फिरि ब्रज बसौ गोकुलनाथ ।
अब न तुमहिं जगाइ पठवैं, गोधननि के साथ ।।
बरजैं न माखन खात कबहूँ, दह्यौ देत लुठाइ ।
अब न देहिं उराहनौ, नँद-घरनि आगैं जाइ ।।
दोरि दावरि देहि नहि, लकुटी जसोदा पानि।
चारी न देहिं उधारिक कें, औगुन ना कहिहैं आनि।।
कहिहैं न चरनि देन जावक, गुहन बेनी फूल।
कहिहैं न करन सिंगार कबहूँ, बसन जमना कूल ॥
करिहैं न कबहूँ मान हम, हटिहै न माँगत दान।
कहिहैं न मृदु मुरली बजावन, करन तुमसौं गान।
देह दरसन नंद-नंदन, मिलन को जिय आस।
'सूर' हरि के रुप कारन, मरत लोचन प्यास ॥3228॥