पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
26. वस्त्रावतार
दुर्योधन भाइयों के साथ इन्द्रप्रस्थ से बहुत रुष्ट हो गया था। उसकी सदा की राजाधिराज होने की कामना नष्ट हो गयी थी। युधिष्ठिर के ऐश्वर्य को देखकर उसके चित्त में ईर्ष्याग्नि जल रही थी और पाण्डवों को समाप्त करके सम्पूर्ण राज्य प्राप्त करने की कोई आशा रही नहीं थी। ऐसे समय शकुनि ने दुर्योधन को समझाया – ‘निराश होने की कोई बात नहीं हैं। जो काम शक्ति से नहीं होता, वह नीति से सहज सिद्ध हो जाता है। राजाओं के लिए द्यूत भी उतना ही सम्मानजनक है जितना युद्ध, और पासों की क्रीड़ा में मुझे अब तक किसी ने पराजित नहीं किया है।’ शकुनि की कुमन्त्रणा सफल हो गयी। धृतराष्ट्र अपने पुत्रों की सम्पत्ति के समर्थक बन गये। उन्होंने दुर्योधन के कहने से युधिष्ठिर को हस्तिनापुर आकर अक्षक्रीड़ा का आमन्त्रण भेज दिया। धर्मराज युधिष्ठिर एक तो धृतराष्ट्र के संकोच में आ गये और दूसरी ओर अक्षक्रीड़ा का आह्वान अस्वीकार करना उन दिनों राजाओं के लिए कायरता मानी जाती थी। युधिष्ठिर सम्राट थे, अत: इस आह्वान को अस्वीकार नहीं कर सके। पाण्डवों के परम हितैषी श्रीकृष्णचन्द्र द्वारिका पहुँचते ही सौभ-विमान के स्वामी शाल्व के साथ युद्ध में उलझ गये थे। शाल्व ने उनकी अनुपस्थिति में ही द्वारिका पर आक्रमण कर दिया था। युधिष्ठिर भाइयों और द्रौपदी के साथ हस्तिनापुर गये। उनका धृतराष्ट्र ने स्वागत किया। दुर्योधन ने उनको भली प्रकार राजभवन में ठहराया। प्रेमपूर्वक उनसे मिला। धृतराष्ट्र, विदुर, भीष्म आदि सबकी उपस्थिति में अक्षक्रीडा प्रारम्भ हुई। उचित यह था कि युधिष्ठिर के साथ पासा खेलने दुर्योधन बैठता किन्तु उसने शकुनि को अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया। धृतराष्ट्र के समर्थन के कारण युधिष्ठिर इसका विरोध नहीं कर सके। पासे की क्रीड़ा केवल प्रारब्ध का खेल नहीं है। इसमें बहुत अधिक हस्त कौशल और छल चला करता है। सीधे-साधे धर्मराज छल को क्या जानें और शकुनि तो इसमें बहुत निपुण था। फलत: युधिष्ठिर हारने लगे। द्यूत में कलिका निवास है। उसमें एक उन्माद होता है –‘अब जीत जायेंगे। इस बार का दव अवश्य मेरे अनुकूल पड़ेगा।’ इस दुराशा से कभी जुआरी उबर नहीं पाता। यहाँ तो शकुनि, दुर्योधन आदि ही नहीं, धृतराष्ट्र तक युधिष्ठिर को उकसाते तथा आवेश दिलाते जा रहे थे। धन गया, रथ, गज, अश्व आदि गये और सम्पूर्ण राज्य चला गया। युधिष्ठिर द्यूत में हारते गये। यह उन्माद इस सीमा तक पहुँचा कि वे अपने भाइयों को दाव पर लगाने लगे। सब भाइयों को हार जाने के पश्चात स्वयं को दाव पर लगाया और हार गये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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