बंसी री बन कान्ह बजावत -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सारंग



बंसी री बन कान्ह बजावत।
आनि सुनौ स्रवननि मधुरे सुर, राज मध्य लै नाम बुलावत।
सुर स्रुति तान बँधान अमित अति, सप्त अतीत अनागत-आवत।
जुरि जुग भुज सिर, सेष सैल, मथि बदन-पयोधि, अमृत उपजावत।
मनौ मोहिनी बेष धारि कै, मन मोहत मधु पान करावत।
सुर नर मुनि बस किए राग-रस, अधर-सुधा-रस मदन जगावत।
महा मनोहर नाद, सूर, थिर, चर मोहे, कोउ मरम न पावत।
मानहुँ मूक मिठाई के गुन, कहि न सकत मुख, सोस डुलावत।।648।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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