पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. गीतोपदेश
व्यक्ति का अहंकार है कि वह कर्ता है। प्रत्येक प्राणी अपने ही प्रारब्ध के अनुसार सुख दु:ख का भोग करता है और सबकी मृत्यु एवं मृत्यु का हेतु भी निश्चित है। जगत का संचालक एक समर्थ, सर्वज्ञ, ईश्वर है – इसे मानकर भी हम जब अपने या अन्य के पाप-पुण्य का करणीय अकरणीय का विचार करते हैं तो इसके मूल में कर्तृत्वाभिमान अथ च अज्ञान ही होता है। ‘पश्यतान कुरुनिति’ भगवान श्रीकृष्ण ने कहा – ‘इन कुरुओं को – करने वालों को, कर्तृंत्व के अभिमानियों को देखो।’ अर्जुन स्वयं भी अभी उसी भूमिका में था अत: उसे वहाँ सब अपने सगे सम्बन्धी ही दिखाई पड़े। वह उनके संहार का कल्पना से ही अत्यन्त अवसन्न हो उठा। अर्जुन ने कहा – ‘कार्पण्य दोहोपहत स्वभाव:’ कृपणता के दोष से मेरा स्वभाव उपहत हो गया है। श्रीकृष्ण ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने प्रारम्भ ही किया - ‘क्लैव्यं मास्म गम: पार्थ अर्जुन ! नपुंसक मत बनो। यह तुम्हारा कार्पण्य नहीं, नपुंसकता है। पुरुष को देश, काल, परिस्थिति तथा अपनी योग्यता के अनुसार प्राप्त कर्तव्य का पालन अहंकार रहित होकर करना चाहिए। इसमें जब अपने अथवा दूसरों का मोह मध्य में आ जाता है तो व्यक्ति की बुद्धि सम्मूढ़ हो जाती है। यह ‘छुद्रं हृदय दौर्बल्यं’ ही है। शरीर में जैसे शैशव से कौमारावस्था, यौवन तथा वार्धक्य के परिवर्तन होते हैं, इनमें व्यक्ति स्वयं भी कुछ नहीं कर सकता, ये कर्मानुसार नैसर्गिक ही होते हैं, वैसे देहान्तर प्राप्ति भी कर्मानुसार प्राप्त होने वाली नैसर्गिक अवस्था ही है। इसमें भी व्यक्ति स्वयं अथवा दूसरे कुछ कर नहीं सकते। अब प्रश्न रहता है सुख-दु:ख का। ये सुख-दुख भी व्यक्ति को उसके कर्मानुसार ही प्राप्त होते हैं। इनमें दूसरे केवल निमित्त बनते हैं, वस्तुत: कारण नहीं होते और सुख-दुख केवल मात्र स्पर्श हैं, शरीर तथा शरीर के हेतुभूत तन्मात्राओं में तादात्म्य के कारण हैं। इनमें न सुख स्थायी है, न दु:ख। ये आने जाने वाले वेग हैं। जब इन्हें रोका नहीं जा सकता, कर्मानुसार इन्हें आना तथा जाना ही है तो इन्हें सहन करने का अभ्यास कर लिया जाना चाहिए। यह सुख-दुख जिसे विचलित नहीं करते, व्यथित नहीं करते, वह अमृतत्व को प्राप्त होता है। शरीर में जो चेतना है वह एक है, सर्वव्यापी है, सर्वाकारण कारण है। वह अविनाशी है। उसे कोई किसी प्रकार मार नहीं सकता और शरीर मरणधर्मा है। उसकी मृत्यु टाली नहीं जा सकती। अत: अनिवार्य मृत्यु के लिए शोक करना अनुचित है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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