फिरि-फिरि नृपति चलावत बात -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग कान्‍हरौ
महाराज दशरथ का पाश्‍चाताप


  
फिरि-फिरि नृपति चलावत बात।
कहु री ! सु‍मति कहा तोहिं पलटी, प्रान-जिवन कैसें बन जात ।
ह्वै बिरक्‍त, सिर जटा धर द्रुम-चर्म भस्‍म सब गात ।
हा हा राम, लछन अरु सीता, फल भोजन जु डसावैं पात।
बिन रथ रूढ़, दुसइ दुख मारग, बिन पद-त्रान चलैं दोउ भ्रात ।
इहिं विधि सोच करत अतिही नृप, जानकि ओर निरखि बिलखात ।
इतनी सुनत सिमिटि सब आए, प्रेम सहित धारे अँसुपात ।
ता दिन सूर सहस सब चक्रित, सवर-सनेह तज्‍यो पितु-भात ॥38॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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