पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
91. युधिष्ठिर को धर्मोपदेश
अश्वमेध यज्ञ पूरा हो गया। अवभृथ-स्नान के अनन्तर अतिथि विदा हो गये। एक दिन धर्मराज युधिष्ठिर ने श्रीकृष्णचन्द्र से पूछा- 'भगवन ! समस्त पापी-महापापी भी जिस धर्म का श्रवण मात्र करने से पापों से छूट जाते है, उस भागवत धर्म का मैं आपके श्रीमुख से श्रवण करना चाहता हूँ। यदि मैं उसके श्रवण का अधिकारी तथा आपका अनुग्रह भोजन होऊँ तो आप भागवत धर्म का सरहस्य वर्णन करें।' युधिष्ठिर ने यह निवेदन कर दिया कि उन्होंने मनु, याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ, पराशर प्रभृति महात्माओं के द्वारा निर्दिष्ट धर्मो का भली प्रकार श्रवण किया है। प्राय: सभी स्मृतिकारों का युधिष्ठिर नामोल्लेख किया। इसका स्पष्ट अर्थ था कि वे श्रुति अनुगामी स्मृतियों द्वारा प्रतिपादित धर्म को जानते हैं। स्मार धर्म के वे स्वयं विद्वान हैं; किंतु स्मृति प्रतिपादन धर्म तो अनुष्ठान करने से कल्याण करता है। उसके केवल सुन लेने से कोई निष्पाप नहीं हो सकता। स्नार्त धर्म श्रद्धा सहित कर्मानुष्ठान को आवश्यक बतलाता है। किस कर्म का कब कौन अधिकारी है, किसके लिए कौन-सा कर्म कब करणीय या अकरणीय है, कौन-सा कर्म शुभ और कौन-सा अशुभ है, यह कर्मों का वर्गीकरण तथा अधिकारी-निर्णय स्मृतियों का विषय है। केवल मनुष्य ही कर्म योनि का प्राणी होन से स्मार्त धर्म में मनुष्य का ही अधिकार है। भागवत धर्म प्राणि मात्र का अधिकार मानता है भगवान की शरणा गति में। बिना शुभ-अशुभ का विभाग किये सर्व कर्मार्पण करने की प्रेरणा भागवत धर्म देता है। कर्म को भगवान के अर्पित करके कर्ता स्वयं को भी समर्पित कर दे, यह भागवत धर्म। भागवत धर्म श्रवण मात्र से मनुष्य को पवित्र करता है। युधिष्ठिर ने इसीलिए भागवत धर्म को जानना चाहा। भगवान से उत्तम वक्ता भागवत धर्म का कहाँ मिलता। श्रीकृष्ण ने प्रारम्भ किया- 'धर्म ही जीव का पिता-माता, रक्षक, सुहृद-सखा, भाई और स्वामी है। विशुद्ध धर्म का सेवन महान भय से रक्षा करता है। मनुष्य का जब पाप भोग से नष्ट हो जाता है, तभी उसकी बुद्धि धर्माचरण में लगती है। लाखों यानियों में भटकाने के पश्चात मुनष्य योनि प्राप्त होती है। इसमें जो धर्म का अनुष्ठान नहीं करता, वह महान लाभ से वंचित होता है। दरिद्रता, अपयश, कुरुपता, रोग प्रभृति पूर्वजन्म के अधर्माचरण के परिणाम हैं। दीर्घजीवन, शौर्य, स्वास्थ्य, सम्पत्ति, सुयश, विद्या, बुद्धि, सौन्दर्य, सद्बान्धव, सत्कुल में जन्मादि ये पूर्वकृत धर्माचरण के पुरस्कार हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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