फिरत प्रभु पूछत बन-द्रुम-वेली।
अहो वंघु, काहूँ अवलोकी इहिं मग बधू अकेली।
अहो बिहंग, अहो पन्नग-नृप, या कंदर के राइ।
अवकैं मेरी विपति मिटावौ, जानकि देहु बताइ।
चंपस-पुहुप-वरन-तन-सुंदर, मनौ चित-अवरेखी।
हो रघुनाथ, निसाचर कैं सँग अबै जात हौं देखो।
यह सुनि धावत धरनि, चरन की प्रतिमा पथ मैं पाई।
नैन-नीर रघुनाथ सानि सो, सिव ज्यौं गात चढ़ाई।
कहुँ हिय-हार, कहूँ कर-कंकन, कहुँ नूपुर कहुँ चीर।
सूरदास बन-बन अवलोकत, बिलख बदन रघुबीर॥64॥