पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
79. गान्धारी का शाप
गांधारी के मन में भी कम क्रोध नहीं था पाण्डवों के प्रति; किंतु भगवान व्यास ने उसे समझाया। उसने भी भीमसेन के प्रति ही अधिक आक्रोश प्रकट किया; क्योंकि भीमसेन ने दुर्योधन को अन्यायपूर्वक मारा था; किंतु जब भीम ने कहा- 'मैंने यह काम इसलिए किया कि आपका पुत्र मुझे मार ही न डाले। वह सदा हमें दु:ख देता रहा था और मैंने तभी उसकी जंघा तोड़ने की प्रतिज्ञा की थी, जब सभा में द्रौपदी को उसने जाँघ दिखायी थी।' भीमसेन की विनय तथा स्पष्टीकरण किसी पुत्रहीना माता के शोक को कैसे समाप्त कर देते। जिसके सौ पुत्र थे, उनमें-से एक भी शेष नहीं रहा, उसे क्रोध नहीं आवेग? उसने क्रुद्ध स्वर में कहा- 'राजा युधिष्ठिर कहाँ है?' युधिष्ठिर यहाँ इतनी विधवाओं का आर्तनाद सुनकर, उनका उलाहना पाकर स्वयं बहुत व्यथित थे। वे हाथ जोड़े सामने आकरा बोले- 'देवि ! आपके पुत्रों का संहार कराने वाला क्रूरकर्मा युधिष्ठिर आपके सामने है। पृथ्वी के सब राजाओं का विनाश कराके राज्य चाहने वाला यह अधम आपके शाप का पात्र है। मैं अपने सुहृदों का शत्रु हूँ। अपने ही स्वजनों को मरवाकर अब मुझे राज्य, सुख या जीवन, किसी की भी इच्छा नहीं है। आप मुझे शाप दें।' गान्धारी क्रोध के कारण लम्बी श्वास ले रही थी। उसने पट्टी में भीतर नेत्र खोल लिये थे। युधिष्ठिर उसके चरणों में गिरना चाहते थे, तभी गान्धारी की दृष्टि उनके हाथ के नखों पर पड़ी। इससे उनके सुन्दर नख काले पड़ गये। यह देखकर अर्जुन भय के कारण श्रीकृष्ण के पीछे हो गये। भीमसेन, नकुल, सहदेव भी छिपने लगे। इस प्रकार पाण्डु-पुत्रों का भयातुर होना लक्षित करके गान्धारी को दया आ गयी। उसने सबको आश्ववासन दिया। इसके अनन्तर सब माता कुन्ती के समीप गये। देवी कुन्ती पाण्डव जब वन में गये थे, तब से ही हस्तिनापुर में ही थीं। युद्धकाल में भी वे वहीं थीं। वर्षों के पश्चात इतनी विपत्ति भोगकर युद्ध में विजयी पुत्र मिले थे; किन्तु यह विजय भी नीरस, उल्लासहीन हो चुकी थी। द्रौपदी, सुभद्रादि पुत्र-वधुएं अपने पुत्रों के मारे जाने से शोककातरा थीं। चारों ओर जो सहस्त्रश: विधवाएं क्रन्दन कर रही थीं, वे भी अपने ही स्वजनों की स्त्रियाँ थीं। देवी कुन्ती का हृदय भर आया था। वे अंचल से मुख ढककर बार-बार फूटकर रो उठती थीं। पुत्रों ने साश्रु नेत्र माता को प्रणाम किया तो उन्होंने भी सबके अंगों पर स्नेहवश बार-बार हाथ फेरा। सबके ही अंग शस्त्रों के आघात से आहत थे। पुत्र-वधुओं ने भी कुन्ती को प्रणाम किया और सब फफककर रो पड़ीं। इस व्यथा के समय गान्धारी ने समझाया– 'तुम सब मेरी ओर देखो ! जैसी तुम हो, वैसी ही मैं पुत्रहीना हूँ। अब कौन किसे धैर्य दे। यह सब कालकी ही प्रेरणा से हुआ। तुम सब यही मानकर सन्तोष करो कि मेरे अपराध से इस श्रेष्ठ कुल का संहार हुआ।' इसी समय भगवान व्यास की आज्ञा से महाराज धृतराष्ट्र तथा श्रीकृष्ण को आगे करके सब पाण्डव वहाँ एकत्र स्त्रियों को लेकर युद्धभूमि की ओर चल पड़े। वहाँ उन विधवाओं ने अपने पति, पिता, भाई, पुत्र आदि का शव देखा तो दिशायें उनके चीत्कार से भर गयीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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