विरह-पदावली -सूरदास
राग जैतश्री (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) गोकुलनाथ! फिर व्रज में निवास करो। अब हम तुम्हें (सबेरे) जगाकर गायों के साथ (वन में) नहीं भेजेंगी। कभी मक्खन खाने से और दही ढुलका देने से (तुम्हें) रोकेंगी नहीं और न श्रीनन्द-पत्नी के सामने जाकर अब उलाहना ही देंगी। यशोदा जी के हाथ में अब हम (तुम्हें बाँधने के लिये) न तो रस्सी देंगी न (तुम्हें डराने के लिये) छड़ी ही; न हम तुम्हारी चोरी प्रकट करेंगी और न तुम्हारे (दूसरे) दोष जाकर उनसे कहेंगी। अब हम तुम्हें अपने चरणों में महावर लगाने और चोटियों में फूल गूँथने को (भी) नहीं कहेंगी और न कभी यमुना-किनारे अपना श्रृंगार करने के लिये तुम्हें रुकने को कहेंगी। (अब) हम कभी (तुमसे) मान नहीं करेंगी और न तुम्हारे दान माँगते समय हठ करेंगी। तुमसे कोमल स्वर में वंशी बजाने अथवा गाने को (भी) नहीं कहेंगी। नन्दनन्दन! (अब हमें) दर्शन दो; (क्योंकि तुम्हारे) मिलने की आशा मन में लग रही है। श्यामसुन्दर (आप) का रूप देखने के लिये (हमारे) नेत्र प्यासे मर रहे हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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