पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार

महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 123 के अनुसार पाण्डु पुत्रों के नामकरण संस्कार की कथा का वर्णन इस प्रकार है।[1]-

ऋषियों द्वारा पाण्डु पुत्रों का नामकरण

तदनन्‍तर शतश्रंग निवासी ऋषियों ने उन सबके नामकरण संस्‍कार किये। उन्‍हें आशीर्वाद देते हुए उनकी भक्ति और कर्म के अनुसार उनके नाम रक्‍खे। कुन्‍ती के ज्‍येष्ठ पुत्र का नाम युधिष्ठिर, मझले का नाम भीमसेन और तीसरे का नाम अर्जुन रक्‍खा गया। उन प्रसन्नचित्त ब्राह्मणों ने माद्री पुत्रों से जो पहले उत्‍पन्न हुआ, उसका नाम नकुल और दूसरे का सहदेव निश्चित किया। वे कुरुश्रेष्ठ पाण्‍डवगण प्रतिवर्ष एक-एक करके उत्‍पन्न हुए थे, तो भी देवस्‍वरुप होने के कारण पांच संवत्‍सरों की भाँति एक-से सुशोभित हो रहे थे। वे सभी महान् धैर्यशाली, अधिक वीर्यवान् महाबली और पराक्रमी थे। उन देवस्‍वरुप महा तेजस्‍वी पुत्रों को देखकर महाराज पाण्‍डु को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे आनन्‍द में मग्‍न हो गये। वे सभी बालक शतश्रंग निवासी समस्‍त मुनियों और मुनि पत्नियों के प्रिय थे।[1]

पाण्डु और कुन्ती का संवाद

तनदन्‍तर पाण्‍डु ने माद्री से संतान की उत्‍पत्ति कराने के लिये कुन्‍ती को पुन: प्रेरित किया। राजन्! जब एकान्‍त में पाण्‍डु ने कुन्‍ती वह बात कही, तब सती कुन्‍ती पाण्‍डु से इस प्रकार बोली- महाराज! मैंने इसे एक पुत्र के लिये नियुक्त किया था, किंतु इसने दो पा लिये। इससे मैं ठगी गयी। अब तो मैं इसके द्वारा मेरा तिरस्‍कार न हो जाय, इस बात के लिये डरती हूँ। खोटी स्त्रियों की ऐसी ही गति होती है। मैं ऐसी मूर्खा हूँ कि मेरी समझ में यह बात नहीं आयी कि दो देवताओं के आवाहन से दो पुत्र रुप फल की प्राप्ति होती है। अत: राजन्! अब मुझे इसके लिये आप इस कार्य में नियुक्त न कीजिये। मैं आपसे यही वर मांगती हूँ।

वसुदेव द्वारा पाण्डु पुत्रों के लिये वन में वस्त्राभुषण अस्त्र-शस्त्र आदि भेजना

इस प्रकार पाण्‍डु के देवताओं के दिये हुए पांच महाबली पुत्र उत्‍पन्न हुए, जो यशस्‍वी होने के साथ ही कुरुकुल की वृद्धि करने वाले और उत्तम लक्षणों से सम्‍पन्न थे। चन्‍द्रमा की भाँति उनका दर्शन सबको प्रिय लगता था। उनका अभिमान सिंह के समान था, वे बड़े-बड़े धनुष धारण करते थे। उनकी चाल-ढ़ाल भी सिंह के ही समान थी। देवताओं के समान पराक्रमी तथा सिंह की-सी गर्दन वाले वे नरश्रेष्ठ बढ़ने लगे। उस पुण्‍यमय हिमालय के शिखर पर पलते और पुष्ट होते हुए वे पाण्‍डु पुत्र वहाँ एकत्र[1] शतश्रंग निवासी तपस्‍वी मुनि पाण्‍डु के पुत्रों को जन्‍मकाल से ही संरक्षण में लेकर अपने औरस-पुत्रों की भाँति उनका लाड़-प्‍यार करते थे। उधर द्वारका में वसुदेव आदि सब वृष्णिवंशी राजा पाण्‍डु के विषय में इस प्रकार विचार कर रहे थे- अहो! राजा पाण्‍डु किंदम मुनि के शाप से भयभीत हो शतश्रृंग पर्वत पर चले गये हैं और वहीं ऋषि-मुनियों के साथ तपस्‍या में तत्‍पर हो पूरे तपस्‍वी बन गये हैं। वे शाक, मूल और फल भोजन करते हैं, तप में लगे रहते हैं, इन्द्रियों को काबू में रखते हैं और सदा ध्‍यानयोग का ही साधन करते हैं।[2] ये बातें बहुत-से संदेश बाहक मनुष्‍य बता रहे थे। यह समाचार सुनकर प्राय: सभी यदुवंशी उनके प्रेमी होने के नाते शोकमग्न रहते थे वे सोचते थे- कब हमें महाराज पाण्‍डु का शुभ संवाद सुनने को मिलेगा। एक दिन अपनेभाई-बन्‍धुओं के साथ बैठकर सब वृष्णिवंशी जब इस प्रकार पाण्‍डु के विषय में कुछ बातें कर रहे थे, उसी समय उन्‍होंने पाण्‍डु के पुत्र होने का समाचार सुना। सुनते ही सब-के-सब हर्षविभोर हो उठे और परस्‍पर सद्भाव प्रकट करते हुए वसुदेवजी से इस प्रकार बोले- वृष्णियों ने कहा- महायशस्‍वी वसुदेवजी! हम चाहते हैं कि राजा पाण्‍डु के पुत्र संस्‍कारहीन न हों; अत: आप पाण्‍डु के प्रिय और हित की इच्‍छा रखकर उनके पास किसी पुरोहित को भेजिये।। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! तब बहुत अच्‍छा कहकर वसुदेवजी ने पुरोहित को भेजा; साथ ही उन कुमारों के लिये उपयोगी अनेक प्रकार की वस्त्राभूषण-सामग्री भी भेजी।

पाण्डु पुत्रों का काश्यपन द्वारा संस्कार

कुन्‍ती और माद्री के लिये भी दासी, दास, वस्त्राभूषण आदि आवश्‍यक सामान, गौऐं, चांदी और सुवर्ण भिजवाये।। उन सब सामग्रियों को एकत्र करके अपने साथ ले पुरोहित ने वन को प्रस्‍थान किया। शत्रुओं की नगरी पर विजय पाने वाले राजा पाण्‍डु ने पुरोहित द्विजश्रेष्ठ काश्‍यप के आने पर उनका विधिपूर्वक पूजन किया। कुन्‍ती और माद्री ने प्रसन्न होकर वसुदेवजी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। तब पाण्‍डु ने अपने पुत्रों के गर्भाधान से लेकर चूडाकरण और उपनयन तक सभी संस्‍कार-कर्म करवाये। भारत! पुरोहित काश्‍यपन ने उनके सब संस्‍कार सम्‍पन्न किये।[2]

शुक द्वारा पाण्डु पुत्रों को धनुर्वेद की शिक्षा देना

बैलों के समान बड़े-बड़े नेत्रों वाले वे यशस्‍वी पाण्‍डव चूड़ाकरण और उपनयन के पश्चात् उपाकर्म करके वेदाध्‍ययन में लगे और उसमें पारंगत हो गये। भारत! शर्यातिवंशज के एक पुत्र पृषत् थे, जिनका नाम था शुक। वे अपने पराक्रम से शत्रुओं को संतप्त करने वाले थे। उन शुक ने किसी समय अपने धनुष के बल से जीतकर समुद्रपर्यन्‍त सारी पृथ्‍वी पर अधिकार कर लिया था। अश्वमेध- जैसे सौ बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान एवं सम्‍पूर्ण देवताओं तथा पितरों की आराधना करके परम बुद्धिमान् महात्‍मा राजा शुक शतश्रृंग पर्वत पर आकर शाक और फल–मूल का आहार करते हुए तपस्‍या करने लगे। उन्‍हीं तपस्‍वी नरेश ने श्रेष्ठ उपकरणों और शिक्षा के द्वारा पाण्‍डवों की योग्‍यता बढ़ायी। राजर्षि शुक के कृपा-प्रसाद से सभी पाण्‍डव धनुर्वेद में पारंगत हो गये। भीमसेन गदा-संचालन में पारंगत हुए और युधिष्ठिर तोमर फेंकने में। र्धयवान् और शक्तिशाली पुरुषों में श्रेष्ठ दोनों माद्री पुत्र ढाल-तलवार चलाने की कला में निपुण हुए। परंतप सव्‍यसाची अर्जुन धनुर्वेद के पारगामी विद्वान् हुए। राजन्! जब दाताओं में श्रेष्ठ शकु ने जान लिया कि अर्जुन मेरे समान धनुर्वेद के ज्ञाता हो गये, तब उन्‍होंने अत्‍यन्‍त प्रसन्न होकर शक्ति, खड्ग, बाण, ताड़ के समान विशाल अत्‍यन्‍त चमकीला धनुष तथा विपाठ, क्षुर एवं नाराच अर्जुन को दिये। विपाठ आदि सभी प्रकार के बाण गीध की पांखों से युक्त तथा अलंकृत थे। वे देखने में बड़े-बड़े सर्पों के समान जान पड़ते थे। इन सब अस्त्र-शस्त्रों को पाकर इन्‍द्र पुत्र अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अनुभव करने लगे कि भूमण्‍डल के कोई भी नरेश तेज में मेरी समानता नहीं कर सकते। शत्रुदमन पाण्‍डवों की आयु में परस्‍पर एक-एक वर्ष का अन्‍तर था। कुन्‍ती और माद्री दोनों देवियों के पुत्र दिन-दिन बढ़ने लगे। फि‍र तो जैसे जल में कमल बढ़ता है, उसी प्रकार कुरुवंश की वृद्धि करने वाले जो एक सौ पांच बालक हुए थे, वे सब थोड़े ही समय में बढ़कर सयाने हो गये।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 123 श्लोक 15-31
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 123 श्लोक 32

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की उत्पत्ति | पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार | पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण | ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना | पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार | पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ | दुर्योधन का भीम को विष खिलाना | भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना | भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता | नागलोक से भीम का आगमन | कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति | द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति | द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना | द्रोण की राजकुमारों से भेंट | भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना | द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा | एकलव्य की गुरु-भक्ति | द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा | अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध | द्रोण का ग्राह से छुटकारा | अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति | राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना | भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन | कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक | भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान | द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण | अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना | द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना | युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक | पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता | कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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