पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
32. श्रीकृष्ण के नाम-संजय की व्याख्या
संजय विराट नगर से लौट गये। उन्होंने पाण्डवों के बल-प्रभावादि की प्रशंसा की। दुर्योधन के पूछने पर अर्जुन के उस अग्नि से प्राप्त रथ नन्दिघोष का वर्णन सुनाया। धृतराष्ट्र के पूछने पर श्रीकृष्ण का अन्तिम सन्देश और मिलन का वर्णन संजय ने किया। संजय ने बतलाया – ‘आपका संदेश सुनाने के लिए मैं आपकी पैरों की अंगुलियों की ओर ही देखता हुआ, सिर झुकाये, हाथ जोड़े बड़ी सावधानी से उस अन्त:पुर में गया। वहाँ अभिमन्यु और नकुल-सहदेव भी नहीं जा सकते थे। मैंने देखा कि श्रीकृष्णचन्द्र दिव्य शय्यापर आधे लेटे हैं। उनके दोनों चरण अर्जुन ने अपनी गोद में ले रखे हैं। अर्जुन ने नीचे लटकते चरणों में एक द्रौपदी की गोद में है और एक सत्यभामा की गोद में है। मुझे देखकर अर्जुन ने मेरे बैठने के लिए एक स्वर्ण का पादपीठ अपने पैरों से ही मेरी ओर खिसका दिया। मैं उसे हाथ से ही स्पर्श करके वहीं पृथ्वी पर बैठ गया। वहाँ मुझे भोजन कराया गया। आहार-ग्रहण करके, आचमन करके, स्वस्थ बैठकर हाथ जोड़कर मैंने उन्हें आपका सन्देश सुनाया। ‘अर्जुन ने ही प्रणाम करके श्रीकृष्ण से उसका उत्तर देने की प्रार्थना की। तब वे हृषीकेश उठकर सीधे बैठ गये। उन्होंने मुझसे कहा – ‘संजय, तुम महाराज धृतराष्ट्र, पितामह भीष्म और आचार्य द्रोण से मेरा यह सन्देश कहना। सब बड़ों को मेरा प्रणाम निवेदन करना और छोटों को कहना कि मैंने उनका कुशल पूछा है। यह करके उनसे कहना – ‘तुम लोगों के सिर पर बहुत बड़ा संकट आ गया है, अत: जो भी यज्ञ, अनुष्ठान करने हों, कर लो। ब्राह्मणों को, सत्पात्रों को दान दे लो। स्त्री, पुत्रों के साथ कुछ दिन आनन्द भोग लो। द्रौपदी ने मुझे ‘गोविन्द’ कहकर जो कौरव सभा में पुकारा था वह ऋण मुझ पर बहुत बढ़ गया है। मैं एक क्षण को भी कृष्णा का वह कातर स्वर भूल नहीं पाता हूँ। जिस अर्जुन के साथ में हूँ, उसके साथ युद्ध करके कौन है जो काल का ग्रास बनने से बच सके ? विराट नगर में अकेले अर्जुन के सम्मुख आपके सब शूर संग्राम भूमि से भाग खड़े हुए थे। बल, वीर्य, शौर्य, तेज, स्फर्ति, हस्तकौशल, अविषाद और धैर्य – ये सभी गुण अर्जुन के अतिरिक्त किसी एक व्यक्ति में नहीं मिलते। अब उस धनंजय के गाण्डीव से छूटे शरों का स्वागत करने को प्रस्तुत रहो।’ संजय ने यह सन्देश सुनाया किन्तु दुर्योधन की बुद्धि तो काल ने भ्रान्त कर रखी थी। वह विदुर आदि किसी का कहना मानने, सुनने को भी प्रस्तुत नहीं था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज