बल-मोहन दोउ करत बियारी।
प्रेम सहित दोउ सुतनि जिंवावतिं, रोहिनि अरू जसुमति महतारी।
दोउ भैया मिलि खात एक संग, रतन-जटित कंचन की थारी।
आलस सौं कर कौर उठावत, नैननि नींद झमकि रही भारी।
दोउ माता निरखत आलस सुख, छबि पर तन-मग डारति वारी।
बार-बार जमुहात सूर प्रभु, इहि उपमा कबि कहै कहा री!।।228।।