फिरि-फिरि नृपति चलावत बात।
कहु री ! सुमति कहा तोहिं पलटी, प्रान-जिवन कैसें बन जात ।
ह्वै बिरक्त, सिर जटा धर द्रुम-चर्म भस्म सब गात ।
हा हा राम, लछन अरु सीता, फल भोजन जु डसावैं पात।
बिन रथ रूढ़, दुसइ दुख मारग, बिन पद-त्रान चलैं दोउ भ्रात ।
इहिं विधि सोच करत अतिही नृप, जानकि ओर निरखि बिलखात ।
इतनी सुनत सिमिटि सब आए, प्रेम सहित धारे अँसुपात ।
ता दिन सूर सहस सब चक्रित, सवर-सनेह तज्यो पितु-भात ॥38॥