पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
52. भक्त वत्सल
रात्रि के प्रथम प्रहर में पाण्डव, वृष्णि तथा सृंजयों की बैठक युधिष्ठिर ने बुलायी। भीष्म के अमानवीय पराक्रम को देखते यह आवश्यक हो गया था कि आगे के कर्तव्य का विचार कर लिया जाय। राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा- 'अच्युत ! आप महात्मा भीष्म के भयंकर पराक्रम को देखते ही है। प्रज्वलित अग्नि के समान वे हमारे वीरों को बराबर भस्म कर रहे हैं और हम उनकी ओर आंख उठाकर देखने का साहस भी नहीं कर पाते। युद्ध में वज्रधर इन्द्र और यमराज को भी जीता जा सकता है किन्तु भीष्म पर विजय पाना असम्भव जान पड़ता है। ऐसी अवस्था में संग्राम प्रारम्भ करके मैं शोक-सागर में डूब रहा हूँ। मेरे कारण मेरे भाइयों ने सदा से कष्ट पाया है और अब वाणों से आहत हो रहे हैं। मैं जीवन को बहुत मूल्यवान मानता हूँ। मुझ पर प्रेम रखने वाले स्वजन प्रतिदिन बड़ी संख्या में मारे जायं, यह मुझे सहन नहीं हो रहा है। मैं वन में जाकर तप करने में ही अपना कल्याण देखता हूँ। जीवन के जीतने दिन शेष हैं उनमें अब धर्म का ही आचरण करना चाहता हूँ। यदि आप अपना कृपापात्र हमें समझते हों तो अब ऐसा उपाय बतलाइये कि हमारा हित हो और हमारे धर्म में बाधा न आवे।' श्रीकृष्ण अपने पर ही आश्रित को निराश, हताश देख नहीं पाते। उनको अपने प्रण, अपने स्वरूप की मर्यादा मिटाने में क्षण भी नहीं लगता किन्तु उनके आश्रित का मुख उदास हो, यह असह्य है उन्हें। उनकी सुदीर्घ दृग भर आये। बोले- 'आप अकारण विषाद न करें। आपके भाई अजेय हैं और शत्रुओं का संहार करने वाले हैं, नकुल, सहदेव भी प्रबल पराक्रमी हैं। अर्जुन और भीम तो अग्नि और वायु के समान अदम्य हैं।' अर्जुन की ओर उपालम्भ पूर्ण दृष्टि से देखते हुए वे भक्तवत्सल बोले- 'आपके भाई आपको पूर्ण प्रयत्न करते न लगते हों तो आप मुझे युद्ध करने में नियुक्त कर दें। मैं आपका आज्ञानुवर्ती हूँ। आपकी आज्ञा से मैं युद्ध करूंगा। यदि अर्जुन की इच्छा नहीं है तो भीष्म को मैं मार दूंगा। जो पाण्डवों का शत्रु है, वह मेरा भी शत्रु है। जो आपके हैं, वे मेरे हैं। जो मेरे हैं, वे आपके हैं। आपके लिए मैं प्रतिज्ञा तो क्या प्राण भी त्याग सकता हूँ। अर्जुन ने उपप्लव्य में सब लोगों के समाने भीष्म का वध करने की प्रतिज्ञा की थी। मुझे उसका पालन करना है। अर्जुन के लिए भीष्म को मारना बहुत सरल है और ये अनुमति दें तो मैं इसे कल कर दूंगा। अर्जुन उद्यत हों तो युद्ध में इन्हें, दैत्य, दानव, देवता, मिलकर भी पराजित नहीं कर सकते, भीष्म की तो गणना ही क्या है।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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