विरह-पदावली -सूरदास
राग रामकली (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है- सखी!) व्रज में क्या दोष है, जो मोहन इसे छोड़कर चल दिये। (माना कि उनके लिये) लाभ और हानि समान हैं; किंतु कोई करोड़ों प्रयत्न करे तो भी उनका अन्तर तो मिटेगा नहीं। बचपन में ही उन्होंने ऐसी अभिलाषापूर्ण लीलाएँ कीं (कि हम सब) कुल-मर्यादा और लज्जा छोड़कर आश्चर्य में पड़ गयीं। (यही नहीं) हमारे ज्ञानरूपी बिरवे (नन्हें पौदे) को (अपने गोपवेश की) क्रीड़ा के आनन्द में निमग्न कर वियोग रूपी समुद्र में डूबने से बचा लिया था। यद्यपि (आप) त्रिलोकी के स्वामी हैं, तथापि (अब) एक बार (भी) हमारा दृष्टि से स्पर्श करने के लिये फिर हमारी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। हमारे स्वामी! प्रेम की जो रीति है, उसे पूरी-की-पूरी तुम अब क्यों तोड़ रहे हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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