पिता और पुत्र का संवाद

महाभारत शान्ति पर्व के मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 277वें अध्याय में पिता और पुत्र के संवाद का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

भीष्म द्वारा पिता-पुत्र के संवाद का वर्णन युधिष्ठिर से करना

युधिष्ठिर ने पूछा- पितामह! सम्‍पूर्ण प्राणियों को भय देने वाला यह काल धीरे-धीरे बीता जा रहा है। (कौन कब तक जीवित रहेगा, इसका कुछ निश्‍चय नहीं है।) ऐसी दशा में मनुष्‍य किस कार्य को अपने लिये कल्‍याणकारी समझे, यह मुझे बताइये?

भीष्‍म जी ने कहा- युधिष्ठिर! इस विषय में विज्ञ पुरुष पिता-पुत्र संवादरूप एक प्राचनी इतिहास का उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो।

कुन्‍तीनन्‍दन! प्राचीनकाल में किसी स्‍वाध्‍याय परायण ब्राह्मण के एक बड़ा मेधावी पुत्र उत्‍पन्‍न हुआ, जिसका नाम 'मेधावी' ही था। उसके पिता सदा स्‍वाध्‍याय में ही तत्‍पर रहते थे, किंतु मोक्षधर्म में इतने निपुण नहीं थे। पुत्र मोक्ष धर्म के ज्ञान में कुशल था; अत: उसने अपने पिता से पूछा। पुत्र बोला-तात! मनुष्‍यों की आयु तीव्रगति से बीती जा रही है। इस बात को अच्‍छी तरह जानने वाला धीर पुरुष किस धर्म का अनुष्ठान करे? पिता जी! यह सब क्रमश: और यथार्थरूप से आप मुझे बताइये, जिससे मैं भी उस धर्म का आचरण कर सकूँ। पिता ने कहा- बेटा! द्विज को चाहिये कि वह पहले ब्रह्मचर्य-आश्रम में रहकर वेदों का अध्‍ययन कर ले, फिर पितरों का उद्धार करने के लिये गहस्‍थ-आश्रम में प्रवेश करके पुत्रोत्‍पादन की इच्‍छा करे। वहाँ विधिपूर्वक अग्नियों की स्‍थापना करके उनमें विधिवत् अग्निहोत्र करे। इस प्रकार यज्ञ कर्म का सम्‍पादन करके वानप्रस्‍थ आश्रम में प्रविष्ट हो मुनिवृत्ति से रहने की इच्‍छा करे। पुत्र ने पूछा- पिता जी! यह लोक तो किसी के द्वारा अत्‍यन्‍त ताड़ित और सब ओर से घिरा हुआ जान पड़ता है। यहाँ ये अमोघ वस्‍तुएँ निरन्‍तर हम लोगों पर टूटी पड़ती हैं। ऐसी दशा में आप धीर पुरुष के समान कैसे बातचीत कर रहे हैं? पिता बोले- पुत्र! तुम मुझे डराने की चेष्टा क्‍यों करते हो? भला, यह लोक कैसे ताड़ित होता है अथवा किसने इसे घेर रखा है? और यहाँ कौन-सी अमोघ वस्‍तुएँ हम पर टूटी पड़ती हैं?

पुत्र बोला- पिता जी! देखिये, मृत्‍यु सारे जगत को पीट रही है। बुढ़ापे ने इसे घेर लिया है। ये दिन और रात्रियाँ हम पर टूटी पड़ती हैं। इस बात को आप समझ क्‍यों नहीं रहे हैं? जब मैं यह अच्‍छी तरह जानता हूँ कि मौत मेरे कहने से क्षणभर भी रुक नहीं सकती और मैं ज्ञानरूपी कवच से अपने को बिना ढके हुए ही विचर रहा हूँ, तब यह समझकर भी मैं अपने कल्‍याण साधन में एक क्षण की भी प्रतीक्षा कैसे करूँगा? जब प्रत्‍येक रात बीतने के बाद आयु क्षीण होकर कुछ-न-कुछ थोड़ी होती चली जा रही है, तब छिछले पानी में रहने वाली मछली के समान कौन सुख पा सकता है? जैसे मनुष्‍य वन में फूल चुन रहा हो, उसी बीच में कोई हिंसक जीव उस पर आक्रमण कर दे; उसी प्रकार जब मनुष्‍य मन दूसरी ओर (विषय-भोगों में) लगा होता है, उसी समय उसकी इच्‍छा पूर्ण होने के पहले ही सहसा मौत आकर उसे दबोच लेती है।[1]

इसलिये जिस काम को कल करना हो, उसे आज ही कर लें। जिसे अपराहण में करना हो, उसे पूर्वाहण में ही कर डालें; क्‍योंकि मृत्‍यु इस बात की प्रतीक्षा नहीं करती कि इसका काम पूरा हो गया या नहीं। जो कल्‍याणकारी कार्य है, उसे आप आज ही कर डालिये। यह महान् काल आपको लाँघ न जाय; क्‍योंकि कौन जानता है कि आज किसकी मृत्‍यु की घड़ी आ पहुँचेगी। सारे काम अधूरे ही रह जाते हैं और मौत अपनी ओर खींच लेती है, इसलिये युवावस्‍था में ही मनुष्‍य को धर्म का आचरण करना चाहिये, क्‍योंकि जीवन का कुछ ठिकाना नहीं है। धर्माचरण करने से इस लोक में प्रसन्‍नता प्राप्‍त होती है और मृत्‍यु के पश्‍चात परलोक में अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। जिस पर मोह का आवेश होता है, वही स्त्री-पुत्रों के लिये तरह-तरह के काम-धंधों की खटपट में लगा रहता है। वह करने और न करने योग्‍य काम करके भी इन सबको संतोष देता है। पुत्रों और पशुओं से सम्‍पन्‍न हो जब मनुष्‍य का मन उन्‍हीं में आसक्‍त रहता है, उसी समय जैसे नदी का महान् जलप्रवाह अपने तट पर सोये हुए व्‍याघ्र को बहा ले जाता है, उसी प्रकार मृत्‍यु उस मनुष्‍य को लेकर चल देती है। वह भोग-सामग्रियों का संयम करता और कामनाओं से अतृप्‍त ही रहता है।[2]

तभी मृत्‍यु आकर उसे उसी तरह उठा ले जाती है, जैसे बाघिन भेड़ के पास पहुँचकर उसे दबोच लेती है। मनुष्‍य सोचता है कि यह काम तो मैंने कर लिया, इस काम को अभी करना है और यह दूसरा कार्य कुछ हद तक हो गया है और शेष बाकी पड़ा है। इस प्रकार मनसूबे बाँधने में लगे हुए उस मनुष्‍य को मौत लेकर चल देती है। वह अपने खेत, दुकान और घर के ही चक्‍कर में पड़ा रहता है। उनके लिये तरह-तरह के कर्मों में फँसता है; परंतु उनका फल मिलने भी नहीं पाता कि मौत उसको इस संसार से उठा ले जाती है। मनुष्‍य दुर्बल हो या बलवान, बुद्धिमान हो या शूरवीर अथवा मूर्ख हो या विद्वान-मृत्‍यु उसकी समस्‍त कामनाओं के पूर्ण होने से पहले ही उसे उठा ले जाती है। पिता जी! जब इस शरीर में मृत्‍यु, जरा, व्‍याधि और अनेक कारणों से होने वाले दु:खों का ताँता बँधा ही रहता है और मनुष्‍य किसी प्रकार भी उनसे अपना पिण्‍ड नही छुड़ा सकते, तब ऐसी दशा में आप निश्चिन्‍त से क्‍यों बैठे है? मनुष्‍य के जन्‍म लेते ही उसका अन्‍त कर डालने के लिये अन्‍तक (यमराज) उसके पीछे लग जाता है और बुढ़ापा भी देहधारी के पास आता ही है। समस्‍त चराचर पदार्थ इन दोनों से बँधे हुए हैं। एकमात्र सत्‍य के बिना कोई भी मनुष्‍य कभी सामने आती हुई मृत्‍यु की सेना को बलपूर्वक नहीं दबा सकता (अत: असत्‍य को त्‍यागकर सत्‍य का ही आश्रय लेना चाहिये) क्‍योंकि सत्‍य में ही अमृत (ब्रह्म) प्रतिष्ठित है। गाँव या नगर में रहकर स्त्री-पुत्रों में आसक्ति रखना यह मृत्‍यु का घर ही है। 'यदरण्‍यम्' इस श्रुति के अनुसार जो वानप्रस्‍थ आश्रम है, यह देवताओं की गोशाला के समान है।[2]

गाँव में रहकर विषय-भोगों में आसक्‍त होना-यह जीव को बाँधने वाली रस्‍सी के समान है। केवल पुण्‍यात्‍मा पुरुष ही इसे काटकर निकल पाते हैं। पापी पुरुष इसे नहीं काट सकते। जो मन, वाणी, क्रिया तथा अन्‍य कारणों द्वारा किसी भी प्राणी की जीविका का अपहरण करके उसकी हिंसा नहीं करता, उसको दूसरे प्राणी भी वध या बन्‍धन के कष्ट में नहीं डालते। अत: मनुष्‍य को सत्‍यव्रत का आचरण करना चाहिये। सत्‍यरूपी व्रत के पालन में तत्‍पर रहना चाहिये। वह सत्‍य की कामना करे। सबके प्रति समान भाव रखे। जितेन्द्रिय बने और सत्‍य के द्वारा ही मृत्‍यु पर विजय प्राप्‍त करे। अमृत और मृत्‍यु- ये दोनों इस शरीर में ही विद्यमान हैं। मोह से मृत्‍यु प्राप्‍त होती है और सत्‍य से अमृतपद की उप‍लब्धि होती है। अत: अब मैं काम और क्रोध को त्‍यागकर अहिंसा धर्म के पालन की इच्‍छा करूँगा। सत्‍य का आश्रय लेकर कल्‍याण का भागी बनूँगा और अमर की भाँति मृत्‍यु को दूर हटा दूँगा। सूर्य के उत्तरायण होने पर शान्तिमय यज्ञ में तत्‍पर, जितेन्द्रिय, ब्रह्मयज्ञ परायण एवं मननशील होकर मैं जपस्‍वाध्‍यायरूप वाग्‍यज्ञ, ध्‍यानरूप मनोयज्ञ और शास्‍त्रविहित कर्मों का निष्‍काम भाव से आचरणरूप कर्म यज्ञ का अनुष्ठान करूँगा। मेरे-जैसा ज्ञानवान पुरुष हिंसाप्रधान पशुयज्ञों द्वारा कैसे यजन कर सकता है? अथवा पिशाच के समान विनाशशील क्षत्रिय-यज्ञों के अनुष्ठान में कैसे प्रवृत्त हो सकता है। पिता जी! मैं आत्‍मा से अपने आप में ही उत्‍पन्‍न हुआ हूँ। अपने आप में ही स्थित हूँ। मेरे कोई संतान नहीं है। मैं आत्‍मयज्ञ का ही यजमान होऊँगा। मुझे संतान नहीं तार सकती। जिसकी वाणी और मन सदा एकाग्र रहते हैं तथा जिसमें तम, त्‍याग और योग- तीनों का समावेश है, वह उनके द्वारा सब कुछ पा लेता है। संसार में ब्रह्मविद्या के समान कोई नेत्र नहीं है, ब्रह्मविद्या के समान कोई फल नहीं है, राग के समान कोई दु:ख नहीं है और त्‍याग के समान कोई सुख नहीं है। ब्रह्म में एकीभाव, समता, सत्‍यपरायणता, सदाचारनिष्ठा, दण्‍ड का त्‍याग (अहिंसा), सरलता तथा सब प्रकार के सकाम कर्मों से निवृति-इनके समान ब्राह्मण का दूसरा कोई धर्म नहीं है। ब्राह्मणदेव (पिता जी)! जब एक दिन आपको मरना ही है, तब इन धन-वैभव, बन्‍धु -बान्‍धव तथा स्त्री-पुत्रों से क्‍या प्रयोजन है? अपनी हृदय गुहा में विराजमान आत्‍मा की खोज कीजिये। सोचिये तो सही, आज आपके पिता जी कहाँ है, दादा-बाबा कहाँ चले गये। भीष्‍म जी कहते हैं- नरेश्वर! पुत्र का यह वचन सुनकर उसके पिता ने सब कुछ उसके कथनानुसार किया। उसी प्रकार तुम भी सत्‍य और धर्म में तत्‍पर होकर उसी प्रकार आचरण करो।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 277 श्लोक 1-12
  2. 2.0 2.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 277 श्लोक 13-25
  3. महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 277 श्लोक 26-39

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आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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