पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
72. श्रीबलराम का कोप-शमन
श्रीसंकर्षण का प्रिय शिष्य था दुर्योधन ! उसकी कटि से नीचे प्रहार करके भीम ने उसकी जंघा तोड़ दी, यह देखकर श्रीबलराम उठे और दोनों हाथ उठाकर बोले- 'धिक्कार है ! धिक्कार है भीमसेन को ! गदा युद्ध का साधारण सर्वमान्य नियम है कि नाभि से नीचे प्रहार न किया जाय; किन्तु भीम तो मूर्ख है। यह किसी नियम को जानता-मानता नहीं। यह मनमानी करता है।' दुर्योधन की ओर देखकर, उसकी दुर्दशा के कारण उन दयामय की आँखें क्रोध से अंगार के समान लाल हो उठीं। वे अपने अनुज से बोले- 'कृष्ण ! दुर्योधन मेरे समान ही बलवान है। यहाँ अन्यायपूर्वक उसे गिराकर मेरा भी अपमान किया गया है। शरणागत के साथ किया गया अपराध शरण दाता का भी तिरस्कार है।' इतना कहकर उन्होंने अपना दाहिना हाथ ऊपर उठाया। स्मरण करते ही उसमें उनका आयुध हल आ गया। उसे लेकर वे भीमसेन की ओर दौड़े। भीमसेन ने सिर झुका लिया था। पाण्डवों में-से कोई कुछ कहने या करने की स्थति में नहीं था। सब भयातुर हो उठे थे। 'आर्या ! आप मेरी प्रार्थना पहिले सुन लें !' श्रीकृष्णचन्द्र ने आगे आकर बड़े भाई को दोनों भुजाओं में भरकर रोक लिया। फिर उनके सम्मुख बहुत विनम्र होकर बोले- 'आप स्वयं पाण्डवों के पक्ष में थे जब अन्यायपूर्वक इन्हें कपट-द्यूत में हराकर वन में भेज दिया गया था। बुआ कुन्ती का विस्मरण आपको नहीं करना चाहिए। भीमसेन ने उस सभा-भवन में सबके सामने दुर्योधन की दुष्टता से क्रुद्ध होकर प्रतिज्ञा की थी कि यह जो जांघे वस्त्रहीन करके द्रौपदी को दिखा रहा है, उन्हें मैं अपनी गदा से तोड़ दूँगा। सत्पुरुष अपनी प्रतिज्ञा पूरी करते हैं। यह क्षत्रिय का धर्म है। महर्षि मैत्रेय ने भी दुर्योधन के अपमान से रुष्ट होकर शाप दिया था- 'भीम तेरी जाँघे गदा से तोड़ देगा।' उनका शाप अन्यथा तो नहीं हो सकता था। आप बहिन सुभद्रा को भी इस समय भूल गये हैं। वह दुःखिया क्या सदा पितृ गृह रहेगी ? अतः आप शान्त हो जायँ।' अपने अनुज के आगे इन अनन्त का आवेश कभी टिका नहीं है। श्रीकृष्ण को सम्मुख देखकर क्रोध नहीं किया जा सकता। वे भुजा फैलाकर रोके तो इनको एक ओर कर देना सम्भव नहीं है। इनकी उपेक्षा इनका तिरस्कार तो स्वप्न में भी सोचा नहीं जा सकता। श्रीबलराम का हल उठाने वाला हाथ नीचे आ गया। नेत्रों की अरुणिमा घटने लगी। स्वर बहुत कुछ साधारण हो चला। इनसे अधिक कौन समझेगा कि श्रीकृष्ण जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसे मार देना तो दूर, किञ्चित कष्ट देना भी किसी की शक्ति-सीमा में नहीं है। लेकिन अभी रोष गया नहीं था। बोले- 'भीमसेन ने धर्म को विकृत करके अर्थ और काम को भी दूषित कर दिया है और तुम उनका पक्ष लेते हो ?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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