ब्रह्मा के द्वारा तमोगुण, उसके कार्य और फल का वर्णन

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 36 में ब्रह्मा के द्वारा तमोगुण, उसके कार्य और फल का वर्णन हुआ है।[1]

ब्रह्मा के द्वारा तमोगुण का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! ब्रह्मा जी ने कहा- महर्षियों! जब तीनों गुणों की साम्यावस्था होती है, उस समय उसका नाम अव्यक्त प्रकृति होता है। अव्यक्त समस्त प्राकृत कार्यों में व्यापक, अविनाशी और स्थिर है। उपर्युक्त तीन गुणों में जब विषमता आती है, तब वे पंचभूत का रूप धारण करते है और उनसे नौ द्वार वाले नगर (शरीर) का निर्माण होता है, ऐसा जानो। इस पुर में जीवात्मा को विषयों की और प्रेरित करने वाली मन सति ग्यारह इन्द्रियाँ हैं। इनकी अभिव्यक्ति मन के द्वारा हुई है। बुद्धि इस नगर की स्वामिनी है, ग्याहरवाँ मन दस इन्द्रियों से श्रेष्ठ है। इसमें जो तीन स्त्रोत (त्तिरूपी नदी के प्रवाह) हैं, वे उन तीन गुणमयी नाडियों के द्वारा बार-बार भरे जाते एवं प्रवाहित होते हैं। सत्त्व, रज और तम- इन तीनों को गुण कहते हैं। ये परस्पर एक दूसरे के प्रतिद्वन्दी, एक दूसरे के आश्रित, करनेे वाले और परस्पर मिश्रित रहने वाले हैं। पाँचों महाभूत त्रिगुणात्मक हैं। तमोगुण का प्रतिद्वन्द्वी है सत्त्वगुण और सत्त्वगुण का प्रतिद्वन्छी रजोगणु है।

इसी प्रकार रजोगुण का प्रतिद्वन्दी सत्त्वगुण है और सत्त्वगुण का प्रतिद्वन्छी तमोगुण है। जहाँ तमोगुण को रोका जाता है, वहाँ रजोगुण बढ़ता है और जहाँ रजोगुण को दबाया जाता है, वहाँ सत्त्वगुण की वृद्धि होती है। तम को अन्धकार रूप और त्रिगुणमय समझना चाहिये। उसका दूसरा नाम मोह है। वह अधम्र को लक्षित कराने वाला और पाप करने वाले लोगों में निश्चित रूप से विद्यमान रहने वाला है। तमोगुण का यह स्वरूप दूसरे गुणों से मिश्रित भी दिखायी देता है। रजोगुण को प्रकृति रूप बतलाया गया है, यह सृष्टि की उत्पत्ति का कारण है। सम्पूर्ण भूतों में इसकी प्रवृति देखी जाती है। यह दृश्य जगत उसी का स्वरूप है, उत्पत्ति या प्रवृतित ही उसका लक्षण है। सब भूतों में प्रकाश, लघुता (गर्वहीनता) और श्रद्धा- यह सत्त्वगुण का रूप है। गर्वहीनता की श्रेष्ठ पुरुषों ने प्रशंसा की है। अब मैं तात्विक युक्तियों द्वारा संक्षेप और विस्तार के साथ इन तीनों गुणों के कार्यों का यथार्थ वर्णन करता हूँ, इन्हें ध्यान देकर सुनो।

तमोगुण के कार्य और फल का वर्णन

मोह, अज्ञान, त्याग का अभाव, कर्मों का निण्रय न कर सकना, निद्रा, गर्व, भय, लोभ, स्वयं शुभ कर्मों में दोष देखना, स्मरणशक्ति का अभाव, परिणाम न सोचना, नास्तिकता, दुश्चरित्रता, निर्विशेषता (अच्छे-बुरे के विवेक का अभाव), इन्द्रियों की शिथिलता, हिंसा आदि निन्दनीय दोषों में प्रवृत्त होना, अकार्य को कार्य और अज्ञान को ज्ञान समझना, शत्रुता, काम में मन न लगाना, अश्रद्धा, मूर्खतापूर्ण विचार, कुटिलता, नासमझी, पाप करना, अज्ञान, आलस्य आदि के कारण देह का भारी होना, भाव-भक्ति का न होना, अजितेन्द्रियता और नीच कर्मों में अनुराग- ये सभी दुर्गुण तमोगुण के कार्य बतलाये गये हैं। इसके सिवा और भी जो-जो बातें इस लोक में निषिद्ध मानी गयी हैं, वे सब तमोगुण ही हैं। देवता, ब्राह्मण और वेद की सदा निन्दा करना, दान न देना, अभिमान, मोह, क्रोध, असहनशीलता और प्राणियों के प्रति मात्सर्य- वे सब तामस बर्ताव हैं। (विधि और श्रद्ध से रहित) व्यर्थ कार्यों का आरम्भ करना, (देश-काल पात्र का विचार न करके अश्रद्धा और अवहेलना पूर्वक) व्यर्थ दान देना तथा (देवता और अतिथि को दिये बिना) व्यर्थ भोजन करना भी तामसिक कार्य है।[1]अतिवाद, अक्षमा, मत्सरता, अभिमान और अश्रद्धा को भी तमोगुण का बर्ताव माना गया है। संसार में ऐसे बर्ताव वाले और धर्म की मर्यादा भंग करने वाले जो भी पापी मनुष्य हैं, वे सब तमोगुणी माने गये हैं। ऐसे पापी मनुष्यों के लिये दूसरे जन्म में जो योनियाँ निश्चित की हुई हैं, उनका परिचय दे रहा हूँ। उनमें से कुछ तो नीचे नरकों में ढकेले जाते हैं और कुछ तिर्यग्योनियों में जन्म ग्रहण करते हैं। स्थावर (वृक्ष-पर्वत आदि) जीव, पशु, वाहन, राक्षस, सर्प, कीड़े-मकोड़े, पक्षी, अण्डज प्राणी, चौपाये, पागल, बहरे, गूँगे तथा अन्य जितने पापमय रोग वाले (कोढ़ी आदि) मनुष्य हैं, वे सब तमोगुण में डूबे हुए हैं। अपने कर्मों के अनुसार लक्षणों वाले ये दुराचारी जीव सदा दु:ख में निमग्न रहते हैं। उनकी चित्तवृत्तियों का प्रवाह निम्न दशा की ओर होता है, इसलिये उन्हें अर्वाक स्त्रोत कहते हैं। वे तमोगुण में निमग्न रहने वाले सभी प्राणी तामसी हैं। इसके पश्चात मैं यह वर्णन करूँगा कि उन तामसी योनियों में गये हुए प्राणियों का उत्थान और समृद्धि किस प्रकार होती है तथा वे पुण्यकर्मा होकर किस प्रकार श्रेष्ठ लोकों को प्राप्त होते हैं।[2]

जो विपरीत योनियों को प्राप्त प्राणी हैं, उनके[3]जब पूर्वकृत पुण्य कर्मों का उदय होता है, तब वे शुभ कर्मों के संस्कारों के प्रभाव से स्वकर्मनिष्ठ कल्याणकामी ब्राह्मणों की समानता को प्राप्त होते हैं अर्थात उनके कुल में उत्पन्न होते हैं और वहाँ पुन: यत्नशील होकर ऊपर उठते हैं एवं देवताओं के स्वर्गलोक में चले जाते हैं- यह वेद की श्रुति है। वे पुनरावृत्तिशील सकाम धर्म का आचरण करने वाले मनुष्य देवभाव को प्रात हो जाने के अनन्तर जब वहाँ से दूसरी योनि में जाते हैं तब यहाँ (मृत्यु लोक में) मनुष्य होते हैं। उनमें से कोई- कोई (बचे हुए पाप कर्म का फल भोगने के लिये) पुन: पापयोनि से युकत चाण्डाल, गूँगे और अटकर बोलने वाले होते हैं और प्राय: जन्म जन्मान्तर में उत्तरोत्तर उच्च वर्ण को प्राप्त होते हैं। कोई शूद्र योनि से आगे बढ़कर भी तामस गुणों से युक्त हो जाते हैं और उसके प्रवाह में पड़कर तमोगुण में ही प्रवृत्त रहते हैं। यह जो भोगों में आसक्त हो जाना है, यही महामोह बताया गया है। इस मोह में पड़कर भोगों का सुख चाहने वाले ऋषि, मुनि और देवगण भी मोहित हो जाते हैं।[4] तम (अविद्या), मोह (अस्मिता), महामोह (राग), क्रोध नामवाला तामिस्त्र और मृत्यु रूप अन्धतामिस्त्र यह पांच प्रकार की तामसी प्रकृति बतलायी गयी है। क्रोध को ही तामिस्त्र कहते हैं। विप्रवरो! वर्ण, गुण, योनि और तत्त्व के अनुसार मैंने आप से तमोगुण का पूरा-पूरा यथावत वर्णन किया। जो अतत्त्व में तत्त्व दृष्टि रखने वला है, ऐसा कौन सा मनुष्य इस विषय को अच्छी तरह देख और समझ सकता है? यह विपरित दृष्टि तमोगुण की यथार्थ पहचान है। इस प्रकार तमोगुण के स्वरूप और उसके कार्यभूत नाना प्रकार के गुणों का यथावाि वर्णन किया गया तथा तमोगुण से प्राप्त होने वाली ऊँची नीची योनियाँ भी बतला दी गयीं। जो मनुष्य इन गुणों को ठीक-ठीक जानता है, वह सम्पूर्ण तामसिक गुणों से सदा मुक्त रहता है।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 36 श्लोक 1-19
  2. 2.0 2.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 36 श्लोक 20-36
  3. पाप कर्मों का भोग पूरा हो जाने पर
  4. फिर साधारण मनुष्यों की तो बात ही क्या है?

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