विरह-पदावली -सूरदास
राग केदारौ (सूरदास जी के शब्दों में गोपी कह रही है- सखी!) क्या (मैं) फिर इस प्रकार (श्यामसुन्दर को) देख सकूँगी कि वे बालकों की पंक्ति में बैठे भोजन (सखाओं को) बाँटकर खा रहे हों। एक दिन वे (जहाँ) मक्खन चुरा रहे थे, मैं वहीं जाकर छिप रही और जब वे मेरी छाया देखकर भागे तो मैंने (उन्हें) दौड़कर पकड़ लिया और जब उनके हाथ एवं मुख को पोंछकर (उन्हें) गोद में ले लिया तब (मेरा) क्रोध दूर हो गया। जिस अनुराग से वे मेरी छाती से चिपट गये थे, उसकी स्मृति चित्त से जाती नहीं। जिन घरों में वह सुख देखा था, वे ही (घर) अब खाने को दौड़ते हैं। (उन) श्रीव्रजनाथ को देखे बिना ये पापी प्राण (कैसे) रह रहे हैं (जान नहीं पड़ता)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
पद संख्या | पद का नाम |