पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
87. कृष्णार्जुन-युद्ध
अर्जुन के परम-मित्र गन्धर्वराज चित्रसेन स्त्रियों के साथ गंगा-जल में जल-विहार कर रहे थे। प्रमाद पुण्यात्माओं के लिए भी प्रतिषिद्ध है। वह उनके भी पतन का कारण हो जाता है। यह ठीक है कि गन्धर्व देवयोनि के लोग हैं। वे मनुष्य नहीं हैं कि उन्हें पाप-पुण्य का भागी होना पड़े। वे तो भोगयोनि में हैं और अपने पुण्यों का ही भोग उन्हें भोगना है; किन्तु फिर भी मनुष्य लोक में आकर उन्हें यहाँ की मर्यादा का मान रखना चाहिए। परम-पावन सुरसरि में, हिमालय पवित्र क्षेत्र में, रात्रि के समय स्त्रियों के साथ जल-विहार उचित नहीं था। इस अनुचित कर्म ने ही चित्रसेन के चित्त में प्रमाद उत्पन्न किया। चित्रसेन रात्रि में जल-विहार करके ब्रह्म-मुहूर्त में स्त्रियों के साथ स्वर्ग जाने लगे थे। आकाश में पहुँचकर बिना नीचे का ध्यान रखे ही उन्होंने पान की पीक थूक दी। उस समय अरुणोदय हो रहा था। महर्षि गालव गंगाजी में स्नान करके सन्ध्या कर चुके थे और अंजलि में जल लेकर अर्घ्य देने को उद्यत थे। वे प्रतीक्षा कर रहे थे कि सूर्य-बिम्ब क्षितिज से उठता दीखते ही अर्घ्य अर्पित करें। चित्रसेन की पीक जाकर महर्षि की अंजलि में गिरी। महर्षि ने चौंककर ऊपर देखा और क्रोध से उनके नेत्र लाल हो उठे। महर्षि गालव उस समय भी गन्धर्व राज को शाप दे सकते थे; किन्तु शाप देने से अपने तप का नाश होता है। उन्हों अंजलि का जल फेंककर फिर डुबकी लगायी। पवित्र होकर सूर्य को अर्घ्य दिया और वहाँ से आकाश मार्ग से सीधे द्वारिका पहुँचे। 'अपने धर्म की रक्षा और साधुओं के उद्धार के लिए अवतार लिया है।' गालव ने आते ही क्रोध भरे स्वर में उपालम्भ देना प्रारम्भ किया- 'आपके धरापर रहते ही हम ऋषियों की अर्घ्य को उठी अंजलि में थूक दिया जाता है तो आगे कलियुग आने पर पता नहीं क्या होगा।' 'किसने यह साहस किया है?' श्रीकृष्ण की भौंहे टेढ़ी हो गयीं। ललाटपर आकुंचन आया। नेत्र अरुण हो उठे- 'वह कोई भी हो, कल सूर्यास्त से पहिले मैं उसे अवश्य मार दूँगा !' प्रतिज्ञा करके, बहुत विनयपूर्वक श्रीद्वारिकानाथ ने महर्षि गालव को आसन दिया। उनकी पूजा की। महर्षि को उन्होंने अपने सदन में ही कल तक रुकने का आग्रह किया। देवर्षि नारद आ पहुँचे इतने में। उन्होंने भी आते ही पूछा- 'आज आपके नित्य प्रसन्न श्रीमुख पर रोष की रेखाएँ क्यों देख रहा हूँ?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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