पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
85. अपने नामों की व्याख्या
युधिष्ठिर ने जब शासन सम्हाल लिया और राज्य में सब ओर शान्ति हो गयी; तब श्रीकृष्ण और अर्जुन हस्तिनापुर से निकले। वे सुरम्य पर्वतों पर और वनों में विचरते, आखेट करते, कुछ दिन शान्ति का समय विनोद में व्यतीत करके इन्द्रप्रस्थ आ गये। इन्द्रप्रस्थ अब राजधानी से दूर पाण्डवों के लिए एकान्त में सुखपूर्वक रहने का स्थान हो गया था। अर्जुन के ऊपर वैसे भी शासन का कोई विशेष दायित्व नहीं था। उन्हें सुरक्षा का भार दिया गया था और इस ओर से अभी कोई आशंका का कारण नहीं था। अत: वे श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ में निश्चिन्त रह सकते थे। एक दिन अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा 'गोविन्द ! आप भूत तथा भविष्य के स्वामी हो। सम्पूर्ण प्राणियों का सृजन करने वाले हो। जगत के आश्रय, संचालक, अभय देने वाले, अविनाशी हो। श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराणों में आपके जो नाम गुण-कर्मानुसार आये हैं, महर्षिगण जिनका गान करते हैं, उनकी व्याख्या मैं आपके ही श्रीमुख से सुनना चाहता हूँ।' श्रीकृष्ण ने कहा– 'अर्जुन ! श्रुति-इतिहास-पुराणादि में तथा ज्योतिषादि शास्त्रों में महर्षियों द्वारा वर्णित मेरे बहुत से नाम हैं। गुण-कर्मानुसार मेरे नाम अनन्त हैं। उन सबकी गणना तो मैं भी नहीं कर सकता। उनमें से प्रधान-प्रधान नामों की व्याख्या मैं तुम्हें सुना रहा हूँ।' 1. नारायण– सृष्टि के आदि में सबसे पहले नर-पुरुष से जल उत्पन्न हुआ। अत: जल का एक नाम नार है। उस नार (जल) को अयन बनाकर मैं सोया, अत: मेरा एक नाम नारायण है। निर्गुण-सगुण स्वरूप विश्वात्मा ही नारायण हैं, मेरे इसी रूप से सचराचर सृष्टि उत्पन्न हुई है। इन्हीं को पुराण पुरुष और विराट कहते हैं। इन कारणाब्धिशायी नारायण की नाभि से कमल प्रकट हुआ, जिससे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का प्रादुर्भाव हुआ। ब्रह्मा का एक दिन बीतने पर संसार के प्रलय के लिए आवेश में आये नारायण के ललाट से संहारकारी रुद्र प्रकट हुए। इस प्रकार नारायण के प्रसाद से ब्रह्मा और क्रोध से रुद्र की उत्पति हुई। ये दोनों नारायण से अभिन्न उनके स्वरूप ही हैं। इनमें से रुद्र के कपर्दी, जटिल, मृड श्मशानी, दक्ष-यज्ञध्वंसी आदि अनेक नाम हैं। इन देवदेव महेश्वर की पूजा करने से नारायण की भी पूजा हो जाती है। सम्पूर्ण जगत की आत्मा मैं अपने इन आत्मरूप रुद्र का ही पूजन करता हूँ। जो रुद्र को जानता है, वह मुझे जानता है। जो रुद्र का भजन करता है, वह मेरा भजन करता है। रुद्र और नारायण रूप से एक ही मैं– दो रूप धारण किये हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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