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18. जरासन्ध–वध
मोक्ष के पथ में केवल अर्थ और काम ही त्याज्य नहीं होते, धर्म भी उपेक्षणीय की ही श्रेणी में आ जाता है। त्रिवर्ग का अतिक्रम करके ही पुरुष अपवर्ग पाता है, किन्तु व्यवहार में भी जब सकाम धर्म उत्पीडक बन जाता है तो धर्म के परम प्रभु को भी उसका अभीष्ट हो जाता है।
जरासन्ध धार्मिक था। ब्राह्मण भक्त था। प्रजा का न्यायपूर्वक पालन करता था। प्रजा और अपने अनुगतों का स्नेह भाजन था। लेकिन वह दूसरे किसी को भी अपने सामने स्वतन्त्र नहीं देखना चाहता था। दूसरे नरेशों के लिए वह कहता था- ‘मेरे पीछे चलो या मरो।’ इस अहंकार को सृष्टि सञ्चालक बहुत दिन सहन नहीं कर सकते थे।
जब अहंकार प्रबल हो, पुरुषोत्तम उसके आवास में सौम्य बनकर सीधे मार्ग से प्रवेश करें। वे परिखाध्वज करके, प्रतिकार करने ही तो आ सकते थे। जरासन्ध के यहाँ तो तब से अपशकुन प्रारम्भ हो गये थे, जब से इन्द्रप्रस्थ से श्रीकृष्ण ने प्रस्थान किया था। वह अरिष्ट-शान्ति के लिए अनेक प्रकार के अनुष्ठानों में लगा था उन दिनों।
दुर्गपाल के प्राचीन बुर्ज ध्वस्त करके तीन ब्राह्मणों के नगर में प्रवेश की सूचना दे दी थी। मध्याह्न भोजन का समय हो चुका था। इस अतिथि वेला में नगर में प्रविष्ट वे तीनों अज्ञात विप्र क्योंकि सीधे राजसदन आ रहे हैं, यह समाचार मिल चुका था- मगधराज उनकी प्रतीक्षा ही कर रहा था।
तीनों अतिथियों का वेश उनके आचरण से सर्वथा असंगत था। तीनों आये और उनका स्वागत करने जरासन्ध खड़ा हुआ, किन्तु तीन में एक ने भी न आशीर्वाद दिया और न ऐसा कुछ भी किया कि उनका वर्ण जाना जा सके।
‘इन्हें कहीं देखा है।’ जरासन्ध को यह बात तत्काल लगी; किन्तु मस्तक पर बहुत बल देने पर भी स्मृति साथ नहीं दे रही थी। ‘कहाँ देखा है? कौन हैं ये?’ इसी उधेड़-बुन में वह खड़ा ही रह गया।
बिना आशीर्वाद दिये, बिना किसी भूमिका के श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- ‘राजन ! हम आपके यहाँ अतिथि होकर कुछ कामना से आये हैं। सुना है कि आप उदार हैं। अतिथि की आकांक्षा पूरी करते हैं, अत: हम जो चाहते हैं, हमें प्रदान करें। तितीक्षु पुरुष के लिए कुछ भी असह्य नहीं है। दुष्ट के लिए कोई दुष्कर्म कठिन नहीं और उदार पुरुष क्या नहीं दे सकते। जो समर्थ होने पर भी इस अनित्य शरीर से सज्जनों के समाज में गाया जाने वाला नित्य यश उपार्जित नहीं कर लेता, वही शोचनीय है और उसने अपने आपको ही ठगा है।
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