पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
74. पाण्डव-परित्राण
पाण्डवों की रक्षा का कार्य अभी समाप्त नहीं हुआ था। सच तो यह है कि शरणागत की रक्षा का कार्य श्रीकृष्ण का कभी न समाप्त हुआ, न होगा। प्राणी अपने अज्ञान के कारण जानता ही नहीं कि कब कौन सी आपत्ति आने वाली है; किन्तु जिसने उन सर्वज्ञ के श्रीचरणों का आश्रय ले लिया है, उसकी रक्षा के लिये तो वे सदा सावधान है। शिविर पहुँचते ही श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा- 'अपने मंगल के लिए आज की रात हम लोगों को यहाँ से बाहर ही रहना चाहिए।' 'अच्छी बात' बिना तर्क किये अच्युत का आदेश मान लेने में ही मंगल है, यह पाण्डव समझते थे। सात्यकि, श्रीकृष्ण और युधिष्ठिरादि पांचों भाइयों ने वह रात्रि ओधवती नदी[1] के किनारे व्यतीत की। ओधवती नदी के किनारे पहुँचकर युधिष्ठिर ने कहा- 'माधव ! देवी गांधारी सती हैं और सम्पूर्ण जीवन उन्होंने तपस्या की है। वे चाहें तो शाप देकर त्रिभुवन को नष्ट कर दे सकती हैं। भीमसेन ने उनके सब पुत्र को मार दिये हैं और दुर्योधन को तो अन्यायपूर्वक मारा है, यह उन्होंने सुन ही लिया होगा। उनको आपके अतिरिक्त दूसरा कोई शांत नहीं कर सकता। वे क्रोध में आकर हम सबको नष्ट कर दे सकती हैं। इस समय भगवानन व्यास वहीं होंगे। आपही इस विपत्ति से वहाँ जाकर हमें बचावें।' राज्य की राजधानी तो हस्तिनापुर ही थी; किंतु नगर-प्रवेश से पूर्व आवश्यक था कि देवी गांधारी की ओर से आश्वत हो जाया जाय। श्रीकृष्णचंद्र ने दारुक को बुलाकर अपना रथ प्रस्तुत कराया। वे रात्रि के प्रारम्भ में ही हस्तिनापुर पहुँचे। धृतराष्ट्र को अपने आगमन की सूचना देकर राज-सदन में उन्होंन में प्रवेश किया। भगवान व्यास उस समय वहीं थे। श्रीकृष्ण ने व्यास जी, धृतराष्ट्र तथा गान्धारी चरणों में प्रणाम किया। धृतराष्ट्र का हाथ पकड़कर वे दयामय फूट-फूटकर देर तक रोते रहे। व्यासजी ने उन्हें आश्वासन दिया। तब जल लेकर नेत्र धोकर, आचमन करके धृतराष्ट्र से बोले- 'काल ने जो कुछ किया, आपसे अविदित नहीं है। पाण्डु पुत्र तो सदा से आपके आज्ञानुवर्ती रहे हैं। उन्होंने बहुत प्रयत्न किया इस कुल को विनाश से बचाने का। वे निर्दोष थे, फिर भी उन्हें कपट-द्यूत में लगाकर वनवास दिया गया। उन्होंने असमर्थ पुरुषों के समान भटकते हुए अनेक कष्ट सहे। अज्ञातवास भी पूरा हो गया तो मैं स्वयं युद्ध टालने आपकी सेवा में उपस्थित हुआ और केवल पांच गांव मैंने मांगे; किन्तु मेरी प्रार्थना ठुकरा दी गयी। यह कालकी ही प्रेरणा थी कि आप भी उस समय लोभ में आ गये। भीष्म, द्रोणाचार्य,कृपाचार्य, विदुर, सोमदत्त, वाह्लीक आदि सबने आपको बहुत समझाया, वे सब संधि के लिये प्रार्थना करते रहे; किन्तु आपने किसी का कहना नहीं माना। युद्ध प्रारम्भ हो गया, तब भी आप सावधान नहीं हुए। काल इसी प्रकार मनुष्य को मोहान्ध कर देता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ कुरुक्षेत्र से कुछ ही दूर स्थित यह नदी परम पवित्र है; किन्तु उसे सरस्वती भ्रमवश कहा ही जाता है। 'पञ्चनद्य: सरस्वत्य:' पांच नदियों का नाम सरस्वती है।
- बद्रीनाथ से उपर माना गाँव के पास
- एक ब्रज में जहाँ नन्दबाबा को अजगर ने पकड़ा था।
- सिद्धपुर में
- द्वारिका में
- प्रयाग में गुप्त अन्त:सलिला।
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