पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
37. दुर्योधन का आतिथ्य अस्वीकार
वृकस्थल में प्रात:काल श्रीकृष्णचन्द्र उठे। नित्यकर्म से निवृत हुए। ब्राह्मणों से आज्ञा ली। जो ग्रामवासी साथ चल पड़े उन्हें प्रेम से विदा किया। गरुड़ध्वज रथ शीघ्र हस्तिनापुर के समीप पहुँचा। भीष्म, द्रोण, कृप तथा धृतराष्ट्र के सब पुत्र भली प्रकार सजधजकर सीमापार स्वागत को उपस्थित थे। बहुत से नगरवासी भी पैदल अथवा सवारियों पर बैठकर आये थे। मार्ग में ही ये लोग मिले। इनके साथ घिरे श्रीकृष्ण ने नगर में प्रवेश किया। नगर भली प्रकार सजाया गया था। मार्ग सुगन्धित जल से सिञ्चित था। स्थान-स्थान पर तोरण द्वार बने थे। अनेकों बहुमूल्य दर्शनीय वस्तुएँ कलापूर्ण ढंग से सज्जित थीं। उस दिन किसी घर में कोई बालक या वृद्ध टिका नहीं था। नारियाँ मार्ग के दोनों ओर छज्जों पर आ गयीं थीं। वाद्य बज रहे थे। शंख ध्वनि हो रही थी। भवनों पर-से लाजा, पुष्पादि की वर्षा हो रही थी। लोग हर्ष-विह्वल पुकार रहे थे – ‘भगवान वासुदेव की जय ! ‘श्रीकृष्ण की स्तुति कर रहे थे लोग और उनके रथ के सम्मुख प्रणिपात कर रहे थे। रथ आकर धृतराष्ट्र के राजभवन के द्वार पर रुका। श्रीकृष्ण ने उसके तीनों द्वार पार किये और राजा धृतराष्ट्र के समीप पहुँचे। धृतराष्ट्र ने उठकर उन श्रीद्वारिकाधीश का सत्कार किया। श्रीकृष्ण ने समीप जाकर भीष्म तथा धृतराष्ट्र जैसे गुरुजनों को प्रणाम किया। उपस्थित सभासदों से यथायोग्य मिले। उनके लिए वहाँ पहिले से ही एक स्वर्ण सिंहासन सजा था। धृतराष्ट्र के कहने से उस पर जाकर बैठ गये। धृतराष्ट्र ने स्वयं विदुर की सहायता से उनका पूजन किया। श्रीकृष्णचन्द्र वहाँ से उठे तो दुर्योधन भाइयों के समीप आ गया। उसने अपने भवन में पधारने की प्रार्थना की। उसके साथ वासुदेव भगवान उसके भवन में गये। वहाँ एकत्र सभी राजाओं तथा मन्त्रियों से यथायोग्य मिले। इसके पश्चात स्वर्ण के एक विशाल पलंग पर बैठ गये। दुर्योधन ने स्वागत-सत्कार के अनन्तर प्रार्थना की – ‘यहाँ आप इस भवन को अपना आवास बनावें और अब स्नाना आदि करके आहार ग्रहण करें।’ श्रीकृष्णचन्द्र ने हँसकर कह दिया – ‘राजन ! हम आपके इन स्वागत के शब्दों से सन्तुष्ट हुए। अब इस समय आप अनुमति दें।’ अब दुर्योधन ने कहा – ‘केशव ! हमने आपकी सुख-सुविधा को ध्यान में रखकर श्रमपूर्वक सब उत्तम सामग्री यहाँ प्रस्तुत की है। अत्युत्तम खाद्य, पेय, वस्त्र तथा शय्या आपको भेंट कर रहे हैं, आप इन्हें स्वीकार क्यों नहीं करते ? आपने दोनों पक्षों को सहायता दी है। आप दोनों पक्षों का हित करना चाहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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