पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
33. दूतत्व की प्रस्तुति
संजय के चले जाने पर युधिष्ठिर ने श्रीकृष्णचन्द्र से कहा - 'मित्रवत्सल ! हमें आपत्तियों से पार करने वाले परमाश्रय तो आप ही हैं। आपके सहारे ही हम निर्भय हैं। आपके बल पर ही हम अपना भाग दुर्योधन से माँगते हैं।' भगवान ने कहा - 'धर्मराज ! मैं तो आप की सेवा में उपस्थित ही हूँ। आप अपना अभिप्राय नि:संकोच सूचित करें। मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।' युधिष्ठिर भाव-विभोर हो उठे - ऐसा भक्तवश्य भगवान ! अपने को स्थिर करके उन्होंने कहा - 'आपने संजय की बात सुन ही ली। वह बात संजय की तो थी नहीं, वह तो दूत था। वह अपने स्वामी का अभिप्राय ही प्रकट कर रहा था। धृतराष्ट्र जी हमें अब हमारा स्वत्व देना नहीं चाहते हैं, यद्यपि हमने बहुत कष्ट सहन करके भी उनकी आज्ञा का ही पालन किया है। 'मेरी इच्छा युद्ध करने की नहीं है। इसी से मैंने दुर्योधन से केवल पाँच गाँव अविस्थल, वृकस्थल, माकन्दी, वारणावत और एक जो वे चाहें, इतना ही माँगा था किन्तु वह इतना भी देने को प्रस्तुत नहीं हैं। 'अब यह स्पष्ट हो गया है कि महाराज धृतराष्ट्र का हमारे साथ वयवहार सर्वथा कृत्रिम है। वे अपने पुत्रों के लिए हमारा स्वत्व भी हड़प लेना चाहते हैं। दुर्योधन की बुद्धि लोभ के कारण नष्ट हो गयी है। 'मेरा विचार प्रथम तो यह है कि हम कौरवों के साथ सन्धि करके शान्तिपूर्वक रहें और समान रूप से राज्यलक्ष्मी भोगें किन्तु यदि ऐसा नहीं होता तो अन्त में हमें यही करना होगा कि युद्ध में कौरवों को मारकर हम पूरा राज्य अधिकृत कर लें। 'मैं न राज्य त्याग करना चाहता हूँ, न कुल का नाश हो, यह मेरी इच्छा है। अत: यदि नम्रता दिखलाने से थोड़ा स्वत्व त्याग से भी सन्धि हो जाय तो उत्तम सन्धि न हुई तो युद्ध होगा ही। पराक्रम न करना अनुचित होगा। 'आप ही हमारे प्रिय तथा हितैषी हैं। इस संकट के समय हमें क्या करना चाहिए जिससे हम धर्म और अर्थ दोनों से वंचित न हों, इस विषय में आप ही हमारा मार्ग दर्शन करें।' श्रीकृष्णचन्द्र ने संक्षिप्त उत्तर दिया - 'मैं दोनों पक्षों का कल्याण करने की कामना लेकर कौरवों के पास जाऊँगा। यदि वहाँ आपके हित की किसी प्रकार हानि किये बिना सन्धि करा सका तो इसे अपना सबसे बड़ा पुण्य समझूँगा।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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