पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
81. युधिष्ठिर का अनुताप
इसमें सन्देह नहीं कि अर्जुन, युधिष्ठिर की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान, श्रद्धालु तथा श्रेष्ठ अधिकारी थे। अकारण श्रीकृष्ण ने उन्हें सखा के रूप में नहीं अपनाया था। धर्म की प्रतिष्ठा धर्मराज में ही भले हो; किन्तु स्वजनों का वध सम्मुख देखकर जो संताप अर्जुन के मन में युद्धारम्भ में ही जागा था, वही संताप युधिष्ठिर के मन में सब की मृत्यु के पश्चात शवों की राशि, सहस्त्रों जलती चिताएँ तथा लाख-लाख विधवा स्त्रियों को देखकर जागा। कुरुक्षेत्र के रणस्थल-श्मशान-स्थल कहना अधिक उपयुक्त है– से लौटकर युधिष्ठिर अत्यन्त व्याकुल हो गये। उस मरण-भूमि में उन शोकोन्मत्त विधवा महिलाओं से मिले उपालम्भ-वचनों ने बाणों के समान उनके मर्म को विद्ध कर डाला था। अब अपने स्वजनों के संहार के पश्चात राज्य, सम्पत्ति, सुख किसी में कोई रस नहीं रह गया था। युधिष्ठिर को शान्ति पाने का एक ही मार्ग उचित लगता था कि वन में जाकर तप करते हुए शरीर को सुखा दिया जाये। यह प्रायश्चित सफल हो या असफल, दूसरा मार्ग दीखता नहीं था। युधिष्ठिर वन में चले जाये तो उनके भाइयों में कोई भी नगर में रहकर राज्य-पालन करने को प्रस्तुत नहीं था। वे सभी सदा से अग्रज के पदानुगामी रहे थे और युद्ध में परपक्ष के संहार में उनमें किसने कमी रखी थी कि धर्मराज को प्रायश्चित की आवश्यकता है तो उसे नहीं है। युधिष्ठिर कभी भाइयों की स्थिति पर विचार न करने वालों में रहे हैं। उन्होंने सदा अपने सम्बन्ध में, अपने कर्तव्य को लेकर ही सोचा है। अत: इस समय भी उनकी व्याकुलता का आधार अपना अपराध-ज्ञान ही था। वृद्ध अन्धे धृतराष्ट्र तथा नेत्रों पर पट्टी बाँधे रहने वाली महासती गान्धारी- इन दोनों के सब पुत्र मारे गये। इनको सहारा, सहायता का मिलना आवश्यक है। लाख-लाख अनाथ, विधवायें जो अनाश्रिता हो गयी हैं, उनका पालन होना चाहिये। देश के अधिकांश राज्यों के राजा, युवा राजकुमार तथा सैनिक मारे जा चुके। वहाँ अव्यवस्था न उत्पन्न हो, प्रजा दस्युओं से उत्पीड़ित न हो, यह इस समय सबसे बड़ा कर्त्तव्य सिर पर आ गया है, इन सब बातों की ओर युधिष्ठिर का ध्यान नहीं था। जैसे युद्धारम्भ में अर्जुन मोहग्रस्त होकर कर्तव्य-विस्मृत हो गया था, अब युधिष्ठिर शोक संतृप्त होकर कर्तव्य भूल बैठे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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