बन तैं आवत धेनु चराए।
संध्या समय साँवरे मुख पर, गो-पद-रज लपटाए।
बरह-मुकुट कै निकट लसति लट, मधुप मनो रुचि पाए।
बिलसत सुधा जलज-आनन पर उड़त न जात उड़ाए।
बिधि-बाहन-भच्छन की माला, राजत उर पहिराए।
एक बरन बपु नहिं बड़ छोटे ग्वाल बन इक धाए।
सूरदास बलि लीला प्रभु को, जीवन जन जस गाए।।417।।