पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
93. उपसंहार
बात चाहे कितनी उचित हो और बुद्धि उसे स्वीकार कर ले; किन्तु माता का वन जाना मन को व्यथित न करें, यह कैसे सम्भव था। पुत्रों को अन्तत: माता को विदा देनी पड़ी। उनमें से प्रत्येक का आग्रह कि वह साथ चलेगा, सुना जाने योग्य नहीं था; क्योंकि वह तपस्या में बाधक बनने वाला था। युधिष्ठिर बहुत दु:खी लौटे तो देवर्षि आ गये। उन्होंने एक नवीन सूचना दे दी- 'अब भगवान काल यहाँ से पुरानी पीढ़ी के विसर्जन के पक्ष में हो गये हैं। जब तक श्रीकृष्ण धरापर हैं, तभी तक पाण्डवों के भी रहने योग्य पृथ्वी रहेगी।' धमर्राज युधिष्ठिर को नाना प्रकार के अपशकुन दीखने लगे। लोगों में अब अकारण लोभ, संग्रह की प्रवृति लक्षित होने लगी। सत्पुरुष भी साधारण बातों में रुष्ट होने लगे। सेवक अब सत्य-भाषण में सावधानी नहीं रखते थे। यह देखकर धर्मराज का अन्त:करण आकुल हो उठा- 'ये सब लक्षण तो कहते हैं कि कलि के अपावन पदों ने पृथ्वी का स्पर्श कर लिया; किन्तु धर्म के परमाश्रय श्रीकृष्ण के धरापर रहते यह कैसे सम्भव है। तब क्या श्रीकृष्ण...........।' बहुत व्याकुलता होती थी आगे कुछ भी सोचने में; किन्तु यह प्रश्न तो और भी मन को मथित कर रहा था- 'श्रीकृष्ण के समीप से अर्जुन अब तक क्यों नहीं लौटे? उनका कोई भी समाचार क्यों नहीं आ रहा है?' इन्हीं आशंकाओं में निमग्न थे कि अर्जुन आ गये। अत्यन्त कृश, कान्तिहीन अर्जुन- ऐसे आशान्त, उदास व्याकुल अर्जुन भी हो सकते हैं, यह कल्पना भी किसी ने नहीं की होगी। वे आये और बड़े भाई के पैरों पर गिरकर फूट-फूटकर रोने लगे। 'क्या हुआ तम्हें? द्वारिका में हमारे सब स्वजन तो सकुशल हैं?' युधिष्ठिर द्वारिका के एक-एक जनों का नाम लेकर पूछ गये; किन्तु अर्जुन रोते रहे। उनके कण्ठ से शब्द ही नहीं निकलते थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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