पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
7. पाण्डव ही क्यों
श्रीकृष्णचन्द्र ने पाण्डवों को ही क्यों चुना अपनी कृपा का पात्र बनाने के लिए। उनकी अनेक बुआ थीं और उनमें-से कई के पुत्र बहुत प्रतापी थे। शिशुपाल, दन्तवक्र, विन्द-अनुविन्द उनकी बुआ के ही पुत्र थे और वृद्धशर्मा के पुत्र सन्तर्दन तो उनके भक्त भी थे।
जहाँ तक पराक्रम की बात थी जरासन्ध राजाओं का अग्रणी था और अन्त में तो उसने वासुदेव का प्रभाव लगभग स्वीकार कर लिया था। शिशुपाल को वह अपना पुत्र मानता था। श्रीकृष्णचन्द्र चाहते तो मगधराज से सन्धि कर लेना उनके लिए कठिन नहीं था। बाहर के व्यक्तियों को न भी देखा जाय तो द्वारिका में ही क्या कम शक्तिशाली थे। उनके अग्रज श्रीसंकषर्ण थे और दिग्विजयी प्रद्युम्न उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। उनके पौत्र अनिरुद्ध ने भी दिग्विजय की थी। इन दोनों में कोई भी पुन: दिग्विजय कर सकता था। युधिष्ठिर के द्वारा राजसूय यज्ञ कराके उन्हें सम्राट बनाया श्रीकृष्णचन्द्र ने। यह सम्राट पद वे महाराज उग्रसेन को भी तो दे सकते थे। यहाँ उन पुरुषोत्तम का स्वभाव समझने की आवश्यकता है। उनके लिए अपना-पराया तो कोई है नहीं। सब उनकी सृष्टि हैं। सब उनकी सन्तति हैं। सब उनके अपने ही स्वरूप हैं। उनका अवतार हुआ था भूभार-हरण के लिए, धर्म की स्थापना के लिए और सत्पुरुषों पर अनुग्रह के लिए। उस समय पृथ्वी पर धर्मराज का दो रूपों में अवतरण हुआ था- विदुर और युधिष्ठिर। इसमें से विदुर न राज्याधिकारी थे, न इसमें उनकी प्रवृत्ति थी। धर्म राज्य की स्थापना युधिष्ठिर को सिंहासनासीन करके ही की जा सकती थी और महाभारत का युद्ध भूभार-हरण का प्रधान माध्यम बना। भगवान भक्त वत्सल हैं और उसके हैं जो उन पर ही सर्वथा निर्भर हो। जो सब ओर से अनाश्रय, असहाय हो गया हो और उन अनाथनाथ के हाथों में अपने को पूर्णत: छोड़ दे, उसी को वे अपना बना लेते हैं और स्वयं उसके अपने हो जाते हैं। पिता तपोवन में परलोक वासी हो गये। अकेली माता पाँच बालकों को लेकर हस्तिनापुर में आयी तो उसे स्वागत-सम्मान के स्थान पर उत्कट स्पर्धा प्राप्त हुई। धृतराष्ट्र के पुत्रों को पाण्डवों का आना बहुत अप्रिय लगा। धृतराष्ट्र राजा थे और अपने पुत्रों के वश में होकर उनकी कुटिलताओं के समर्थक बन गये थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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