बल-मोहन दोउ करत बियारी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिहागरौ



बल-मोहन दोउ करत बियारी।
प्रेम सहित दोउ सुतनि जिंवावतिं, रोहिनि अरू जसुमति महतारी।
दोउ भैया मिलि खात एक संग, रतन-जटित कंचन की थारी।
आलस सौं कर कौर उठावत, नैननि नींद झमकि रही भारी।
दोउ माता निरखत आलस सुख, छबि पर तन-मग डारति वारी।
बार-बार जमुहात सूर प्रभु, इहि उपमा कबि कहै कहा री!।।228।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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