ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 103 में ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद का वर्णन हुआ है।[1]

ब्रह्मा-भगीरथ का संवाद

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! आपने अनेक प्रकार दान, शांति, सत्‍य और अहिंसा आदि वर्णन किया। अपनी ही स्‍त्री से संतुष्‍ट रहने की बात वताई और दान के फल का भी निरुपण किया। आपकी जानकारी में तपोबल से बढ़कर दूसरा कौन सा बल है? यदि आपकी राय में तपस्‍या से भी कोई उत्‍कृष्‍ट साधन हो तो हमारे समक्ष उसकी व्‍याख्‍या करें।

भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! मनुष्‍य जितना तप करता है, उसी के अनुसार उसे उत्तम लोक प्राप्‍त होते हैं; किंतु कुन्‍ती कुमार मेरी राय में अनशन से बढकर दूसरा कोई तप नहीं है। इस विषय में विज्ञ पुरुष राजा भगीरथ और महात्‍मा ब्रह्मा जी के संवाद रुप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। भारत। सुनने में आया है कि राजा भगीरथ देवलोक, गौओं के लोक और ऋषि लोक को भी लांघकर ब्रह्मलोक में जा पहुँचे।

राजन! राजा भगीरथ को वहाँ उपस्थित देख ब्रह्मा जी ने उनसे पूछा- ‘भगीरथ! इस लोक में आना बहुत ही कठिन है, तुम कैसे यहाँ आ पहुँचे। ‘भगीरथ! देवता, गंधर्व और मनुष्‍य बिना तपस्‍या किये यहाँ नहीं आ सकते फिर तुम कैसे यहाँ आ गये?’

भगीरथ ने कहा- विद्वन! मैं ब्रह्मचर्य व्रत का आश्रय लेकर प्रतिदिन एक लाख स्‍वर्ण-मुद्राओं का ब्राह्मण के लिये दान किया करता था; परंतु उस दान के फल से मैं यहाँ आया हूँ। मैंने एक रात में पूर्ण होने वाले दस यज्ञ, पांच रातों में पूर्ण होने वाले दस यज्ञ, ग्‍यारह रातों में समाप्‍त होने वाले ग्‍यारह यज्ञ और ज्‍योतिष्‍टोम नामक एक सौ यज्ञों का अनुष्‍ठान किया है, परंतु उन यज्ञों के फल से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ।

मैंने घोर तपस्‍या करते हुए लगातार सौ वर्षों तक प्रतिदिन गंगा जी के तट पर निवास किया है और वहाँ सहस्‍त्रों खच्‍चरियों तथा झुंड-की-झुंड कन्‍याओं का दान किया, उस पुण्‍य के प्रभाव से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। पुष्‍कर तीर्थ में जो सैकड़ों- हजारों बार मैंने ब्राह्मण को एक लाख घोड़े और दो लाख गौऐं दान कीं तथा सोने के उत्‍तम चन्‍द्रहार धारण करने वाली जाम्‍बूनद के आभूषणों से विभूषित हुई साठ हजार सुन्‍दरी कन्‍याओं का जो सहस्‍त्रों बार दान किया, उस पुण्‍य से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। लोकनाथ। गोसव नामक यज्ञ का अनुष्‍ठानकरके उससे मैंने दूध देने वाली सौ करोड़ गौओं का दान किया।

उस समय एक-एक ब्राह्मण को दस-दस गायें मिली थीं। प्रत्‍येक गाय के साथ उसी के समान रंगवाले बछड़े और सुवर्णमय दुग्‍धपात्र भी दिये गये थे; परंतु उस यज्ञ के पुण्‍य से भी मैं यहाँ तक नहीं पहूंचा हूँ। अनेक बार सोमयाग की दीक्षा लेकर उन यज्ञों में मैंने प्रत्‍येक ब्राह्मण को पहले बारक की ब्‍यायी हुई दूध देने वाली दस-दस गौऐं और रोहिणी जाति की सौ-सौ गौऐं दान की हैं। ब्रह्मन। इनके अतिरिक्‍त भी मैंने दस बार दस-दस लाख दुधारु गौऐं दान की हैं; किंतु उस पुण्‍य से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। वाह्लोक देश में उत्‍पन्‍न हुए श्‍वेत रंग के एक लाख घोड़ों को सोने की मालाओं से सजाकर मैंने ब्राह्मण का दान किया; किंतु उस पुण्‍य से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ।[1]

ब्रह्मन! मैंने एक-एक यज्ञ में प्रतिदिन अठारह-अठारह करोड़ स्‍वर्णमुद्राऐं बांटी थीं; परंतु उसके पुण्‍य से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। ब्रह्मन! पितामह! फि‍र स्‍वर्णहार से विभूषित हरे रंग वाले सत्रह करोड़ घोड़े, ईषादण्‍ड (हरिस) के समान दांतों वाले, स्‍वर्णमाला मण्डित एवं विशाल शरीर वाले सत्रह हजार कमलचिह्न युक्‍त हाथी तथा सोने के बने हुए दिव्‍य आभूषणों से विभूषित स्‍वर्णमय उपकरणों से युक्‍त और सजे-सजाये घोड़े जुते हुए सत्रह हजार रथ दान किये। इनके अतिरिक्‍त जो भी वस्‍तुऐं वेदों में दक्षिणा के आवयव रुप से बतायी है, उन सबको मैंने दस वाजपेय यज्ञों का अनुष्‍ठान कर के दान किया था।

शिव के मस्तक पर गंगा का धारण होना

पितामह! यज्ञ और पराक्रम में जो इन्‍द्र के समान प्रभावशाली थे, जिनके कण्‍ड में सुवर्ण के हार शोभा पा रहे थे, ऐसे हजारों राजाओं को युद्ध में जीतकर प्रचुर धन के द्वारा आठ राजसूय यज्ञ करके मैंने उन्‍हें ब्राह्मण को दक्षिणा में दिया; उस पुण्‍य से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। जगत्‍पते। मेरी दी हुई दक्षिणाओं से गंगा नदी आच्‍छादित हो गयी थी; परंतु उसके कारण भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। उस यज्ञ में मैंने प्रत्‍येक ब्राह्मण को तीन-तीन बार सोने के सैकड़ों आभूषणों से ‍विभूषित दो-दो हजार घोड़े और एक-एक सौ अच्‍छे गांव दिये थे। पितामह! मिताहारी, मौन और शांत भाव से रहकर मैंने हिमालय पर्वत पर सुदीर्घकाल तक तपस्‍या की थी जिसने प्रसन्‍न होकर भगवान शंकर ने गंगाजी की दु:सह धारा को अपने मस्‍तक पर धारण किया; परंतु उस तपस्‍या के फल से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ।

देव। मैंने अनेकबार ‘शम्‍याक्षेपत्[2]’ याग किये। दस हजार ‘साद्यस्क‘ यागोंका अनुष्‍ठान किया कई बार तेरह और वारह दिनों में समाप्‍त होने वाले याग और ‘पुण्‍डरीक’ नामक यज्ञ पूर्ण किये; परंतु उनके फलों से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। इतना ही नहीं, मैंने सफेद रंग के कूकद वाले आठ हजार वृषभ भी दान ब्राह्मण को दान में दिये, जिनके एक-एक सींग में सोना मढ़ा हुआ था तथा उन ब्राह्मण को सुवर्णमय हार विभूषित गौऐं भी मैंने दी थीं। मैंने आलस्‍य रहित होकर अनेक बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्‍ठान करके उनमें सोने और रत्‍नों के ढ़ेर, रत्नमय पर्वत, धन्‍यधान से सम्‍पन्‍न हजारों गांव और एक बार की व्‍यायी हुई सैहस्त्रों गौऐं ब्राह्मण को दान की; किंतु उनके पुण्‍य से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ।

देव! ब्रह्मन मैंने ग्‍यारह दिनों में होने वाले और चौबीस दिनों में होने वाले दक्षिणा सहित यज्ञ किये। बहुत से अश्‍वमेध यज्ञ भी कर डाले तथा सोलह बार अकार्यण यज्ञों का अनुष्‍ठान किया, परंतु उन यज्ञों के फल से मैं इस लोक में नही आया हूँ। चार कोस लम्‍बा चौड़ा एक चंपा के वृक्षों का वन, जिसके प्रत्‍येक वृक्ष में रत्‍न जड़े हुए थे, वस्‍त्र लपेटा गया था और कंठ देश में स्‍वर्ण माला पहनाई गयी थी, मैंने दान किया है; किंतु उस दान के फल से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। मैं तीस वर्षों तक क्रोध रहित होकर तुरायण नामक दुष्‍कर व्रत का पालन करता रहा जिसमें प्रतिदिन नौ सौ गाय ब्राह्मण को दान देता था। [3]

लोकनाथ! सुरेश्‍वर! इनके अतिरिक्‍त रोहिणी (कपिला) जाति की बहुत-सी दुधारु गौऐं तथा बहुसंख्‍यक सांड भी मैं प्रतिदिन ब्राह्मणों को दान करता था; परंतु उन सब दानों के फल से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। ब्रह्मन! मैंने प्रतिदिन एक-एक करके तीस बार अग्निचयन एवं यजन किया। आठ बार सर्वमेध, सात बार नरमेध और एक सौ अठ्ठाईस बार विश्‍व‍िजित यज्ञ किया है; परंतु देवेश्‍वर! उन यज्ञों के फल से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। सरयू, बाहुदा, गंगा और नैमिषारण्‍य तीर्थ में जाकर मैंने दस लाख गौदान किये हैं; परंतु उनके फल से भी यहाँ आना नहीं हुआ है (केवल अनशन व्रत प्रभाव से मुझे इस दुर्लभ लोक की प्राप्ति हुई है)। पहले इन्‍द्र ने स्‍वयं अनशन व्रत का अनुष्‍ठान करके इसे गुप्‍त रखा था।

उसके बाद शुक्राचार्य ने तपस्‍या के द्वारा उसका ज्ञान प्राप्‍त किया। फिर उन्‍हीं तेज से उसका महात्‍म्‍य सर्वत्र प्रकाशित हुआ। सर्वश्रेष्‍ठ पितामह। मैंने भी अन्‍त में उसी अनशन व्रत का साधन आरंभ किया। जब उस कर्म की पूर्ति हुई, उस समय मेरे पास हजारों ब्राह्मण और ऋषि पधारे। वे सभी मुझ पर बहुत संतुष्‍ट थे। प्रभो। उन्‍होंने प्रसन्‍नता पूर्वक मुझे आज्ञा दी कि ‘तुम ब्रह्मलोक को जाओ।’ भगवन! प्रसन्‍न हुऐ उन हजारों ब्राह्मण के आशीर्वाद से मैं इस लोक में आया हूँ इसमें आप कोई अन्‍यथा विचार न करें। देवेश्‍वर! मैंने अपनी इच्‍छा के अनुसार विधिपूर्वक अनशन व्रत का पालन किया आप संपूर्ण जगत के विधाता हैं। आपके पूछने पर मुझे सब बातें यथावत रुप से बतानी चाहियें, इसलिये सब-कुछ कह रहा हूँ। मेरी समझ में अनशन व्रत से बढकर दूसरी कोई तपस्‍या नहीं है। आपको नमस्‍कार है, आप मुझ पर प्रसन्‍न होइये।

भीष्‍म जी कहते हैं- राजन! राजा भगीरथ ने जब इस प्रकार कहा तब ब्रह्मा जी ने शास्‍त्रोक्‍त विधि से आदरणीय नरेश का विशेष आदर सत्‍कार किया। अत: तुम भी अनशन व्रत से युक्‍त होकर सदा ब्राह्मण का पूजन करो; क्‍योंकि बाह्मणों के आशीर्वाद से इहलोक और परलोक में भी संपूर्ण कामनाऐं सिद्व होती हैं। अन्‍न, वस्‍त्र, गौ तथा सुंदर गृह देकर और कल्‍याण कारी देवताओं की आराधना करके भी ब्राह्मणों को ही संतुष्‍ठ करना चाहिये। तुम लोभ छोड़कर इसी परम गोपनीय धरम का आचरण करो।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 103 श्लोक 1-16
  2. यज्ञकर्ता पूरुष शम्या नामक एक काठका डंडा खूब जोर लगाकर फेंकता है, वह जितनी दूरपर जाकर गिरता है, उतने दूर में यज्ञ्की वेदी बनायी जाती है; उस वेदीपर जो यज्ञ किया जाता है, उसे शम्याक्षेप अथवा शम्याप्रात यज्ञ कह्ते है।
  3. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 103 श्लोक 17-34
  4. महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 103 श्लोक 35-45

संबंधित लेख

महाभारत अनुशासन पर्व में उल्लेखित कथाएँ


दान-धर्म-पर्व
युधिष्ठिर की भीष्म से उपदेश देने की प्रार्थना | भीष्म द्वारा गौतमी ब्राह्मणी, व्याध, सर्प, मृत्यु और काल के संवाद का वर्णन | प्रजापति मनु के वंश का वर्णन | अग्निपुत्र सुदर्शन की मृत्यु पर विजय | विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति विषयक युधिष्ठिर का प्रश्न | अजमीढ के वंश का वर्णन | विश्वामित्र के जन्म की कथा | विश्वामित्र के पुत्रों के नाम | इन्द्र और तोते का स्वामिभक्त एवं दयालु पुरुष की श्रेष्ठता विषयक संवाद | दैव की अपेक्षा पुरुषार्थ की श्रेष्ठता का वर्णन | कर्मों के फल का वर्णन | श्रेष्ठ ब्राह्मणों की महिमा | ब्राह्मण विषयक सियार और वानर के संवाद का वर्णन | शूद्र और तपस्वी ब्राह्मण की कथा | लक्ष्मी के निवास करने और न करने योग्य पुरुष, स्त्री और स्थानों का वर्णन | भीष्म का युधिष्ठिर से कृतघ्न की गति और प्रायश्चित का वर्णन | स्त्री-पुरुष का संयोग विषयक भंगास्वन का उपाख्यान | भीष्म का शरीर, वाणी और मन से होने वाले पापों के परित्याग का उपदेश | भीष्म का श्रीकृष्ण से महादेव का माहात्म्य बताने का अनुरोध | श्रीकृष्ण द्वारा महात्मा उपमन्यु के आश्रम का वर्णन | उपमन्यु का शिव विषयक आख्यान | उपमन्यु द्वारा महादेव की तपस्या | उपमन्यु द्वारा महादेव की स्तुति | उपमन्यु को महादेव का वरदान | श्रीकृष्ण को शिव-पार्वती का दर्शन | शिव और पार्वती का श्रीकृष्ण को वरदान | महात्मा तण्डि द्वारा महादेव की स्तुति और प्रार्थना | महात्मा तण्डि को महादेव का वरदान | उपमन्यु द्वारा शिवसहस्रनामस्तोत्र का वर्णन | शिवसहस्रनामस्तोत्र पाठ का फल | ऋषियों का शिव की कृपा विषयक अपने-अपने अनुभव सुनाना | श्रीकृष्ण द्वारा शिव की महिमा का वर्णन | अष्टावक्र मुनि का उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान | कुबेर द्वारा अष्टावक्र का स्वागत-सत्कार | अष्टावक्र का स्त्रीरूपधारिणी उत्तर दिशा के साथ संवाद | अष्टावक्र का वदान्य ऋषि की कन्या से विवाह | युधिष्ठिर के विविध धर्मयुक्त प्रश्नों का उत्तर | श्राद्ध और दान के उत्तम पात्रों का लक्षण | देवता और पितरों के कार्य में आमन्त्रण देने योग्य पात्रों का वर्णन | नरकगामी और स्वर्गगामी मनुष्यों के लक्षणों का वर्णन | ब्रह्महत्या के समान पापों का निरूपण | विभिन्न तीर्थों के माहात्मय का वर्णन | गंगाजी के माहात्म्य का वर्णन | ब्राह्मणत्व हेतु तपस्यारत मतंग की इन्द्र से बातचीत | इन्द्र द्वारा मतंग को समझाना | मतंग की तपस्या और इन्द्र का उसे वरदान | वीतहव्य के पुत्रों से काशी नरेशों का युद्ध | प्रतर्दन द्वारा वीतहव्य के पुत्रों का वध | वीतहव्य को ब्राह्मणत्व प्राप्ति की कथा | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के लक्षण | नारद द्वारा पूजनीय पुरुषों के आदर-सत्कार से होने वाले लाभ का वर्णन | वृषदर्भ द्वारा शरणागत कपोत की रक्षा | वृषदर्भ को पुण्य के प्रभाव से अक्षयलोक की प्राप्ति | भीष्म द्वारा यूधिष्ठिर से ब्राह्मण के महत्त्व का वर्णन | भीष्म द्वारा श्रेष्ठ ब्राह्मणों की प्रशंसा | ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मण प्रशंसा विषयक इन्द्र और शम्बरासुर का संवाद | दानपात्र की परीक्षा | पंचचूड़ा अप्सरा का नारद से स्त्री दोषों का वर्णन | युधिष्ठिर के स्त्रियों की रक्षा के विषय में प्रश्न | भृगुवंशी विपुल द्वारा योगबल से गुरुपत्नी की रक्षा | विपुल का देवराज इन्द्र से गुरुपत्नी को बचाना | विपुल को गुरु देवशर्मा से वरदान की प्राप्ति | विपुल को दिव्य पुष्प की प्राप्ति और चम्पा नगरी को प्रस्थान | विपुल का अपने द्वारा किये गये दुष्कर्म का स्मरण करना | देवशर्मा का विपुल को निर्दोष बताकर समझाना | भीष्म का युधिष्ठिर को स्त्रियों की रक्षा हेतु आदेश | कन्या विवाह के सम्बंध में पात्र विषयक विभिन्न विचार | कन्या के विवाह तथा कन्या और दौहित्र आदि के उत्तराधिकार का विचार | स्त्रियों के वस्त्राभूषणों से सत्कार करने की आवश्यकता का प्रतिपादन | ब्राह्मण आदि वर्णों की दायभाग विधि का वर्णन | वर्णसंकर संतानों की उत्पत्ति का विस्तार से वर्णन | नाना प्रकार के पुत्रों का वर्णन | गौओं की महिमा के प्रसंग में च्यवन मुनि के उपाख्यान का प्रारम्भ | च्यवन मुनि का मत्स्यों के साथ जाल में फँसना | नहुष का एक गौ के मोल पर च्यवन मुनि को खरीदना | च्यवन मुनि द्वारा गौओं का माहात्म्य कथन | च्यवन मुनि द्वारा मत्स्यों और मल्लाहों की सद्गति | राजा कुशिक और उनकी रानी द्वारा महर्षि च्यवन की सेवा | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक और उनकी रानी के धैर्य की परीक्षा | च्यवन मुनि का राजा कुशिक और उनकी रानी की सेवा से प्रसन्न होना | च्यवन मुनि के प्रभाव से राजा कुशिक और उनकी रानी को आश्चर्यमय दृश्यों का दर्शन | च्यवन मुनि का राजा कुशिक से वर माँगने के लिए कहना | च्यवन मुनि का राजा कुशिक के यहाँ अपने निवास का कारण बताना | च्यवन मुनि द्वारा राजा कुशिक को वरदान | च्यवन मुनि द्वारा भृगुवंशी और कुशिकवंशियों के सम्बंध का कारण बताना | विविध प्रकार के तप और दानों का फल | जलाशय बनाने तथा बगीचे लगाने का फल | भीष्म द्वारा उत्तम दान तथा उत्तम ब्राह्मणों की प्रशंसा | भीष्म द्वारा उत्तम ब्राह्मणों के सत्कार का उपदेश | श्रेष्ठ, अयाचक, धर्मात्मा, निर्धन और गुणवान को दान देने का विशेष फल | राजा के लिए यज्ञ, दान और ब्राह्मण आदि प्रजा की रक्षा का उपदेश | भूमिदान का महत्त्व | भूमिदान विषयक इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | अन्न दान का विशेष माहात्म्य | विभिन्न नक्षत्रों के योग में भिन्न-भिन्न वस्तुओं के दान का माहात्म्य | सुवर्ण और जल आदि विभिन्न वस्तुओं के दान की महिमा | जूता, शकट, तिल, भूमि, गौ और अन्न के दान का माहात्म्य | अन्न और जल के दान की महिमा | तिल, जल, दीप तथा रत्न आदि के दान का माहात्म्य | गोदान की महिमा | गौओं और ब्राह्मणों की रक्षा से पुण्य की प्राप्ति | राजा नृग का उपाख्यान | पिता के शाप से नचिकेता का यमराज के पास जाना | यमराज का नचिकेता से गोदान की महिमा का वर्णन | गोलोक तथा गोदान विषयक युधिष्ठिर और इन्द्र के प्रश्न | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक की महिमा बताना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोदान की महिमा बताना | दूसरे की गाय को चुराने और बेचने के दोष तथा गोहत्या के परिणाम | गोदान एवं स्वर्ण दक्षिणा का माहात्म्य | व्रत, नियम, ब्रह्मचर्य, माता-पिता और गुरु आदि की सेवा का महत्त्व | गोदान की विधि और गौओं से प्रार्थना | गोदान करने वाले नरेशों के नाम | कपिला गौओं की उत्पत्ति | कपिला गौओं की महिमा का वर्णन | वसिष्ठ का सौदास को गोदान की विधि और महिमा बताना | गौओं को तपस्या द्वारा अभीष्ट वर की प्राप्ति | विभिन्न गौओं के दान से विभिन्न उत्तम लोकों की प्राप्ति | गौओं तथा गोदान की महिमा | व्यास का शुकदेव से गौओं की महत्ता का वर्णन | व्यास द्वारा गोलोक की महिमा का वर्णन | व्यास द्वारा गोदान की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी और गौओं का संवाद | गौओं द्वारा लक्ष्मी को गोबर और गोमूत्र में स्थान देना | ब्रह्मा का इन्द्र को गोलोक और गौओं का उत्कर्ष बताना | ब्रह्मा का गौओं को वरदान देना | भीष्म का पिता शान्तनु को कुश पर पिण्ड देना | सुवर्ण की उत्पत्ति और उसके दान की महिमा | पार्वती का देवताओं को शाप | तारकासुर के भय से देवताओं का ब्रह्मा की शरण में जाना | ब्रह्मा का देवताओं को आश्वासन | देवताओं द्वारा अग्नि की खोज | गंगा का शिवतेज को धारण करना और फिर मेरुपर्वत पर छोड़ना | कार्तिकेय और सुवर्ण की उत्पत्ति | महादेव के यज्ञ में अग्नि से प्रजापतियों और सुवर्ण की उत्पत्ति | कार्तिकेय की उत्पत्ति और उनका पालन-पोषण | कार्तिकेय का देवसेनापति पद पर अभिषेक और तारकासुर का वध | विविध तिथियों में श्राद्ध करने का फल | श्राद्ध में पितरों के तृप्ति विषय का वर्णन | विभिन्न नक्षत्रों में श्राद्ध करने का फल | पंक्तिदूषक ब्राह्मणों का वर्णन | पंक्तिपावन ब्राह्मणों का वर्णन | श्राद्ध में मूर्ख ब्राह्मण की अपेक्षा वेदवेत्ता को भोजन कराने की श्रेष्ठता | निमि का पुत्र के निमित्त पिण्डदान | श्राद्ध के विषय में निमि को अत्रि का उपदेश | विश्वेदेवों के नाम तथा श्राद्ध में त्याज्य वस्तुओं का वर्णन | पितर और देवताओं का श्राद्धान्न से अजीर्ण होकर ब्रह्मा के पास जाना | श्राद्ध से तृप्त हुए पितरों का आशीर्वाद | भीष्म का युधिष्ठिर को गृहस्थ के धर्मों का रहस्य बताना | वृषादर्भि तथा सप्तर्षियों की कथा | भिक्षुरूपधरी इन्द्र द्वारा कृत्या का वध तथा सप्तर्षियों की रक्षा | इन्द्र द्वारा कमलों की चोरी तथा धर्मपालन का संकेत | अगस्त्य के कमलों की चोरी तथा ब्रह्मर्षियों और राजर्षियों की धर्मोपदेशपूर्ण शपथ | इन्द्र का चुराये हुए कमलों को वापस देना | सूर्य की प्रचण्ड धूप से रेणुका के मस्तक और पैरों का संतप्त होना | जमदग्नि का सूर्य पर कुपित होना | छत्र और उपानह की उत्पत्ति एवं दान की प्रशंसा | गृहस्थधर्म तथा पंचयज्ञ विषयक पृथ्वीदेवी और श्रीकृष्ण का संवाद | तपस्वी सुवर्ण और मनु का संवाद | नहुष का ऋषियों पर अत्याचार | महर्षि भृगु और अगस्त्य का वार्तालाप | नहुष का पतन | शतक्रतु का इन्द्रपद पर अभिषेक तथा दीपदान की महिमा | ब्राह्मण के धन का अपहरण विषयक क्षत्रिय और चांडाल का संवाद | ब्रह्मस्व की रक्षा में प्राणोत्सर्ग से चांडाल को मोक्ष की प्राप्ति | धृतराष्ट्ररूपधारी इन्द्र और गौतम ब्राह्मण का संवाद | ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद | आयु की वृद्धि और क्षय करने वाले शुभाशुभ कर्मों का वर्णन | गृहस्थाश्रम के कर्तव्यों का विस्तारपूर्वक निरूपण | बड़े और छोटे भाई के पारस्परिक बर्ताव का वर्णन | माता-पिता, आचार्य आदि गुरुजनों के गौरव का वर्णन | मास, पक्ष एवं तिथि सम्बंधी विभिन्न व्रतोपवास के फल का वर्णन | दरिद्रों के लिए यज्ञतुल्य फल देने वाले उपवास-व्रत तथा उसके फल का वर्णन | मानस तथा पार्थिव तीर्थ की महत्ता | द्वादशी तिथि को उपवास तथा विष्णु की पूजा का माहात्म्य | मार्गशीर्ष मास में चन्द्र व्रत करने का प्रतिपादन | बृहस्पति और युधिष्ठिर का संवाद | विभिन्न पापों के फलस्वरूप नरकादि की प्राप्ति एवं तिर्यग्योनियों में जन्म लेने का वर्णन | पाप से छूटने के उपाय तथा अन्नदान की विशेष महिमा | बृहस्पति का युधिष्ठिर को अहिंसा एवं धर्म की महिमा बताना | हिंसा और मांसभक्षण की घोर निन्दा | मद्य और मांस भक्षण के दोष तथा उनके त्याग की महिमा | मांस न खाने से लाभ तथा अहिंसाधर्म की प्रशंसा | द्वैपायन व्यास और एक कीड़े का वृत्तान्त | कीड़े का क्षत्रिय योनि में जन्म तथा व्यासजी का दर्शन | कीड़े का ब्राह्मण योनि में जन्म तथा सनातनब्रह्म की प्राप्ति | दान की प्रशंसा और कर्म का रहस्य | विद्वान एवं सदाचारी ब्राह्मण को अन्नदान की प्रशंसा | तप की प्रशंसा तथा गृहस्थ के उत्तम कर्तव्य का निर्देश | पतिव्रता स्त्रियों के कर्तव्य का वर्णन | नारद का पुण्डरीक को भगवान नारायण की आराधना का उपदेश | ब्राह्मण और राक्षस का सामगुण विषयक वृत्तान्त | श्राद्ध के विषय में देवदूत और पितरों का संवाद | पापों से छूटने के विषय में महर्षि विद्युत्प्रभ और इन्द्र का संवाद | धर्म के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | वृषोत्सर्ग आदि के विषय में देवताओं, ऋषियों और पितरों का संवाद | विष्णु, देवगण, विश्वामित्र और ब्रह्मा आदि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | अग्नि, लक्ष्मी, अंगिरा, गार्ग्य, धौम्य तथा जमदग्नि द्वारा धर्म के गूढ़ रहस्य का वर्णन | वायु द्वारा धर्माधर्म के रहस्य का वर्णन | लोमश द्वारा धर्म के रहस्य का वर्णन | अरुन्धती, धर्मराज और चित्रगुप्त द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | प्रमथगणों द्वारा धर्माधर्म सम्बन्धी रहस्य का कथन | दिग्गजों का धर्म सम्बन्धी रहस्य एवं प्रभाव | महादेव जी का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | स्कन्ददेव का धर्म सम्बन्धी रहस्य का वर्णन | भगवान विष्णु और भीष्म द्वारा धर्म सम्बन्धी रहस्यों के माहात्म्य का वर्णन | जिनका अन्न ग्रहण करने योग्य है और जिनका ग्रहण करने योग्य नहीं है, उन मनुष्यों का वर्णन | दान लेने और अनुचित भोजन करने का प्रायश्चित | दान से स्वर्गलोक में जाने वाले राजाओं का वर्णन | पाँच प्रकार के दानों का वर्णन | तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना | ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना | नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन | शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना | शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना | वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार | प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण | वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा | ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन | बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन | स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन | उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन | मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन | राजधर्म का वर्णन | योद्धाओं के धर्म का वर्णन | रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा | संक्षेप से राजधर्म का वर्णन | अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा | दैव की प्रधानता | त्रिवर्ग का निरूपण | कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन | विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन | अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन | उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन | प्राणियों के चार भेदों का निरूपण | पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य | मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन | दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन | यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन | पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन | कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख | शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन | मद्यसेवन के दोषों का वर्णन | पुण्य के विधान का वर्णन | व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति | शौचाचार का वर्णन | आहार शुद्धि का वर्णन | मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ | गुरुपूजा का महत्त्व | उपवास की विधि | तीर्थस्थान की विधि | सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य | अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य | भूमिदान के महत्त्व का वर्णन | कन्या और विद्यादान का माहात्म्य | तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य | नाना प्रकार के दानों का फल | लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण | श्राद्धविधान आदि का वर्णन | दान के पाँच फल | अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति | नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन | शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन | मृत्यु के भेद | कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल | काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति | मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन | मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय | मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता | सांख्यज्ञान का प्रतिपादन | अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन | योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन | पाशुपत योग का वर्णन | शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य | पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन | वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन | श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश | श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम् | जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता | ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य | गायत्री मंत्र का फल | ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन | कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन | ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद | वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन | ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन | ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन | अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन | कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार | ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना | भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन | श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना | श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना | श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन | धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता | भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन | साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण | युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना | भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना | नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य | भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन | भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना | भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना | भीष्म का प्राणत्याग | धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार | गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः