ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 73 में ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा का वर्णन हुआ है[1]-

ब्रह्मा का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सुरेश्‍वर। सतकृतो। यह सब मैंने तुम्हें विशेष रूप से गोलोक का माहात्मय बताया है। अब गोदान करने वालों को जो फल प्राप्त होता है, उसे सुनो। जो पुरुष अपनी पैतृक संपत्ति से प्राप्त हुए धन के द्वारा गौऐं खरीदकर उनका दान करता है, वह उस धन से धर्म पूर्वक उपार्जित हुए अक्षय लोकों का प्राप्त होता है। शक्र। जो जुए में धन जीतकर उसके द्वारा गायों को खरीदता है और उनका दान करता है वह दस हजार दिव्य वर्षों तक उसके पुण्य फल का उपभोग करता है। जो पैतृक संपत्ति से न्याय पूर्वक प्राप्त की हुई गौओं का दान करता है, ऐसे दाताओं के लिये वे गौऐं अक्षय फल देने वाली हो जाती हैं। शचीपते। जो पुरुष दान में गौऐं लेकर फिर शुद्ध हृदय से उनका दान कर देता है, उसे भी यहाँ अक्षय एवं अटल लोकों की प्राप्ति होती है- यह निश्चित रूप से समझ लो। जो जन्म से ही सदा सत्य बोलता, इन्द्रियों को काबू में रखता, गुरुजनों तथा ब्राह्मणों की कठोर बातों को भी सह लेता और क्षमाशील होता है, उसकी गौओं के समान गति होती है। अर्थात वह गोलोक में जाता है। शचीपते शक्र। ब्राह्मण के प्रति कभी कुवाच्य नहीं बोलना चाहिये और गौओं के प्रति कभी मन से भी द्रोह का भाव नहीं रखना चहिये। जो ब्राह्मण गौओं के समान वृति से रहता है और गौओं के लिये घास आदि की व्यवस्था करता है साथ ही सत्य और धर्म में तत्पर रहता है, उसे प्राप्त होने वाले फल का वर्णन सुनो। वह यदि एक गौ का भी दान करे तो उसे एक हजार गोदान के समान फल मिलता है। यदि क्षत्रिय भी इन गुणों से युक्त होता है तो उसे भी ब्राह्मण के समान ही (गोदान का ) फल मिलता है।

इस बात को अच्छी तरह सुन लो। उसकी (दान दी हुई) गौ भी ब्राह्मण की गौ के तुल्य फल देने वाली होती है। यह धर्मात्माओं को निश्‍चय है। यदि वैश्‍य में भी उपयुक्त गुण हों तो उसे भी एक गोदान करने पर ब्राह्मण की अपेक्षा (आधे भाग) पांच सौ गौओं के दान का फल मिलता है और विनयशील शूद्र को ब्राह्मण के चौथाई भाग अर्थात ढाई सो गौओं के दान का फल प्राप्त होता है। जो पुरुष सदा सावधान रहकर इस उपयुक्त धर्म का पालन करता है तथा जो सत्यवादी, गुरुसेवापरायण, दक्ष, क्षमाशील, देवभक्त, शान्तचित्त, पवित्र, ज्ञानवान, धर्मात्मा और अहंकार शून्य होता है वह यदि पूर्वोक्त विधि से ब्राह्मण को दूध देने वाली गाय का दान करे तो उसे महान फल की प्राप्ति होती है। इन्द्र। जो सदा एक समय भोजन करके नित्य गोदान करता है, सत्य में स्थित होता है, गुरु की सेवा और वेदों का स्वाध्याय करता है, जिसके मन में गौओं के प्रति भक्ति है, जो गौओं का दान देकर प्रसन्न होता है तथा जन्म से ही गौओं को प्रणाम करता है, उसको मिलने वाले इस फल का वर्णन सुनो। राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करने से जिस फल की प्राप्ति होती है तथा बहुत से सुवर्ण की दक्षणा देकर यज्ञ करने से जो फल मिलता है, उपर्युक्त मनुष्य भी उसके समान ही उत्तम फल का भागी होता है। यह सभी सिद्व-संत-महात्मा एवं ऋषियों का कथन है। जो गौ सेवा का व्रत लेकर प्रतिदिन भोजन से पहले गौओं को गौ ग्रास अर्पण करता है तथा शान्त एवं निर्लोभ होकर सदा सत्य का पालन करता रहता है, वह सत्य शील पुरुष प्रतिवर्ष एक सहस्र गोदान करने पुण्य का भागी होता है।[2]

क्षत्रिय को होने वाले गौ दान से लाभ

जो गो सेवा का व्रत लेने वाला पुरुष गौओं पर दया करता और प्रतिदिन एक समय भोजन करके एक समय का भोजन गौओं का दे देता है, इस प्रकार दस वर्षों तक गौ सेवा में तत्पर रहने वाले पुरुष को अनन्त सुख प्राप्त होते हैं। शतक्रतो। जो एक समय भोजन करके दूसरे समय के बचाये हुए भोजन से गाय खरीद कर उसका दान करता है, वह उस गौ के जितने रोये होते हैं, उतने गौओं के दान का अक्षय फल पाता है। यह ब्राह्मण के लिये फल बताया गया। अब क्षत्रिय को मिलने वाले फल का वर्णन सुनो। यदि क्षत्रिय इसी प्रकार पांच वर्षों तक गौ की आराधना करे तो उसे वही फल प्राप्त होता है। उससे आधे समय में वैश्‍य को और उससे भी आधे समय में शूद्र को उसी फल की प्राप्ति बतायी गयी है। जो अपने आपको बेचकर भी गाय को खरीदकर उसका दान करता है, वह ब्रह्माण्ड में जब तक गो जाति की सत्ता देखता है, तब तक उस दान का अक्षय फल भोगता रहता है। महाभाग इन्द्र। गौओं के रोम-रोम में अक्षय लोकों की स्थिति मानी गयी है। जो संग्राम में गौओं को जीतकर उनका दान कर देता है, उनके लिये वे गौऐं स्वयं अपने को बेचकर लेकर दी हुई गौओं के समान अक्षय फल देने वाली होती हैं- इस बात को तुम जान लो। जो संयम और नियम का पालन करने वाला पुरुष गौओं के अभाव में तिल धेनु का दान करता है, वह उस धेनु की सहायता पाकर दुर्गम संकट से पार हो जाता है तथा दूध की धारा बहाने वाली नदी के तट पर रहकर आनन्द भोगता है। केवल गौओं का दान मात्र कर देना प्रशंसा की बात नहीं है, उसके लिये उत्तम पात्र, उत्तम समय, विशिष्ट गौ, विधि और काल का ज्ञान आवश्‍यक है।

विप्रवर। गौओं में जो परस्पर तारतम्य है, उसको तथा अग्नि और सूर्य के समान तेजस्वी पात्र को जानना बहुत ही कठिन है। जो वेदों के स्वाध्याय से सम्पन्न तथा शुद्ध कुल में उत्पन्न, शान्त भाव, यज्ञ परायण, पापभीरू और बहुज्ञ है, जो गौओं के प्रति क्षमा भाव रखता है, जिसका स्वभाव अत्यन्त तीखा नहीं है, जो गौओं की रक्षा करने में समर्थ और जीविका से रहित है, ऐसे ब्राह्मण को गोदान का उत्तम पात्र बताया गया है। जिसकी जीविका क्षीण हो गयी हो तथा जो अत्यन्त कष्ट पा रहा हो, ऐसे ब्राह्मण को सामान्य देश-काल में भी दूध देने वाली गाय का भी दान करना चाहिये। इसके सिवा खेती के लिये, होम-सामग्री के लिये, प्रसूता स्त्री के पोषण के लिये, गुरु दक्षिणा के लिये अथवा शिशु पालन के लिये सामान्य देश-काल में भी दुधारू गाय का दान करना उचित है। गर्भिणी, खरीदकर लायी हुई, ज्ञान या विद्या के बल से प्राप्त की हुई, दूसरे प्राणियों के बदले में लायी हुई अथवा युद्ध में पराक्रम प्रकट करके प्राप्त की हुई, दहेज में मिली हुई, पालन में कष्ट समझकर स्वामी के द्वारा परित्यक्त हुई तथा पालन-पोषण के लिये आपने पास आई हुई विषिष्ठ गौऐं इन उपर्युक्त कारणों से ही दान के लिये प्रशंसनीय मानी गयी हैं।[3]

गोदान की विधि का वर्णन

हुष्ट-पुष्ट, सीधी-साधी, जवान और उत्तम गंध वाली सभी गौऐं प्रशंसनीयमानी गयी हैं। जैसे गंगा सब नदियों में श्रेष्ठ है, उसी प्रकार कपिला गौ सब गौओं में उत्तम है। (गोदान की विधि इस प्रकार है-) दाता तीन रात तक उपवास करके केवल पानी के आधार पर रहे, पृथ्वी पर शयन करे और गौओं को घास-भूसा खिलाकर पूर्ण तृप्त करे। तत्पश्‍चात ब्राह्मणों को भोजन आदि से संतुष्ट करके उन्हें वह गौऐं दे। उन गौओं के साथ दूध पीने वाले हुष्ट-पुष्ट बछड़े भी होने चाहिये तथा वैसी ही स्फूर्ति युक्त गौऐं भी हों। गोदान करने के पश्चात तीन दिनों तक केवल गोरस पीकर रहना चाहिये। जो गौ सीधी-सूधी हो, सुगमता से अच्छी तरह दूध दुहा लेती हों, जिसका बछड़ा भी सुन्दर हो तथा जो बन्धन तुड़ाकर भागने वाली न हो, ऐसी गौ का दान करने से उसके शरीर में जितने रोय होते हैं, उतने वर्षों तक दाता परलोक में सुख भोगता है। जो मनुष्य ब्राह्मण को बोझ उठाने में समर्थ, जवान, वलिष्ठ, विनीत, सीधा-साधा, हल खींचने वाला और अधिक शक्तिशाली बैल दान करता है, वह दस धेनु दान करने वाले के लोकों में जाता है। इन्द्र। जो दुर्गम वन में फंसे हुए ब्राह्मण और गौ का उद्धार करता है, वह एक ही क्षण में समस्त पापों से मुक्त हो जाता है तथा उसे जिस पुण्य फल की प्राप्ति होती है, वह भी सुन लो। सहस्राक्ष। उसे अश्‍वमेध यज्ञ के समान अक्षय फल सुलभ होता है। वह मृत्यु के काल में जिस स्थिति की आकांक्षा करता है, उसे भी पा लेता है। नाना प्रकार के दिव्य लोक तथा उसके हृदय में जो-जो कामना होती हैं, वह सब कुछ मनुष्य उपर्युक्त सत्मकर्म प्रवाभ से प्राप्त कर लेता है। इतना ही नहीं वह गौओं से अनुग्रहित होकर सर्वत्र पूजित होता है। शतक्रतो। जो मनुष्य उपर्युक्त विधि से वन में जाकर गौओं का अनुसरण करता है तथा निःस्पृह, संयमी और पवित्र होकर घास-पत्ते एवं गोबर खाता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह मन में कोई कामना न होने पर लोक में देवताओं के साथ आनन्दपूर्वक निवास करता है। अथवा उसकी जहाँ इच्छा होती है, उन्हीं लोकों में चला जाता है।[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-17
  2. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 73 श्लोक 18-30
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 73 श्लोक 31-41
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 73 श्लोक 42-51

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प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

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