पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
73. अर्जुन का रथ भस्म
श्रीकृष्ण के कहते ही सब समन्तक पञ्चक क्षेत्र से उठकर अपने-अपने रथों पर बैठे और कौरव-शिविर की ओर चल पड़े। श्रीकृष्ण को अभी सारथ्य करना था अर्जुन के रथ का। उनके साथ पाण्डव अपने रथों पर थे। पाण्डवों के पीछे सात्यकि, धृष्टद्युम्न, शिखंडी, द्रौपदी के पुत्र तथा अन्य योधा थे। सब अपने शंख बजा रहे थे। सब में बड़ा उत्साह था। कौरव-शिविर श्रीहीन, शान्त था। युधिष्ठिर से अनुमति लेकर युयुत्सु वहाँ से रानियों तथा अन्य लोगों को पहिले ही राजधानी हस्तिनापुर ले गया था। वहाँ शिविर को सविधि विजेता पाण्डवों को सौंपने के लिए कुछ वृद्ध मन्त्री बैठे थे। अन्त:पुर के रक्षक नपुंसक थे और दुर्योधन के सेवक थे जो हाथ जोड़े, मलिनवस्त्र पहने शिविर से बाहर पंक्तिबद्ध खड़े थे। वहाँ पहुँचकर सबके रथ रुके। श्रीकृष्ण ने अर्जुन का कपिध्वज नन्दिघोष रथ दूसरे रथों से कुछ दूर पृथक खड़ा किया। राजा युधिष्ठिर तथा अन्य रथों के लोग नीचे उतर पड़े। सब आश्चर्य से देखने लगे अर्जुन के रथ की ओर, क्योंकि श्रीकृष्ण अभी रथ पर ही बैठे थे। सदा का नियम है कि सारथि पहले रथ से उतरता है और रथी को हाथ का सहारा देकर उतारता है। अब तक श्रीकृष्ण इस नियम का बराबर पालन करते आ रहे थे। आज उन्होंने कहा- 'अर्जुन ! आज तुम पहिले रथ से उतर जाओ ! अपना धनुष और अक्षय त्रोण भी साथ ले लो !' 'अच्छी बात !' अर्जुन ने अपने सखा की बात स्वीकार कर ली। श्रीकृष्ण अकारण ऐसी बात नहीं करते, यह वे जानते थे। यह उन्हें अवश्य लगा कि कुछ अकल्पनीय घटित होने वाला है। उनके ये लीलामय मित्र कुछ करने वाले हैं; किन्तु ये जो कुछ करेंगे, उसमें अपना हित ही होगा, इसमें कहने-सोचने की तो कुछ बात नहीं है। 'यहाँ नहीं, यहाँ से थोड़ी दूर हटकर खड़े हो !' अर्जुन रथ पर से उतरकर धनुष लिये समीप खड़े त्रोण बांधने लगे तो श्रीकृष्ण ने कहा- 'संशक होने की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें शस्त्र–सज्ज नहीं होना पड़ेगा।' अर्जुन के दूर हटते ही रथ-रश्मि छोड़कर रथ से कूदे और अर्जुन के पास जाकर खड़े हो गये। इसी समय पूरे रथ में से ज्वालाएँ उठने लगीं। रथ के ध्वज-दण्ड के समीप बैठा दिव्य वानर श्रीकृष्ण के कूदते ही आकाश में उछलकर अन्तर्हित हो गया था। उस विशाल रथ के सब उपकरण- पहिये, धुरी, जुआ आदि अश्वों के साथ ही कुछ ही पलों में भस्म हो गये। वहाँ पृथ्वी पर उसकी भस्ममात्र रह गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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