पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
77. अश्वत्थामा को शाप
अचानक उत्तरा दौड़ती हुई आयी और श्रीकृष्ण के सम्मुख पृथ्वी पर गिर पड़ी। यह शील, सौजन्य की साक्षात्मूर्ति ! अभी महाभारत युद्ध के पूर्व ही विवाह हुआ था उसका और युद्ध में विधवा हो गयी। बालिका उत्तरा अवश्य सती हो गयी होती; किन्तु भगवान व्यास ने रोक दिया था उसे यह कहकर कि उसके उदर में अभिमन्यु का अंश है। अब तो उत्तरा का यह गर्भ ही पाण्डु के वंश का बीज था। द्रौपदी के सब पुत्र मारे ही जा चुके थे। पाण्डवों का दूसरी पत्नियों से भी कोई वंशधर नहीं बचा था। 'शरण ! शरणागत वत्सल शरण !' बड़ी कठिनाई से जिसे द्रौपदी और सुभद्रा किसी प्रकार उग्रतम व्रतों से बचाती थीं, वह सबकी स्नेहभाजना, श्वेतवस्त्रा, आभरणहीना, कृशकाय उत्तरा उत्तरा स्वर में पुकारती आई और चरणों के सम्मुख भूमि पर गिर पड़ी। 'मा भै: !' श्रीकृष्ण का मेघ गम्भीर स्वर गूंजा और उनका दाहिना हाथ उत्तरा के ऊपर छाया करता फैल गया। उत्तरा उठी। अत्यन्त भय-विह्लव होकर उसने पीछे देखा और चीत्कार कर उठी- 'यह प्रज्वलित बाण ! यह मेरे उदर की ओर ही आ रहा है। शरणदाता ! आप मेरे स्वामी की इस धरोहर को बचा लें ! उत्तरा को मरने का भय नहीं है। यह अधमा तो मरकर धन्य ही होगी। अपने आराध्य के चरणों में पहुँचेगी; किन्तु यह बाण- यह तो उनके इस अंश को भस्म करने आ रहा है !' वह बाण दूसरे किसी को दीख नहीं रहा था। वह तो अश्वत्थामा का ब्रह्मशिरास्त्र था- दिव्यतम अस्त्र। केवल उत्तरा उसे देख रही थी। लेकिन श्रीकृष्ण के अभय हस्त के फैलते ही उसे लगा कि वह बाण उसके उदर में प्रविष्ट हो गया है। एक भयंकर जलन – असहनीय ज्वाला; किन्तु केवल क्षणार्ध के लिये। श्रीकृष्ण ने कमल-लोचन बन्द किये, कुछ ध्यानस्थ से हुए और उत्तरा को लगा कि उसके उदर में उठी ज्वाला शान्त हो गयी है। उत्तरा का सर्वांग अदभुत तेज से उदभासित हो उठा। उसका वह हीन, खिन्न वदन, वह मुरझाया मन क्षणार्ध में परिवर्तित हो गया। उसे लगा कि उसके भीतर आनन्द का अपार श्रोत फूट पड़ा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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