पार्थ सारथि -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
28. द्रौपदी-सत्यभामा संवाद
श्रीकृष्णचन्द्र द्रौपदी के पुत्रों को भी द्वारिका ले आये थे पांचाल से। प्रद्युम्न उन्हें अभिमन्यु और अनिरुद्ध के साथ ही अस्त्र-शिक्षा देते थे। पाण्डव जब अनेक स्थानों पर घूमकर फिर काम्यक वन में आ गये तो अर्जुन के मित्र एक ब्राह्मण ने आकर संवाद किया – ‘श्रीद्वारिकाधीश यहा आने वाले हैं।’ इस वाद श्रीकृष्णचन्द्र महारानी सत्यभामा के साथ रथ में बैठे आये। बड़े हर्ष से पाण्डव उठे और यथोचित रीति से मिल। द्रौपदी और सत्यभामा गल लगकर मिलीं। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा – ‘धर्म का पालन राज्य प्राप्ति से बढकर बतलाया गया है। शास्त्र धर्म की प्राप्ति के लिए ही तपका उपदेश करते हैं। आपने सत्यभाषण तथा सरल व्यवहार के द्वारा इस लोक और परलोक दोनों पर विजय प्राप्त कर ली है। आप सब निष्काम भाव से शुभ कर्म करते हो, धन के लोभ से स्वधर्म का त्याग नहीं करते अत: आप में दान, सत्य, तप, श्रद्धा, बुद्धि, क्षमा, धैर्य आदि सब कुछ है। राज्य पाकर भी आप इन सदगुणों में स्थित रहे और विपत्ति में भी इनसे विचलित नहीं हुए, अत: नि:सन्देह आपकी सब कामनाएँ पूर्ण होंगी।’ जो धर्म के परमप्रभु हैं उनकी प्रसन्नता के लिए ही तो धर्माचरण की सार्थकता है, उनको सुप्रसन्न देखकर धर्मराज सब भाइयों के साथ आनन्दित हुए। श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को उनके पुत्रों का समाचार दिया – ‘याज्ञसेनि ! तुम्हारे सब पुत्र सुशील हैं। उनका धनुर्वेद सीखने में अनुराग है। वे द्वारिका में बहुत से मित्र पा गये हैं। उनके साथ सत्पुरुषों के आचार का पालन करते हुए प्रद्युम्न से अस्त्र-ज्ञान प्राप्त करने में उत्साहपूर्वक लगे हैं। युधिष्ठिर ने गदगद स्वर में कहा – ‘केशव ! पाण्डवों के आप ही आश्रय हैं। हम सब आपकी ही शरण में हैं। अब हमने वनवास के बारह वर्षों में-से अधिकांश घूम-फिरकर व्यतीत कर दिये हैं। आपकी कृपा से एक वर्ष अज्ञात रहकर काट देंगे और तब आपके आदेश का पालन करेंगे।’ इसी समय वहाँ कल्पान्त जीवी महर्षि मार्कण्डेय आ गये। पाण्डवों ने तथा श्रीकृष्ण ने प्रणिपात किया। विधिपूर्वक उनका पूजन किया। युधिष्ठिर के पूछने पर उन्होंने अनेक प्राचीन चरित सुनाये तथा श्रीकृष्ण के माहात्म्य का वर्ण किया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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