विरह-पदावली -सूरदास
(191) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) पथिक से क्यों प्रेम करना चाहिये। परदेशी कन्हैया हमसे हेल-मेल (प्रेम-परिचय बढ़ा) कर चले गये और (हम) पश्चाताप करके मरी जा रही हैं। कानों से श्रीसीताजी की कथा सुनती हैं (कि उन्हें बिना अपराध के ही राम ने त्याग दिया। वे ही तो ये हैं, अतः) क्या सोचकर इनका अनुमान किया जाय (इनसे स्नेह किया जाय)। जो बिना अपराध के ही अपने सेवक को छोड़ दे, ऐसे स्वामी से डरना चाहिये। एक बार (उन) वसुदेव जी के कुमार ने (अपनी) बातों से गोकुल को ठग लिया और यशोदा जी के सम्मुख बाल-क्रीड़ा के द्वारा सभी के चित्त को चुरा लिया। (अब) जिन्होंने अपनी जाति-पाँति और सर्वस्व दे दिया, उन्हीं बलि राजा की पीठ पर इन्होंने (वामन रूप से) पैर रखा। अतः ऐसे लोगों से किसी प्रकार पार नहीं पाया जा सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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