पितरों के अनुरोध से जरत्कारु की विवाह स्वीकृति

महाभारत आदि पर्व अध्याय 13 के अनुसार जरत्कारु का अपने पितरों के अनुरोध से विवाह के लिये उद्यत होने की कथा का वर्णन इस प्रकार है।-[1]

शौनक जी ने पूछा: - सूत जी! राजाओं में श्रेष्ठ जनमेजय ने किसलिये सर्पसत्र द्वारा सर्पो का अन्त किया? यह प्रसंग मुझसे कहिये। सूतनन्दन! इस विषय की सब बातों का यथार्थ रूप से वर्णन कीजिये। जप - यज्ञ करने वाले पुरुषों में श्रेष्ठ विप्रवर आस्तीक ने किसलिये सर्पों को प्रज्वलित अग्नि में जलने से बचाया और वे राजा जनमेजय, जिन्होंने सर्पसत्र का आयोजन किया था, किसके पुत्र थे? तथा द्विजवंश शिरोमणि आस्तीक भी किसके पुत्र थे? यह मुझे बताइये।

उग्रश्रवा जी ने कहा: - ब्रह्मन! आस्तीक का उपाख्यान बहुत बड़ा है। वक्ताओं में श्रेष्ठ! यह प्रसंग जैसे कहा जाता है, वह सब पूरा-पूरा सुनो।
शौनक जी ने कहा - सूतनन्दन! पुरातन ऋषि एवं यशवस्वी ब्राह्मण आस्तीक की इस मनोरम कथा को मैं पूर्ण रूप से सुनना चाहता हूँ।

उग्रश्रवा जी ने कहा - शौनक जी! ब्राह्मण लोग इस इतिहास को बहुत पुराना बताते हैं। पहले मेरे पिता लोमहर्षण जी ने, जो व्यास जी के मेधावी शिष्य थे, ऋषियों के पूछने पर साक्षात श्रीकृष्ण द्वैपायन (व्यास) के कहे हुए इस इतिहास का नैमिषारण्यवासी ब्राह्मणों के समुदाय में वर्णन किया था। उन्हीं के मुख से सुनकर मैं भी इसका यथावत वर्णन करता हूँ। शौनक जी! यह आस्तीक मुनि का उपाख्यान सब पापों का नाश करने वाला है। आपके पूछने पर मैं इसका पूरा-पूरा वर्णन कर रहा हूँ। आस्तीक के पिता प्रजापति के समान प्रभावशाली थे। ब्रह्मचारी होने के साथ ही उन्होंने आहार पर भी संयम कर लिया था। वे सदा उग्र तपस्या में संलग्न रहते थे। उनका नाम था जरत्कारु। वे ऊर्ध्‍वरेता और महान ऋषि थे।[2]यायावरों में उनका स्थान सबसे ऊँचा था। वे धर्म के ज्ञाता थे।

जरत्कारु का पितरोंं से मिलना

एक समय तपोबल से सम्पन्न उन महाभाग जरत्कारु ने यात्रा प्रारम्भ की। वे मुनिवृत्ति से रहते हुए जहाँ शाम होती वहीं डेरा डाल देते थे। वे सब तीर्थो में स्नान करते हुए घूमते थे। उन महातेजस्वी मुनि ने कठोर व्रतों की ऐसी दीक्षा लेकर यात्रा प्रारम्भ की थी, जो अजितेन्द्रिय पुरुषों के लिये अत्यन्त दुःसाध्य थी। वे कभी वायु पीकर रहते और कभी भोजन का सर्वथा त्याग करके अपने शरीर को सुखाते रहते थे। उन महर्षि ने निंद्रा पर भी विजय प्राप्त कर ली थी, इसलिये उनकी पलक नहीं लगती थी। इधर-उधर विचरण करते हुए वे प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी जान पड़ते थे। घूमते-घूमते किसी समय उन्होंने अपने पितामहों को देखा जो ऊपर को पैर और नीचे को सिर किये एक विशाल गडढ़े में लटक रहे थे। उन्हें देखते ही जरत्कारु ने उनसे पूछा- ‘आप लोग कौन हैं, जो इस गड्ढे में नीचे को मुख किये लटक रहे हैं। आप जिस वीरणस्तम्ब[3] को पकड़कर लटक रहे हैं, उसे इस गड्ढे़ में गुप्त रूप से नित्य- निवास करने वाले चूहे ने सब ओर से प्रायः खा लिया है।'[4] पितर बोले- ब्रह्मन! हम लोग कठोर व्रत का पालन करने वाले यायावर नामक मुनि हैं। अपनी सन्तान परम्परा का नाश होने से हम नीचे पृथ्वी पर गिरना चाहते हैं। हमारी एक संतति बच गयी है, जिसका नाम है जरत्कारू। हम भाग्यहीनों की वह अभागी सन्तान केवल तपस्या में ही संलग्न है।

वह मूढ़ पुत्र उत्पन्न करने के लिये किसी स्त्री से विवाह करना नहीं चाहता है। अतः वंश परम्परा का विनाश होने से हम यहाँ इस गड्ढे़ में लटक रहे हैं। हमारी रक्षा करने वाला वह वंशधर मौजूद है, तो भी पापकर्मी मनुष्यों की भाँति हम अनाथ हो गये हैं। साधु शिरोमणे! तुम कौन हो जो हमारे बन्धु-बन्धुओं की भाँति हम लोगों की इस दयनीय दशा के लिये शोक कर रहे हो? ब्रह्मन! हम यह जानना चाहते हैं कि तुम कौन हो जो आत्मीय की भाँति यहाँ हमारे पास खडे़ हो? सत्पुरुषों में श्रेष्ठ! हम शोचनीय प्राणियों के लिये तुम क्यों शोकमग्न होते हो।

जरत्कारु ने कहा- महात्माओं! आप लोग मेरे ही पितामह और पूर्वज पितृगण हैं। स्वयं मैं ही जरत्कारु हूँ बताइये, आज आपकी क्या सेवा करूँ? पितर बोले- तात! तुम हमारे कुल की सन्तान परम्परा को बनाये रखने के लिये निरन्तर यत्नशील रहकर विवाह के लिये प्रयत्न करो। प्रभो! तुम अपने लिये, हमारे लिये अथवा धर्म का पालन हो इस उद्देश्य से पुत्र की उत्पत्ति के लिये यत्न करो। तात! पुत्र वाले मनुष्य इस लोक में जिस उत्तम गति को प्राप्त होते हैं, उसे अन्य लोग धर्मानुकूल फल देने वाले भली- भाँति संचित किये हुए तप से भी नहीं पाते। अतः बेटा! तुम हमारी आज्ञा से विवाह करने का प्रयत्न करो और सन्तानोत्पादन की ओर ध्यान दो। यही हमारे लिये सर्वोत्तम हित की बात होगी।

विवाह स्वीकृति

जरत्कारु ने कहा - पितामहगण! मैंने अपने मन में यह निश्चय कर लिया था कि मैं जीवन के सुखभोग के लिये कभी न तो पत्नी का परिग्रह करूँगा और न धन का संग्रह ही; परन्तु यदि ऐसा करने से आप लोगों का हित होता है तो उसके लिये अवश्य विवाह कर लूँगा। किन्तु एक शर्त के साथ मुझे विधिपूर्वक विवाह करना है। यदि उस शर्त के अनुसार किसी कुमारी कन्या को पाऊँगा, तभी उससे विवाह करूँगा, अन्यथा विवाह करूँगा ही नहीं। वह शर्त यों है - जिस कन्या का नाम मेरे नाम के ही समान हो, जिसे उसके भाई-बन्धु स्वयंं मुझे देने की इच्छा रखते हों और जो भिक्षा की भाँति स्वयं प्राप्त हुई हो, उसी कन्या का मैं शास्त्रीय विधि के अनुसार पाणिग्रहण करूँगा। विशेष बात तो यह है कि मैं दरिद्र हूँ, भला मुझे माँगने पर भी कौन अपनी कन्या पत्नी रूप में प्रदान करेगा? इसलिये मेरा विचार है कि यदि कोई भिक्षा के तौर पर अपनी कन्या देगा तो ही उसे ग्रहण करूँगा। पितामहों! मैं इसी प्रकार, इसी विधि से विवाह के लिये सदा प्रयत्न करता रहूँगा। इसके विपरीत कुछ नहीं करूँगा। इस प्रकार मिली हुई पत्नी के गर्भ से यदि कोई प्राणी जन्म लेता है तो वह आप लोगों का उद्धार करेगा, अतः आप मेरे पितर अपने सनातन स्थान पर जाकर वहाँ प्रसन्नतापूर्वक रहें।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत आदि पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-19 (हिन्दी) कृष्णकोश। अभिगमन तिथि: 18 नवंबर, 2016।
  2. यायावर का अर्थ है सदा विचरने वाला मुनि। मुनिवृत्ति से रहते हुए सदा इधर-उधर घूमते रहने वाले गृहस्थ ब्राह्मणों के एक समूह विशेष की यायावर संज्ञा है। ये लोग एक गाँव में एक रात से अधिक नहीं ठहरते और पक्ष में एक बार अग्निहोत्र करते हैं। पक्षहोम सम्प्रदाय की प्रवृत्ति इन्हीं से हुई है। इनके विषय में भारद्वाज का वचन इस प्रकर मिलता है- यायावर नाम ब्राह्मणा आसंस्ते अर्ध मासादग्निहोत्रभजुह्न्। यायावर लोग घूमते-घूमते जहाँ संध्या हो जाती है वही ठहर जाते हैं।
  3. खस नाम तिनकों के समूह
  4. यहाँ भूलोक ही गड्ढा है। स्वर्गवासी पितरों को जो नीचे गिरने का भय लगा रहता है उसी को सूचित करने के लिये यह कहा गया है कि उनके पैर ऊपर थे और सिर नीचे। काल ही चूहा है और वंश परम्परा ही वीरणास्तम्व (खस नामक तिनकों का समुदाय) है। उस वंश में केवल जरत्कारु बच गये थे और अन्य सब पुरुष काल के अधीन हो चुके थे। यही व्यक्त करने के लिये चूहे के द्वारा तिनकों के समुदाय को सब ओर से खाया हुआ बताया गया है। जरत्कारु के विवाह न करने से उस वंश का वह शेष अंश भी नष्ट होना चाहता था। इसीलिये पितर व्याकुल थे और जरत्कारु को इसका बोध कराने के लिये उन्होंने इस प्रकार दर्शन दिया था।
  5. महाभारत आदि पर्व अध्याय 13 श्लोक 20-32 (हिन्दी) कृष्णकोश। अभिगमन तिथि: 18 नवंबर, 2016।

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
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स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
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