- महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 103 में ब्रह्मा और भगीरथ का संवाद का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
ब्रह्मा-भगीरथ का संवाद
युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! आपने अनेक प्रकार दान, शांति, सत्य और अहिंसा आदि वर्णन किया। अपनी ही स्त्री से संतुष्ट रहने की बात वताई और दान के फल का भी निरुपण किया। आपकी जानकारी में तपोबल से बढ़कर दूसरा कौन सा बल है? यदि आपकी राय में तपस्या से भी कोई उत्कृष्ट साधन हो तो हमारे समक्ष उसकी व्याख्या करें।
भीष्म जी ने कहा- युधिष्ठिर! मनुष्य जितना तप करता है, उसी के अनुसार उसे उत्तम लोक प्राप्त होते हैं; किंतु कुन्ती कुमार मेरी राय में अनशन से बढकर दूसरा कोई तप नहीं है। इस विषय में विज्ञ पुरुष राजा भगीरथ और महात्मा ब्रह्मा जी के संवाद रुप एक प्राचीन इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं। भारत। सुनने में आया है कि राजा भगीरथ देवलोक, गौओं के लोक और ऋषि लोक को भी लांघकर ब्रह्मलोक में जा पहुँचे।
राजन! राजा भगीरथ को वहाँ उपस्थित देख ब्रह्मा जी ने उनसे पूछा- ‘भगीरथ! इस लोक में आना बहुत ही कठिन है, तुम कैसे यहाँ आ पहुँचे। ‘भगीरथ! देवता, गंधर्व और मनुष्य बिना तपस्या किये यहाँ नहीं आ सकते फिर तुम कैसे यहाँ आ गये?’
भगीरथ ने कहा- विद्वन! मैं ब्रह्मचर्य व्रत का आश्रय लेकर प्रतिदिन एक लाख स्वर्ण-मुद्राओं का ब्राह्मण के लिये दान किया करता था; परंतु उस दान के फल से मैं यहाँ आया हूँ। मैंने एक रात में पूर्ण होने वाले दस यज्ञ, पांच रातों में पूर्ण होने वाले दस यज्ञ, ग्यारह रातों में समाप्त होने वाले ग्यारह यज्ञ और ज्योतिष्टोम नामक एक सौ यज्ञों का अनुष्ठान किया है, परंतु उन यज्ञों के फल से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ।
मैंने घोर तपस्या करते हुए लगातार सौ वर्षों तक प्रतिदिन गंगा जी के तट पर निवास किया है और वहाँ सहस्त्रों खच्चरियों तथा झुंड-की-झुंड कन्याओं का दान किया, उस पुण्य के प्रभाव से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। पुष्कर तीर्थ में जो सैकड़ों- हजारों बार मैंने ब्राह्मण को एक लाख घोड़े और दो लाख गौऐं दान कीं तथा सोने के उत्तम चन्द्रहार धारण करने वाली जाम्बूनद के आभूषणों से विभूषित हुई साठ हजार सुन्दरी कन्याओं का जो सहस्त्रों बार दान किया, उस पुण्य से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। लोकनाथ। गोसव नामक यज्ञ का अनुष्ठानकरके उससे मैंने दूध देने वाली सौ करोड़ गौओं का दान किया।
उस समय एक-एक ब्राह्मण को दस-दस गायें मिली थीं। प्रत्येक गाय के साथ उसी के समान रंगवाले बछड़े और सुवर्णमय दुग्धपात्र भी दिये गये थे; परंतु उस यज्ञ के पुण्य से भी मैं यहाँ तक नहीं पहूंचा हूँ। अनेक बार सोमयाग की दीक्षा लेकर उन यज्ञों में मैंने प्रत्येक ब्राह्मण को पहले बारक की ब्यायी हुई दूध देने वाली दस-दस गौऐं और रोहिणी जाति की सौ-सौ गौऐं दान की हैं। ब्रह्मन। इनके अतिरिक्त भी मैंने दस बार दस-दस लाख दुधारु गौऐं दान की हैं; किंतु उस पुण्य से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। वाह्लोक देश में उत्पन्न हुए श्वेत रंग के एक लाख घोड़ों को सोने की मालाओं से सजाकर मैंने ब्राह्मण का दान किया; किंतु उस पुण्य से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ।[1]
ब्रह्मन! मैंने एक-एक यज्ञ में प्रतिदिन अठारह-अठारह करोड़ स्वर्णमुद्राऐं बांटी थीं; परंतु उसके पुण्य से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। ब्रह्मन! पितामह! फिर स्वर्णहार से विभूषित हरे रंग वाले सत्रह करोड़ घोड़े, ईषादण्ड (हरिस) के समान दांतों वाले, स्वर्णमाला मण्डित एवं विशाल शरीर वाले सत्रह हजार कमलचिह्न युक्त हाथी तथा सोने के बने हुए दिव्य आभूषणों से विभूषित स्वर्णमय उपकरणों से युक्त और सजे-सजाये घोड़े जुते हुए सत्रह हजार रथ दान किये। इनके अतिरिक्त जो भी वस्तुऐं वेदों में दक्षिणा के आवयव रुप से बतायी है, उन सबको मैंने दस वाजपेय यज्ञों का अनुष्ठान कर के दान किया था।
शिव के मस्तक पर गंगा का धारण होना
पितामह! यज्ञ और पराक्रम में जो इन्द्र के समान प्रभावशाली थे, जिनके कण्ड में सुवर्ण के हार शोभा पा रहे थे, ऐसे हजारों राजाओं को युद्ध में जीतकर प्रचुर धन के द्वारा आठ राजसूय यज्ञ करके मैंने उन्हें ब्राह्मण को दक्षिणा में दिया; उस पुण्य से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। जगत्पते। मेरी दी हुई दक्षिणाओं से गंगा नदी आच्छादित हो गयी थी; परंतु उसके कारण भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। उस यज्ञ में मैंने प्रत्येक ब्राह्मण को तीन-तीन बार सोने के सैकड़ों आभूषणों से विभूषित दो-दो हजार घोड़े और एक-एक सौ अच्छे गांव दिये थे। पितामह! मिताहारी, मौन और शांत भाव से रहकर मैंने हिमालय पर्वत पर सुदीर्घकाल तक तपस्या की थी जिसने प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने गंगाजी की दु:सह धारा को अपने मस्तक पर धारण किया; परंतु उस तपस्या के फल से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ।
देव। मैंने अनेकबार ‘शम्याक्षेपत्[2]’ याग किये। दस हजार ‘साद्यस्क‘ यागोंका अनुष्ठान किया कई बार तेरह और वारह दिनों में समाप्त होने वाले याग और ‘पुण्डरीक’ नामक यज्ञ पूर्ण किये; परंतु उनके फलों से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। इतना ही नहीं, मैंने सफेद रंग के कूकद वाले आठ हजार वृषभ भी दान ब्राह्मण को दान में दिये, जिनके एक-एक सींग में सोना मढ़ा हुआ था तथा उन ब्राह्मण को सुवर्णमय हार विभूषित गौऐं भी मैंने दी थीं। मैंने आलस्य रहित होकर अनेक बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान करके उनमें सोने और रत्नों के ढ़ेर, रत्नमय पर्वत, धन्यधान से सम्पन्न हजारों गांव और एक बार की व्यायी हुई सैहस्त्रों गौऐं ब्राह्मण को दान की; किंतु उनके पुण्य से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ।
देव! ब्रह्मन मैंने ग्यारह दिनों में होने वाले और चौबीस दिनों में होने वाले दक्षिणा सहित यज्ञ किये। बहुत से अश्वमेध यज्ञ भी कर डाले तथा सोलह बार अकार्यण यज्ञों का अनुष्ठान किया, परंतु उन यज्ञों के फल से मैं इस लोक में नही आया हूँ। चार कोस लम्बा चौड़ा एक चंपा के वृक्षों का वन, जिसके प्रत्येक वृक्ष में रत्न जड़े हुए थे, वस्त्र लपेटा गया था और कंठ देश में स्वर्ण माला पहनाई गयी थी, मैंने दान किया है; किंतु उस दान के फल से भी मैं यहाँ नहीं आया हूँ। मैं तीस वर्षों तक क्रोध रहित होकर तुरायण नामक दुष्कर व्रत का पालन करता रहा जिसमें प्रतिदिन नौ सौ गाय ब्राह्मण को दान देता था। [3]
लोकनाथ! सुरेश्वर! इनके अतिरिक्त रोहिणी (कपिला) जाति की बहुत-सी दुधारु गौऐं तथा बहुसंख्यक सांड भी मैं प्रतिदिन ब्राह्मणों को दान करता था; परंतु उन सब दानों के फल से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। ब्रह्मन! मैंने प्रतिदिन एक-एक करके तीस बार अग्निचयन एवं यजन किया। आठ बार सर्वमेध, सात बार नरमेध और एक सौ अठ्ठाईस बार विश्विजित यज्ञ किया है; परंतु देवेश्वर! उन यज्ञों के फल से भी मैं इस लोक में नहीं आया हूँ। सरयू, बाहुदा, गंगा और नैमिषारण्य तीर्थ में जाकर मैंने दस लाख गौदान किये हैं; परंतु उनके फल से भी यहाँ आना नहीं हुआ है (केवल अनशन व्रत प्रभाव से मुझे इस दुर्लभ लोक की प्राप्ति हुई है)। पहले इन्द्र ने स्वयं अनशन व्रत का अनुष्ठान करके इसे गुप्त रखा था।
उसके बाद शुक्राचार्य ने तपस्या के द्वारा उसका ज्ञान प्राप्त किया। फिर उन्हीं तेज से उसका महात्म्य सर्वत्र प्रकाशित हुआ। सर्वश्रेष्ठ पितामह। मैंने भी अन्त में उसी अनशन व्रत का साधन आरंभ किया। जब उस कर्म की पूर्ति हुई, उस समय मेरे पास हजारों ब्राह्मण और ऋषि पधारे। वे सभी मुझ पर बहुत संतुष्ट थे। प्रभो। उन्होंने प्रसन्नता पूर्वक मुझे आज्ञा दी कि ‘तुम ब्रह्मलोक को जाओ।’ भगवन! प्रसन्न हुऐ उन हजारों ब्राह्मण के आशीर्वाद से मैं इस लोक में आया हूँ इसमें आप कोई अन्यथा विचार न करें। देवेश्वर! मैंने अपनी इच्छा के अनुसार विधिपूर्वक अनशन व्रत का पालन किया आप संपूर्ण जगत के विधाता हैं। आपके पूछने पर मुझे सब बातें यथावत रुप से बतानी चाहियें, इसलिये सब-कुछ कह रहा हूँ। मेरी समझ में अनशन व्रत से बढकर दूसरी कोई तपस्या नहीं है। आपको नमस्कार है, आप मुझ पर प्रसन्न होइये।
भीष्म जी कहते हैं- राजन! राजा भगीरथ ने जब इस प्रकार कहा तब ब्रह्मा जी ने शास्त्रोक्त विधि से आदरणीय नरेश का विशेष आदर सत्कार किया। अत: तुम भी अनशन व्रत से युक्त होकर सदा ब्राह्मण का पूजन करो; क्योंकि बाह्मणों के आशीर्वाद से इहलोक और परलोक में भी संपूर्ण कामनाऐं सिद्व होती हैं। अन्न, वस्त्र, गौ तथा सुंदर गृह देकर और कल्याण कारी देवताओं की आराधना करके भी ब्राह्मणों को ही संतुष्ठ करना चाहिये। तुम लोभ छोड़कर इसी परम गोपनीय धरम का आचरण करो।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 103 श्लोक 1-16
- ↑ यज्ञकर्ता पूरुष शम्या नामक एक काठका डंडा खूब जोर लगाकर फेंकता है, वह जितनी दूरपर जाकर गिरता है, उतने दूर में यज्ञ्की वेदी बनायी जाती है; उस वेदीपर जो यज्ञ किया जाता है, उसे शम्याक्षेप अथवा शम्याप्रात यज्ञ कह्ते है।
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 103 श्लोक 17-34
- ↑ महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 103 श्लोक 35-45
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| तपस्वी श्रीकृष्ण के पास ऋषियों का आना
| ऋषियों का श्रीकृष्ण का प्रभाव देखना और उनसे वार्तालाप करना
| नारद द्वारा हिमालय पर शिव की शोभा का विस्तृत वर्णन
| शिव के तीसरे नेत्र से हिमालय का भस्म होना
| शिव-पार्वती के धर्म-विषयक संवाद की उत्थापना
| वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
| प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप धर्म का निरूपण
| वानप्रस्थ धर्म तथा उसके पालन की विधि और महिमा
| ब्राह्मणादि वर्णों की प्राप्ति में शुभाशुभ कर्मों की प्रधानता का वर्णन
| बन्धन मुक्ति, स्वर्ग, नरक एवं दीर्घायु और अल्पायु प्रदान करने वाले कर्मों का वर्णन
| स्वर्ग और नरक प्राप्त कराने वाले कर्मों का वर्णन
| उत्तम और अधम कुल में जन्म दिलाने वाले कर्मों का वर्णन
| मनुष्य को बुद्धिमान, मन्दबुद्धि तथा नपुंसक बनाने वाले कर्मों का वर्णन
| राजधर्म का वर्णन
| योद्धाओं के धर्म का वर्णन
| रणयज्ञ में प्राणोत्सर्ग की महिमा
| संक्षेप से राजधर्म का वर्णन
| अहिंसा और इन्द्रिय संयम की प्रशंसा
| दैव की प्रधानता
| त्रिवर्ग का निरूपण
| कल्याणकारी आचार-व्यवहार का वर्णन
| विविध प्रकार के कर्मफलों का वर्णन
| अन्धत्व और पंगुत्व आदि दोषों और रोगों के कारणभूत दुष्कर्मों का वर्णन
| उमा-महेश्वर संवाद में महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन
| प्राणियों के चार भेदों का निरूपण
| पूर्वजन्म की स्मृति का रहस्य
| मरकर फिर लौटने में कारण स्वप्नदर्शन
| दैव और पुरुषार्थ तथा पुनर्जन्म का विवेचन
| यमलोक तथा वहाँ के मार्गों का वर्णन
| पापियों की नरकयातनाओं का वर्णन
| कर्मानुसार विभिन्न योनियों में पापियों के जन्म का उल्लेख
| शुभाशुभ आदि तीन प्रकार के कर्मों का स्वरूप और उनके फल का वर्णन
| मद्यसेवन के दोषों का वर्णन
| पुण्य के विधान का वर्णन
| व्रत धारण करने से शुभ फल की प्राप्ति
| शौचाचार का वर्णन
| आहार शुद्धि का वर्णन
| मांसभक्षण से दोष तथा मांस न खाने से लाभ
| गुरुपूजा का महत्त्व
| उपवास की विधि
| तीर्थस्थान की विधि
| सर्वसाधारण द्रव्य के दान से पुण्य
| अन्न, सुवर्ण और गौदान का माहात्म्य
| भूमिदान के महत्त्व का वर्णन
| कन्या और विद्यादान का माहात्म्य
| तिल का दान और उसके फल का माहात्म्य
| नाना प्रकार के दानों का फल
| लौकिक-वैदिक यज्ञ तथा देवताओं की पूजा का निरूपण
| श्राद्धविधान आदि का वर्णन
| दान के पाँच फल
| अशुभदान से भी शुभ फल की प्राप्ति
| नाना प्रकार के धर्म और उनके फलों का प्रतिपादन
| शुभ और अशुभ गति का निश्चय कराने वाले लक्षणों का वर्णन
| मृत्यु के भेद
| कर्तव्यपालनपूर्वक शरीरत्याग का महान फल
| काम, क्रोध आदि द्वारा देहत्याग करने से नरक की प्राप्ति
| मोक्षधर्म की श्रेष्ठता का प्रतिपादन
| मोक्षसाधक ज्ञान की प्राप्ति का उपाय
| मोक्ष की प्राप्ति में वैराग्य की प्रधानता
| सांख्यज्ञान का प्रतिपादन
| अव्यक्तादि चौबीस तत्त्वों की उत्पत्ति आदि का वर्णन
| योगधर्म का प्रतिपादनपूर्वक उसके फल का वर्णन
| पाशुपत योग का वर्णन
| शिवलिंग-पूजन का माहात्म्य
| पार्वती के द्वारा स्त्री-धर्म का वर्णन
| वंश परम्परा का कथन और श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्णन
| श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन और भीष्म का युधिष्ठिर को राज्य करने का आदेश
| श्रीविष्णुसहस्रनामस्तोत्रम्
| जपने योग्य मंत्र और सबेरे-शाम कीर्तन करने योग्य देवता
| ऋषियों और राजाओं के मंगलमय नामों का कीर्तन-माहात्म्य
| गायत्री मंत्र का फल
| ब्राह्मणों की महिमा का वर्णन
| कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान प्राप्ति और उनमें अभिमान की उत्पत्ति का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा विषयक कार्तवीय अर्जुन और वायु देवता का संवाद
| वायु द्वारा उदाहरण सहित ब्राह्मणों की महत्ता का वर्णन
| ब्राह्मणशिरोमणि उतथ्य के प्रभाव का वर्णन
| ब्रह्मर्षि अगस्त्य और वसिष्ठ के प्रभाव का वर्णन
| अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन
| कप दानवों का स्वर्गलोक पर अधिकार
| ब्राह्मणों द्वारा कप दानवों को भस्म करना
| भीष्म द्वारा श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन
| श्रीकृष्ण का प्रद्युम्न को ब्राह्मणों की महिमा बताना
| श्रीकृष्ण द्वारा दुर्वासा के चरित्र का वर्णन करना
| श्रीकृष्ण द्वारा भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| भगवान शंकर के माहात्म्य का वर्णन
| धर्म के विषय में आगम-प्रमाण की श्रेष्ठता
| भीष्म द्वारा धर्माधर्म के फल का वर्णन
| साधु-असाधु के लक्षण तथा शिष्टाचार का निरूपण
| युधिष्ठिर का विद्या, बल और बुद्धि की अपेक्षा भाग्य की प्रधानता बताना
| भीष्म का शुभाशुभ कर्मों को ही सुख-दु:ख की प्राप्ति का कारण बताना
| नित्यस्मरणीय देवता, नदी, पर्वत, ऋषि और राजाओं के नाम-कीर्तन का माहात्म्य
| भीष्म की अनुमति से युधिष्ठिर का सपरिवार हस्तिनापुर प्रस्थान
भीष्मस्वर्गारोहण पर्व
भीष्म के अन्त्येष्टि संस्कार की सामग्री लेकर युधिष्ठिर आदि का आगमन
| भीष्म का धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को कर्तव्य का उपदेश देना
| भीष्म का श्रीकृष्ण आदि से देहत्याग की अनुमति लेना
| भीष्म का प्राणत्याग
| धृतराष्ट्र द्वारा भीष्म का दाह संस्कार
| गंगा का भीष्म के लिए शोक प्रकट करना और श्रीकृष्ण का उन्हें समझाना
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