पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
83. भीष्म पर अनुग्रह
मार्ग में समन्तक-पञ्चक क्षेत्र पड़ा। श्रीकृष्ण ने उन पांचों सरोवरों की उत्पत्ति, परशुराम का इक्कीस बार पृथ्वी के क्षत्रियों का संहार करके इनको उनको रक्त से भरने की बात बतलायी। युधिष्ठिर के पूछने पर मार्ग में उन्हें पूरा परशुराम-चरित सुनाया। ओघवती नदी के परम पावन तट के समीप भीष्म को शरशय्या पर पड़े दूर से देखते ही सब रथों से उतर गये। समीप आकर पहिले वहाँ बैठे महर्षियों को प्रणाम किया, फिर भीष्म के चारों ओर बैठ गये। श्रीकृष्ण भीष्म के चरणों के समीप जाकर खड़े हो गये और बोले- 'आपका मन स्वस्थ तो है? मनुष्य को द्विविध दु:ख होते हैं, तन का दु:ख और मन का दु:ख। आपका शरीर तो शरोंसे विद्ध है ही; किन्तु मन का दु:ख बहुत प्रबल होता है। शरीर के कष्ट की उपेक्षा की जा सकती है, लेकिन मन की पीड़ा असह्य होती है। वैसे मनुष्य शरीर में चुभे छोटे-से काँटे का कष्ट भी कठिनाई से सह पाता है। अत: जो शरशय्या पर पड़ा है, उसकी पीड़ा का क्या पूछना; किन्तु आप असाधारण व्यक्ति हैं। शरीर का कष्ट प्रारब्ध–प्राप्त है, इसे समझते हैं। शरीर से मन को तटस्थ रखने में समर्थ हैं। आपका ज्ञान अनन्त हैं। पूर्ण स्वस्थ, रोगहीन शरीर पाकर सहस्त्रों स्त्रियों मध्य रहते हुए आप ऊर्ध्वरेता रहे हैं। आपके समान सत्यवादी, धर्मात्मा, शूर, पराक्रमी दूसरा त्रिभुवन में सुना भी नहीं गया। आप स्वभाव-सिद्ध मृत्यु को भी रोक देने में समर्थ हुए। आप समस्त सद्गुणों के स्वरूप, वेद-वेदांग आदि शास्त्रों के परम ज्ञाता हैं। अत: आपसे मेरा एक निवेदन है।' श्रीकृष्ण अधिक समीप पहुँच गये। उनके स्वर बहुत विनम्र था– 'वे पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर अपने स्वजनों के विनाश से बहुत दु:खी हैं। आप जैसे भी हो– इनका शोक दूर कीजिये। आपको समस्त शास्त्रों में जो कुछ है वह रहस्य-सहित ज्ञात है। योग, सांख्य तथा सब वर्णाश्रमों के व्यवहार के विषय में आप पूर्ण परिचित हैं। इतिहास-पुराणों का पूरा अर्थ आप जानते हैं। संसार में सन्देहग्रस्त विषयों समाधान आपके समान करने वाला दूसरा नहीं है। अत: आप युधिष्ठिर को समझाइये।' भीष्म ने तनिक-सा सिर उठाया। इतना भी उनके लिए बहुत कष्ट साध्य था। हाथ जोड़कर स्तुति करते बोले– 'श्रीकृष्ण ! मैं तुम्हारी ही स्तवन कर रहा था और तुम मुझ असमर्थ को दर्शन देने स्वयं उपस्थित हो गये। दयामय ! आपकी अनुकम्पा से जानता हूँ कि सचराचर सम्पूर्ण सृष्टि आपका ही स्वरूप है। इसके स्रष्टा, पालक, संहर्ता आप ही हैं। श्रुति आपका नि:श्वास है। सर्वरूप होकर भी आप सबसे परे हैं। सबके परमाश्रय आप पुरुषोत्तम को मैं प्रणाम करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज