस प्रकार है[1]-

युधिष्ठिर का भीष्म से लोक में राजा की उत्पत्ति के विषय में पूछना

वैशम्पायनजी कहते है- जनमेजय! तदनन्तर दूसरे दिन सबेरे उठकर पाण्डव और यदुवंशी वीर पूर्वाह्नकाल के नित्यकर्म पूर्ण करने के अनन्तर नगराकार विशाल रथों पर सवार हो हस्तिनापुर से चल दिये। निष्पाप नरेश! कुरुक्षेत्र में जा रथियों में श्रेष्ठ गंगानन्दन भीष्म के पास पहुँचकर उनसे सुखपूर्वक रात बीतने का समाचार पूछकर व्यास आदि महर्षियों को प्रणाम करके उन सबके द्वारा अभिनन्दित हो वे पाण्डव और श्रीकृष्ण भीष्मजी को सब ओर से घेरकर उनके पास ही बैठ गये। तब महातेजस्वी राजा धर्मराज युधिष्ठिर ने भीष्म जी का विधिपूर्वक पूजन करके उनसे दोनों हाथ जोड़कर कहा। युधिष्ठिर बोले- शत्रुओं को संताप देने वाले भरतवंशी नरेश! लोक में जो यह राजा शब्द चल रहा है, इसकी उत्पत्ति कैसे हुई? यह मुझे बताने की कृपा करें। जिसे हम राजा कहते है, वह सभी गुणों में दूसरों के समान ही है। उसके हाथ, बाँह और गर्दन भी औरों की ही भाँति है। बुद्धि और इन्द्रियाँ भी दूसरे लोगों के ही तुल्य है। उसके मन में भी दूसरे मनुष्यों के समान ही सुख-दुख का अनुभव होता है। मुँह, पेट, पीठ, वीर्य, हड्डी, मज्जा, मांस, रक्त, उच्छ्वास, निश्वास, प्राण, शरीर, जन्म और मरण आदि सभी बातें राजा में भी दूसरों के समान ही है। फिर वह विशिष्ट बुद्धि रखने वाले अनेक शूरवीरों पर अकेला ही कैसे अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेता है। अकेला होने पर भी वह शूरवीर एवं सत्पुरुषों से भरी हुई इस सारी पृथ्वी का कैसे पालन करता है और कैसे सम्पूर्ण जगत की प्रसन्नता चाहता है? यह निश्चित रूप से देखा जाता है कि एकमात्र राजा की प्रसन्नता से ही सारा जगत प्रसन्न होता है और उस एक के ही व्याकुल होने पर सब लोग व्याकुल हो जाते है। भरतश्रेष्ठ! इसका क्या कारण है? यह मैं यथार्थरूप से सुनना चाहता हूँ। वक्ताओं में श्रेष्ठ पितामह! यह सारा रहस्य मुझे यथावत रूप से बताइये। प्रजानाथ! यह सारा जगत जो एक ही व्यक्ति को देवता के समान मानकर उसके सामने नतमस्तक हो जाता है, इसका कोई स्वल्प कारण नहीं हो सकता।[1]

भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को राजा की उत्पत्ति के विषय में बताना

भीष्मजी ने कहा- पुरुषसिंह! आदि सत्ययुग में जिस प्रकार राजा और राज्य की उत्पत्ति हुई, वह सारा वृत्तान्त तुम एकाग्र होकर सुनो। पहले न कोई राज्य था, न राजा, न दण्ड था और न दण्ड देने वाला, समस्त प्रजा धर्म के द्वारा ही एक दूसरे की रक्षा करती थी। भारत! सब मनुष्य धर्म के द्वारा परस्पर पालित और पोषित होते थे। कुछ दिनों के बाद सब लोग पारस्परिक संरक्षण के कार्य में महान कष्ट का अनुभव करने लगे; फिर उन सब पर मोह छा गया। नरश्रेष्ठ! जब सारे मनुष्य मोह के वशीभूत हो गये, तब कर्तव्याकर्तव्य के ज्ञान से शून्य होने के कारण उनके धर्म का नाश हो गया। भरतभूषण! कर्तव्याकर्तव्य का ज्ञान नष्ट हो जाने पर मोह के वशीभूत हुए सब मनुष्य लोभ के अधीन हो गये। फिर जो वस्तु उन्हें प्राप्त नहीं थी, उसे पाने का वे प्रयत्न करने लगे। प्रभो! इतने ही में वहाँ काम नामक दूसरे दोष ने उन्हें घेर लिया।[1] युधिष्ठिर! काम के अधीन हुए उन मनुष्यों पर क्रोध नामक शत्रु ने आक्रमण किया। क्रोध के वशीभूत होकर वे यह न जान सके कि क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य? राजेन्द्र! उन्होंने अगम्यागमन, वाच्य-अवाच्य, भक्ष्य-अभक्ष्य तथा दोष-अदोष कुछ भी नहीं छोडा। इस प्रकार मनुष्यलोक में धर्म का विप्लव हो जाने पर वेदों के स्वाध्यायका भी लोप हो गया। राजन्! वैदिक ज्ञान का लोप होने से यज्ञ आदि कर्मों का भी नाश हो गया। इस प्रकार जब वेद और धर्म का नाश होने लगा, तब देवताओं के मन में भय समा गया। पुरुषसिंह! वे भयभीत होकर ब्रह्माजी की शरण में गये। लोकपितामह भगवान ब्रह्मा को प्रसन्न करके दुख के वेग से पीड़ित हुए समस्त देवता उनसे हाथ जोडकर बोले-भगवन! मनुष्यलोक में लोभ, मोह आदि दूषित भावों ने सनातन वैदिक ज्ञान को विलुप्त कर डाला है; इसलिये हमें बडा भय हो रहा है।[2]- ईश्वर! तीनों लोकों के स्वामी परमेश्वर! वैदिक ज्ञान का लोप होने से यज्ञ-धर्म नष्ट हो गया। इससे हम सब देवता मनुष्यों के समान हो गये है। मनुष्य यज्ञ आदि में घी की आहुति देकर हमारे लिये ऊपर की ओर वर्षा करते थे और हम उनके लिये नीचे की ओर पानी बरसाते थे; परंतु अब उनके यज्ञकर्म का लोप हो जाने से हमारा जीवन संशय में पड गया है। पितामह! अब जिस उपाय से हमारा कल्याण हो सके, वह सोचिये। आपके प्रभाव से हमें जो दैवस्वभाव प्राप्त हुआ था, वह नष्ट हो रहा है। तब भगवान ब्रह्मा ने उन सब देवताओं से कहा- सुरश्रेष्ठगण! तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये। मैं तुम्हारे कल्याण का उपाय सोचूँगा। तदनन्तर ब्रह्माजी ने अपनी बुद्धि से एक लाख अध्यायों का एक ऐसा नीतिशास्त्र रचा, जिसमें धर्म, अर्थ और काम का विस्तारपूर्वक वर्णन है। जिसमें इन वर्गों का वर्णन हुआ है, वह प्रकरण त्रिवर्ग नाम से विख्यात है। चैथा वर्ग मोक्ष है; उसके प्रयोजन और गुण इन तीनों वर्गों से भिन्न है। मोक्ष का त्रिवर्ग दूसरा बताया गया है। उसमें सत्त्व, रज और तम की गणना है- दण्डजनित त्रिवर्ग उससे भिन्न है। स्थान, वृद्धि और क्षय - ये ही उसके भेद है ( अर्थात दण्ड से धनियों की स्थिति, धर्मात्माओं की वृद्धि और दुष्टों का विनाश होता है )।[2]

ब्रह्मा जी का नितिशास्त्र

ब्रह्माजी के नीतिशास्त्र में आत्मा, देश, काल, उपाय, कार्य और सहायक - इन छः वर्गो का वर्णन है। ये छहों नीतिद्वारा संचालित होने पर उन्नति के कारण होते हैं। भरतश्रेष्ठ! उस ग्रन्थ में वेदत्रयी ( कर्मकाण्ड), आन्वीक्षिकी ( ज्ञानकाण्ड ), वार्ता ( कृषि गोरक्षा और वाणिज्य ) और दण्डनीति- इन विपुल विद्याओं का निरूपण किया गया है। ब्रह्माजी के उस नीतिशास्त्र में मन्त्रियों की रक्षा ( उन्हें कोई फोड न ले, इसके लिये सतर्कता ), प्रणिधि ( राजदूत ), राजपुत्र के लक्षण, गुप्तचरों के विचरण के विविध उपाय, विभिन्न स्थानों में विभिन्न प्रकार के गुप्तचरों की नियुक्ति, साम, दान, भेद, दण्ड और उपेक्षा- इन पाँचों उपायों का पूर्णरूप् से प्रतिपादन किया गया है। सब प्रकार की मन्त्रणा, भेदनीति के प्रयोग के प्रयोजन, मन्त्रणा में होने वाले भ्रम या उसके फूटने के भय तथा मन्त्रणा की सिद्धि और असिद्धि के फल का भी इस शास्त्र में वर्णन है।[2]

संधि के भेदो का वर्णन

संधि के तीन भेद है- उत्तम, मध्यम और अधम, इन की क्रमशः वित्तसंधि, सत्कारसंधि और भयसंधि- ये तीन संज्ञाएँ है। धन लेकर जो संधि की जाती है, वह वित्तसंधि उत्तम है। सत्कार पाकर की हुई दूसरी संधि मध्यम है और भय के कारण की जाने वाली तीसरी संधि अधम मानी गयी है। इस सबका उस ग्रन्थ में विस्तारपूर्वक वर्णन है। राजा से हीन प्रजा की बह्माजी से राजा के लिये प्रार्थना शत्रुओं पर चढाई करने के चार[3] अवसर त्रिर्वग के विस्तार, धर्म-विजय तथा आसुर -विजय का भी उक्त ग्रन्थ में पूर्ण रुप से वर्णन किया है।[4]-

गुप्त सेना तथा वर्गो का वर्णन

मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, सेना और कोष - इन पाँच वर्गो के उत्तम, मध्यम और अधम भेद से तीन प्रकार के लक्षणों का भी प्रतिपादन किया गया है। प्रकट और गुप्त दो प्रकार की सेनाओं का भी वर्णन किया है। उनमे प्रकट सेना आठ प्रकार की बताई गयी है। और गुप्त सेना का विस्तार बहुत अधिक कहा गया है। कुरुवंशी पाण्डुनन्दन! हाथी, घोडे, रथ, पैदल, बेगार में पकडे़ गये बोझ ढोने वाले गुरु- ये सेना के प्रकट आठ अंग है। सेना के गुप्त अंग हैं जंगम (सर्पादिजनित) और अजंगम (पेड़-पौधों से उत्पन्न) विष आदि चूर्ण योग अर्थात विनाशकारक ओषधियाँ। यह गोपनीय दण्डनसाधन (विष आदि) शत्रुपक्ष के लोगों वस्त्र आदि के साथ स्पर्श कराने अथवा उनके भोजन में मिला देने के उपयोग में आता है। विभिन्न मन्त्रों के जप का प्रयोग भी पूर्वोक्त नीतिशास्त्र में बताया गया है। इसके सिवा इस ग्रन्थो में शत्रु, मित्र और उदासीन का भी बारंबार वर्णन किया गया है। तथा मार्ग के समस्त गुण, भूमि के गुण, आत्मरक्षा के उपाय, आश्वासन तथा रथ आदि के निर्माण और निरीक्षण आदि का भी वर्णन है। सेना को पुष्ट करने वाले अनेक प्रकार के योग, हाथी, घोडा, रथ और मनुष्य-सेना की भाँति-भाँति की व्यूह-रचना, नाना प्रकार के युद्धकौशल, जैसे ऊपर उछल जाना नीचे झुककर अपने को बचा लेना, सावधान होकर भलिभाँति युद्ध करना, कुशलता पुर्वक वहाँ से निकल भागना-इन सब उपायों का भी इस ग्रन्थो में वर्णन है। भरतश्रेष्ठ! शस्त्रों के सरंक्षण और प्रयोग के ज्ञानता भी उनमें उल्लेख है। पाण्डुकुमार! विपत्ति से सेनाओं का उद्धार करना, सैनिकों का हर्ष और उत्साह बढाना, पीडा़ और आपत्ति के समय पैदल सैनिकों की स्वामिभक्ति की परीक्षा करना- इन सब बातों का उस शास्त्र में वर्णन किया गया है। दुर्ग के चारों ओर खाई खुदवाना, सेना का युद्ध के लिये सुसज्जित होना तथा रणयात्रा करना, चोरों और भयानक जंगली लुटेरों द्वारा शत्रु के राष्ट्र को पीड़ा देना, आग लगाने वाले, जहर देने वाले, छत्रवेशधारी लोगों द्वारा भी शत्रु को हानि पहुँचाना तथा एक-एक शत्रुदल के प्रधान-प्रधान लोगों में भेद उत्पन्न करना, फसल और पौधों को काट लेना, हाथियों को भड़काना, लोगों में आतंक उत्पन्न करना, शत्रुओं में अनुरक्त पुरुष को अनुनय आदि के द्वारा फोड़ लेना और शत्रुपक्ष के लोगों में अपने प्रति विश्वास उत्पन्न कराना आदि उपायों से शत्रु के राष्ट्र को पीड़ा देने की कला का भी ब्रह्माजी के उक्त ग्रन्थ में वर्णन किया गया है।[4]

धर्म के लिए धन का त्याग

सात अंगो से युक्त राज्य के ह्रास, वृद्धि और समान भाव से स्थिति, दूत के सामर्थ्य से होने वाली अपनी और अपने राष्ट्र की वृद्धि, शत्रु, मित्र और मध्यस्थों का विस्तारपूर्वक सम्यक विवेचन, बलवान् शत्रुओं को कुचल डालने तथा उनसे टक्कर लेने की विधि आदि का उक्त ग्रंथ में वर्णन किया गया हैं। शासन सम्बधी अत्यन्त सूक्ष्म व्यवहार, कण्टक-शोधन ( राज्यकार्य में विघ्न डालने वाले को उखाड़ फेंकना ), परिश्रम, व्यायाम-योग तथा धन के त्याग और संग्रह भी उसमें प्रतिपादन किया गया हैं। जिनके भरण-पोषण का कोई उपाय न हो, उनके जीवन-निर्वाह का प्रबंध करना, जिनके भरण-पोषण की व्यवस्था राज्य की ओर से की गयी हो उनकी देखभाल करना, समय पर धन का दान करना, दुव्र्यसन में आसक्त न होना आदि विविध विषयों का उस ग्रंथ में उल्लेख हैं। राजा के गुण, सेनापति के गुण, अर्थ, धर्म और काम के साधन तथा उनके गुण-दोष का भी उसमें निरूपण किया गया हैं। भाँति-भाँति की दुश्चेष्टा, अपने सेवकों की जीविका का विचार, सबके प्रति सशक्त रहना, प्रमाद का परित्याग करना, अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना, प्राप्त हुई वस्तु को सुरक्षित रखते हुए उसे बढ़ाना और बढ़ी हुई वस्तु का सुपात्रों को विधिपूर्वक दान देना-यह धन का पहला उपयोग हैं। धर्म के लिये धन का त्याग उसका दूसरा उपयोग हैं, कामभोग के लिये उसका व्यय करना तीसरा और संकट-निवारण के लिये उसे खर्चं करना उसका चौथा उपयोग हैं। इन सब बातोें का उस ग्रंथ में भली-भाँति वर्णन किया गया हैं।[5]-

काम और क्रोध से उत्पन्न व्यसन

कुरूश्रेष्ठ! क्रोध और काम से उत्पन्न होने वाले जो यहाँ दस प्रकार के भयंकर व्यसन हैं, उनका भी इस ग्रन्थ में उल्लेख हैं। भरतश्रेष्ठ! नीतिशास्त्र के आचार्यों ने जो मृगया, द्यूत, मद्यपान और स्त्रीप्रसंग -ये चार प्रकार के कामजनित व्यसन बताये हैं, उन सबका इस ग्रंथ में ब्रह्मा जी ने प्रतिपादन किया है। वाणी की कटुता, उग्रता, दण्ड़ की कठोरता, शरीर को कैद कर लेना, किसी को सदा के लिये त्याग देना और आर्थिक हानि पहुँचाना -ये छः प्रकार के क्रोधजनित व्यसन उक्त ग्रंथ में बताये गये हैं। नाना प्रकार के यन्त्रों और उनकी क्रियाओं का भी वर्णन किया गया हैं। शत्रु के राष्ट्र को कुचल देना, उसकी सेनाओं पर चोट करना और उनके निवास-स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट कर देना-इन सब बातों का भी इस ग्रंथ में उल्लेख हैं। शत्रु की राजधानी के चैत्य वृक्षों का विध्वंस करा देना, उसके निवास-स्थान और नगर पर चारों ओर से घेरा डालना आदि उपायों का तथा कृषि एवं शिल्प आदि कर्मों का उपदेश, रथ के विभिन्न अवयवों का निर्माण, ग्राम और नगर आदि में निवास करने की विधि तथा जीवन-निर्वाह के अनेक उपायों का भी उक्त ग्रंथ में वर्णन हैं।[5]

द्रव्यों का उल्लेख

युधिष्ठिर! ढ़ोल, नगारे, शंख, भेरी आदि रणवाद्यों को बजाने, मणि, पशु, पृथ्वी, वस्त्र, दास-दासी तथा सुवर्ण-इन छः प्रकार के द्रव्यों का अपने लिये उपार्जन करने तथा शत्रुपक्ष की इन वस्तुओं का विनाश कर देने का भी इस शास्त्र में उल्लेख हैं। अपने अधिकार में आये हुए देशों में शान्ति स्थापित करना, सत्पुरुषों का सत्कार करना, विद्वानों के साथ एकता (मेल-जोल) बढ़ाना, दान और होम की विधि को जानना, मांगलिक वस्तुओं का स्पर्श करना, शरीर को वस्त्र और आभूषणों से सजाना, भोजन की व्यवस्था करना और सर्वदा आस्तिक बुद्धि रखना-इन सब बातों का भी उस ग्रन्थ में वर्णन हैं।[5]

भीष्म का युधिष्ठिर को नितिपूर्ण शास्त्र के विषय में बताना

मनुष्य अकेला होकर भी किस प्रकार उत्थान (उन्नति) करें? इसका विचार, सत्यता, उत्सवों और समाजों में मधुर वाणी का प्रयोग तथा गृहसम्बन्धी क्रियाएँ-इन सबका वर्णन किया गया हैं। भरतवंश के सिंह युधिष्ठिर! समस्त न्यायालयों में जो प्रत्यक्ष और परोक्ष विचार होतें हैं तथा वहाँ जो राजकीय पुरुषों के व्यवहार होते हैं, उन सबका प्रतिदिन निरीक्षण करना चाहिये। इसका भी उक्त शास्त्र में उल्लेख हैं। ब्राह्मणों को दण्ड़ न देने का, अपराधियों को युक्तिपूर्वक दण्ड़ देने का, अपने पीछे जिनकी जीविका चलती हो उनकी, अपने जाति-भाइयों की तथा गुणवान् पुरुषों की भी उन्नति करने का उस ग्रन्थ में उल्लेख हैं। राजन्! पुरवासियों की रक्षा, राज्य की वृद्धि तथा द्वादश[6] राजमण्ड़लों के विषय में जो चिन्तन किया जाता हैं, उसका भी इस ग्रन्थ में उल्लेख हुआ हैं। वैद्यक शास्त्र के अनुसार बहत्तर प्रकार की शारीरिक चिकित्सा तथा देश, जाति और कुल के धर्मों का भी भली-भाँति वर्णन किया गया हैं। प्रचुर दक्षिणा देने वाले युधिष्ठिर! इस ग्रन्थ में धर्म अर्थ, काम और मोक्ष का, इनकी प्राप्ति के उपायों का तथा नाना प्रकार की धन-लिप्साका भी वर्णन हैं। इस ग्रन्थ में कोश की वृद्धि करने वाले जो कृषि, वाणिज्य आदि मूल कर्म हैं, उनके करने का प्रकार बताया गया हैं। माया के प्रयोग की विधि समझायी गयी हैं। स्त्रोंतजल और अस्थिरजल के दोषों का वर्णन किया गया हैं।[7]- राजसिंह! जिन-जिन उपायों द्वारा यह जगत् सन्मार्ग से विचलित न हो, उन सबका इस नीतिशास्त्र में प्रतिपादन किया गया हैं। इस शुभ शास्त्र का निर्माण करके जगत् स्वामी भगवान ब्रह्मा बड़े प्रसन्न हुए और इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवताओं से इस प्रकार बोले-देवगण! सम्पूर्ण जगत् के उपकार तथा धर्मं, अर्थं एवं काम की स्थापना के लिये वाणी का सारभूत यह विचार यहाँ प्रकट किया गया। दण्ड़-विधान के साथ रहने वाली यह नीति सम्पूर्ण जगत् की रक्षा करने वाली हैं। यह दुष्टों के निग्रह और साधु पुरुषों के प्रति अनुग्रह में तत्पर रहकर सम्पूर्ण जगत् में प्रचलित होगी। इस शास्त्र के अनुसार दण्ड़ के द्वारा जगत् का सन्मार्ग पर स्थापन किया जाता हैं अथवा राजा इसके अनुसार प्रजावर्ग में दण्ड़ की स्थापना करता है़; इसलिये यह विद्या दण्ड़नीति के नाम से विख्यात हैं। इसका तीनों लोकों में विस्तार होगा। यह विद्या संधि-विग्रह आदि छहों गुणों का सारभूत हैं। महात्माओं में इसका स्थान सबसे आगे होंगा। इस शास्त्र में धर्मं, अर्थं, काम और मोक्ष-इन चारों पुरुषार्थों का निरूपण किया गया हैं। तदनन्तर सबसे पहले भगवान शंकर ने इस नीतिशास्त्र को ग्रहण किया। वे बहुरूप, विशालाक्ष, शिव, स्थाणु, उमापति आदि नामों सें प्रसिद्ध हैं।[7] विशालाक्ष भगवान शिव ने प्रजावर्ग की आयु का ह्रास होता जानकर ब्रह्याजी के रचे हुए इस महान अर्थं से भरे हुए शास्त्र को संक्षिप्त किया था; इसलिये इसका नाम ’वैशालक्ष’ हो गया। फिर इसे इन्द्र ने ग्रहण किया। महातपस्वी सुब्रह्यण्य भगवान पुरन्दर ने जब इसका अध्ययन किया, उस समय इसमें दस हजार अध्याय थे। फिर उन्होंने भी इसका संक्षेप किया, जिससे यह पाँच हजार अध्यायों का ग्रंथ हों गया। तात! वही ग्रंथ ’बाहुदन्तक’ नामक नीतिशास्त्र के रूप में विख्यात हुआ। इसके बाद सामर्थ्यशाली बृहस्पति ने अपनी बुद्धि से इसका संक्षेप किया, तब से इसमें तीन हजार अध्याय रह गये। यही ’बार्हस्पत्य’ नामक नीतिशास्त्र कहलाता हैं। फिर महायशस्वी, योगाशास्त्र के आचार्य तथा अमित बुद्धिमान शुक्राचार्यं ने एक हजार अध्यायों में उस शास्त्र का संक्षेप किया। इस प्रकार मनष्यों की आयु का ह्यास होता जानकर जगत् के हित के लिये महर्षियों ने इस शास्त्र का संक्षेप किया हैं।[8]-

विष्णु के तेज से मानस पुत्र की उत्पत्ति

तदनन्तर देवताओं ने प्रजापति भगवान विष्णु के पास जाकर कहा-’भगवन्! मनुष्यों में जो एक पुरुष सबसे श्रेष्ठ पद प्राप्त करने का अधिकारी हो, उसका नाम बताइये’। तब प्रभावशाली भगवान नारायण देव ने भली-भाँति सोच-विचारकर अपने तेज से एक मानस पुत्र की, जो विरजा के नाम से विख्यात हुआ।[8]

विरजा के पुत्र तथा पुत्र के पुत्रों का वर्णन

पाण्डुनन्दन! महाभाग विरजा ने पृथ्वी पर राजा होने की इच्छा नहीं की। उनकी बुद्धि ने संन्यास लेने का ही निश्चय किया। विरजा के कीर्तिमान् नामक एक पुत्र हुआ। वह भी पाँचों विषयों से ऊपर उठकर मोक्षमार्ग का ही अवलम्बन करने लगा। कीर्तिमान् के पुत्र हुए कर्दम। वे भी बड़ी भारी तपस्या में लग गयें। प्रजापति कर्दम के पुत्र का नाम अनंग था, जो कालक्रम से प्रजा का संरक्षण करने में समर्थं, साधु तथा दण्डनीति विद्या में निपुण हुआ। अनंग के पुत्र का नाम था अतिबल। वह भी नीतिशास्त्र का ज्ञाता था, उसने विशाल राज्य प्राप्त किया। राज्य पाकर वह इन्द्रियों का गुलाम हो गया। राजन्! मृत्यु की एक मानसिक कन्या थी, जिसका नाम था सुनीथा। जो अपने रूप और गुण के लिये तीनों लोकों में विख्यात थी। उसी ने वेन को जन्म दिया था। वेन राग-द्वेष के वशीभूत हो प्रजाओं पर अत्याचार करने लगा। तब वेदवादी ऋषियों ने मन्त्रपूत कुशों द्वारा उसे मार ड़ाला। फिर वे ही ऋषि मन्त्रोच्चारणपूर्वक वेन की दाहिनी जंघा का मंथन करने लगे। उससे इस पृथ्वी पर एक नाटे कद का मनुष्य उत्पन्न हुआ, जिसकी आकृति बेडौल थी। वह जले हुए खम्भे के समान जान पड़ता था। उसकी आँखें लाल और काले बाल थे। वेदवादी महर्षियों ने उसे देखकर कहा- निषीद’ बैठ जाओ। उसी से पर्वतों और वनों में रहने वाले क्रूर निषादों की उत्पति हुई तथा दूसरे जो विन्ध्यगिरी के निवासी लाखों म्लेच्छ थे, उनका भी प्रादुर्भाव हुआ। इसके बाद फिर महर्षियों ने वेन के दाहिने हाथ का मन्थन किया। उससे एक-दूसरे पुरुष का प्राकट्य हुआ, जो रुप में देवराज इन्द्र के समान थें। वे कवच धारण किये, कमर में तलवार बाँधे तथा धनुष और बाण लिये प्रकट हुए थे। उन्हें वेदों और वेदान्तों का पूर्ण ज्ञान था। वे धनुर्वेद के भी पारंगत विद्वान थे।[8] राजन्! नरश्रेष्ठ वेनकुमार को सारी दण्डनीति का स्वतः ज्ञान हो गया। तब उन्होंने हाथ जोड़कर उन महर्षियों से कहा-’महात्माओं! धर्म और अर्थ का दर्शन कराने वाली अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि मुझे स्वतः प्राप्त हो गयी हैं। मुझे इस बुद्धि के द्वारा आप लोगों की कौन-सी सेवा करनी हैं, यह मुझे यथार्थ रुप से बताइये’। ’आप लोग मुझे जिस किसी भी प्रयोजनपूर्ण कार्य के लिये आज्ञा देंगे, उसे मैं अवश्य पूरा करूँगा। इसमें कोई अन्यंथा विचार नहीं करना चाहिये’। तब वहाँ देवताओं और उन महर्षियों ने उनसे कहा-’वेननन्दन! जिस कार्यं में नियमपूर्वक धर्म की सिद्धि होती हो, उसे निर्भय होकर करो’। ’प्रिय और अप्रिय का विचार छोड़कर काम, क्रोध, लोभ और मान को दूर हटाकर समस्त प्राणियों के प्रति समभाव रखो। ’लोक में जो कोई भी मनुष्य धर्म से विचलित हो, उसे सनातन धर्म पर दृष्टि रखते हुए अपने बाहुबल से परास्त करके दण्ड़ दो’। ’साथ ही यह प्रतिज्ञा करो कि ’मैं मन, वाणी और क्रिया द्वारा भूतलवर्ती ब्रह्य (वेद) का निरन्तर पालन करूँगा’। ’वेद में दण्ड़नीति से सम्बन्ध रखने वाला जो नित्य धर्म बताया गया हैं, उसका मैं निःशंक होकर पालन करूँगा। कभी स्वच्छन्द नहीं होऊँगा’।[9]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 1-18
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 19-36
  3. शत्रु पर चढ़ाई करने के चार अवसर ये है- 1. अपने मित्रों की वृद्धि , 2. अपने कोश का भरपूर संग्रह, 3. शत्रु के मित्रों का नाश, 4. शत्रु कोश की हानि।
  4. 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 37-50
  5. 5.0 5.1 5.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 51-66
  6. पहला शत्रु राजा, दूसरा मित्र राजा, तीसरा शत्रु का मित्र राजा, चौथा मित्र का राज, पाँचवा शत्रु के मित्र का राजा छठा अपने पृष्ठभाग की रक्षा के लिए स्वयं उपस्थित हुआ राजा, सातवाँ शत्रु की सहायता एवं पृष्ठपोषण के लिये स्वंय उपस्थित राजा, आठवाँ अपने पक्ष में बुलाने पर आया हुआ राजा, नवाँ शत्रुपक्ष में बुलाने पर आया हुआ राजा, दसवाँ स्वयं विजयभिलाषी नरेश, ग्यारहवाँ अपने और शत्रु दोनों की ओर से मध्यस्थ राजा, बारहवाँ सबसे अधिक शक्तिशाली एवं उदासीन राजा- ये द्वादश राज मण्डल कहे गये है।
  7. 7.0 7.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 67-80
  8. 8.0 8.1 8.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 81-99
  9. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 59 श्लोक 100-119

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राजधर्मानुशासन पर्व
युधिष्ठिर के पास नारद आदि महर्षियों का आगमन | युधिष्ठिर का कर्ण को शाप मिलने का वृत्तांत पूछना | नारद का कर्ण को शाप प्राप्त होने का प्रसंग सुनाना | कर्ण को ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति और परशुराम का शाप | कर्ण की मदद से दुर्योधन द्वारा कलिंगराज कन्या का अपहरण | कर्ण के बल और पराक्रम से प्रसन्न होकर जरासंध का उसे अंगदेश का राजा बनाना | युधिष्ठिर का स्त्रियों को शाप | युधिष्ठिर का अर्जुन से आन्तरिक खेद प्रकट करना | अर्जुन का युधिष्ठिर के मत का निराकरण करना | युधिष्ठिर का वानप्रस्थ एवं संन्यासी जीवन का निश्चय | भीम का राजा के लिए संन्यासी का विरोध | अर्जुन का इंद्र और ऋषि बालकों के संवाद का वर्णन | नकुल का गृहस्थ धर्म की प्रशंसा करते हुए युधिष्ठिर को समझाना | सहदेव का युधिष्ठिर को ममता और आसक्ति से मुक्त राज्य करने की सलाह देना | द्रौपदी का युधिष्ठिर को राजदण्डधारणपूर्वक शासन के लिए प्रेरित करना | अर्जुन द्वारा राज राजदण्ड की महत्ता का वर्णन | भीम का राजा को मोह छोड़कर राज्य-शासन के लिए प्रेरित करना | युधिष्ठिर द्वारा भीम की बात का विरोध एवं मुनिवृत्ति-ज्ञानी महात्माओं की प्रशंसा | जनक का दृष्टांत सुनाकर अर्जुन द्वारा युधिष्ठिर को संन्यास ग्रहण से रोकना | युधिष्ठिर द्वारा अपने मत की यथार्थता का प्रतिपादन | मुनिवर देवस्थान का युधिष्ठिर को यज्ञानुष्ठान के लिए प्रेरित करना | देवस्थान मुनि द्वारा युधिष्ठिर के प्रति उत्तम धर्म-यज्ञादि का उपदेश | क्षत्रिय धर्म की प्रशंसा करते हुए अर्जुन पुन: युधिष्ठिर को समझाना | व्यास जी द्वारा शंख और लिखित की कथा सुनाना | व्यास द्वारा सुद्युम्न के दण्डधर्मपालन का महत्त्व सुनाकर युधिष्ठिर को आज्ञा देना | व्यास का युधिष्ठिर को हयग्रीव का चरित्र सुनाकर कर्तव्यपालन के लिए जोर देना | सेनजित के उपदेश युक्त उद्गारों का उल्लेख करके व्यास का युधिष्ठिर को समझाना | युधिष्ठिर द्वारा धन के त्याग की महत्ता का प्रतिपादन | युधिष्ठिर को शोकवश शरीर त्यागने को उद्यत देख व्यास का समझाना | अश्मा ऋषि एवं जनक के संवाद द्वारा व्यास द्वारा युधिष्ठिर को समझाना | श्रीकृष्ण द्वारा नारद-सृंजय संवाद के रूप में युधिष्ठिर के शोक निवारण का प्रयत्न | महर्षि नारद और पर्वत का उपाख्यान | सुवर्णष्ठीवी के जन्म, मृत्यु और पुनर्जीवन का वृत्तांत | व्यास का अनेक युक्तियों से युधिष्ठिर को समझाना | व्यास का युधिष्ठिर को समझाते हुए देवासुर संग्राम का औचित्य सिद्ध करना | कर्मों को करने और न करने का विवेचन | पापकर्म के प्रायश्चितों का वर्णन | स्वायम्भुव मनु के कथानुसार का धर्म का स्वरूप | पाप से शुद्धि के लिए प्रायश्चित | अभक्ष्य वस्तुओं का वर्णन | दान के अधिकारी एवं अनधिकारी का विवेचन | व्यासजी और श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर का नगर में प्रवेश | नगर प्रवेश के समय पुरवासियों एवं ब्राह्मणों द्वारा राजा युधिष्ठिर का सत्कार | चार्वाक का ब्राह्मणों द्वारा वध | चार्वाक को प्राप्त हुए वर आदि का श्रीकृष्ण द्वारा वर्णन | युधिष्ठिर का राज्याभिषेक | युधिष्ठिर का धृतराष्ट्र के अधीन रहकर राज्य व्यवस्था के लिए अपने का भाइयों को नियुक्त करना | युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र का युद्ध में मारे गये सगे-संबंधियों का श्राद्धकर्म करना | युधिष्ठिर द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति | युधिष्ठिर द्वारा दिये हुए भवनों में सभी भाइयों का प्रवेश और विश्राम | युधिष्ठिर द्वारा ब्राह्मणों एवं आश्रितों का सत्कार | युधिष्ठिर और श्रीकृष्ण का संवाद | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म की प्रशंसा तथा युधिष्ठिर को उनके पास चलने का आदेश | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति-भीष्मस्तवराज | परशुराम द्वारा होने वाले क्षत्रिय संहार के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा | श्रीकृष्ण द्वारा भीष्म के गुण-प्रभाव का वर्णन | श्रीकृष्ण का भीष्म की प्रशंसा करते हुए उन्हें युधिष्ठिर को धर्मोपदेश देने का आदेश देना | भीष्म द्वारा अपनी असर्मथता प्रकट करने पर भगवान श्रीकृष्ण का उन्हें वर देना | पाण्डवों व ऋषियों का भीष्म से विदा लेना | श्रीकृष्ण की प्रातश्चर्या | सात्यकि द्वारा कृष्ण का संदेश पाकर युधिष्ठिर का भाइयों सहित कुरुक्षेत्र में आना | श्रीकृष्ण और भीष्म की बातचीत | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को गुण-कथनपूर्वक प्रश्न करने का आदेश देना | भीष्म के आश्वासन पर युधिष्ठिर का उनके समीप जाना | युधिष्ठिर के पूछने पर भीष्म द्वारा राजधर्म का वर्णन | राजा के लिए पुरुषार्थ, सत्य, ब्राह्मणों की अदण्डनीयता | राजा की परिहासशीलता तथा मृदुता में प्रकट होने वाले दोष | राजा द्वारा धर्मानुकूल नीतिपूर्ण बर्ताव का वर्णन | भीष्म द्वारा राज्यरक्षा का वर्णन | युधिष्ठिर का भीष्म से विदा लेकर हस्तिनापुर में प्रवेश | ब्रह्मा जी के नीतिशास्त्र का वर्णन | राजा पृथु के चरित्र का वर्णन | वर्णधर्म का वर्णन | आश्रम धर्म का वर्णन | ब्राह्मण धर्म और कर्तव्यपालन का महत्त्व | वर्णाश्रम धर्म का वर्णन | राजर्धम का वर्णन | इन्द्ररूपधारी विष्णु और मान्धाता का संवाद | राजधर्म के पालन से चारों आश्रमों के धर्म का फल | राष्ट्र की रक्षा और उन्नति | राजा की आवश्यकता का प्रतिपादन | वसुमना और बृहस्पति का संवाद | राजा के न होने से प्रजा की हानि और होने से लाभ का वर्णन | राजा के प्रधान कर्तव्य | दण्डनीति द्वारा युगों के निर्माण का वर्णन | राजा को इहलोक व परलोक में सुख प्राप्ति कराने वाले छत्तीस गुण | धर्मपूर्वक प्रजापालन ही राजा का महान धर्म | राजा के लिए सदाचारी विद्वान पुरोहित की आवश्यकता | विद्वान सदाचारी पुरोहित की आवश्यकता | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल रहने से लाभविषयक पुरूरवा का उपख्यान | ब्राह्मण और क्षत्रिय में मेल से लाभ का प्रतिपादन करने वाले मुचुकुन्द का उपाख्यान | राज्य के कर्तव्य का वर्णन | युधिष्ठिर का राज्य से विरक्त होने पर भीष्म द्वारा राज्य की महिमा का वर्णन | उत्तम-अधम ब्राह्मणों के साथ राजा का बर्ताव | केकयराजा तथा राक्षस का उपख्यान | केकयराजा की श्रेष्ठता का विस्तृत वर्णन | आपत्तिकाल में ब्राह्मण के लिए वैश्यवृत्ति से निर्वाह करने की छूट | लुटेरों से रक्षा के लिए शस्त्र धारण करने का अधिकार | रक्षक को सम्मान का पात्र स्वीकार करना | ऋत्विजों के लक्षण | यज्ञ और दक्षिणा का महत्व | तप की श्रेष्ठता | राजा के लिए मित्र और अमित्र की पहचान और उनके साथ नीतिपूर्ण बर्ताव | मन्त्री के लक्षणों का वर्णन | कुटुम्बीजनों में दलबंदी होने पर कुल के प्रधान पुरुष के कार्य | श्री कृष्ण और नारद जी का संवाद | मंत्रियों की परीक्षा तथा राजा और राजकीय मनुष्यों से सतर्कता | कालकवृक्षीय मुनि का उपख्यान | सभासद आदि के लक्षण | गुप्त सलाह सुनने के अधिकारी और अनधिकारी तथा गुप्त-मन्त्रणा की विधि एवं निर्देश | इन्द्र और वृहस्पति के संवाद में मधुर वचन बोलने का महत्व | राजा की व्यावहारिक नीति व मंत्रीमण्डल का संघटन | दण्ड का औचित्य तथा दूत व सेनापति के गुण | राजा के निवासयोग्य नगर एवं दुर्ग का वर्णन | प्रजापालन व्यवहार तथा तपस्वीजनों के समादर का निर्देश | राष्ट्र की रक्षा तथा वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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