- महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 126 के अनुसार पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार की कथा का वर्णन इस प्रकार है।[1]-
विषय सूची
धृतराष्ट्र द्वारा विदुर को पाण्डु और माद्री के प्रेतकार्य कराने का आदेश
धृतराष्ट्र बोले- विदुर! राजाओं में श्रेष्ठ पाण्डु के तथा विशेषत: माद्री के भी समस्त प्रेतकार्य राजोचित्त ढंग से कराओ।। पाण्डु और माद्री के लिये नाना प्रकार के पशु, वस्त्र, रत्न और धन दान करो। इस अवसर पर जिनको जितना चाहिये, उतना धन दो। कुन्ती देवी माद्री का जिस प्रकार सत्कार करना चाहे, वैसी व्यवस्था करो। माद्री की अस्थियों को वस्त्रों से अच्छी प्रकार ढंक दो, जिससे उसे वायु तथा सूर्य भी न देख सकें। निष्पाप राजा पाण्डु शोचनीय नहीं, प्रशंसनीय हैं, जिन्हें देव कुमारों के समान पांच वीर पुत्र प्राप्त हुए हैं। वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! विदुर ने धृतराष्ट्र से तथास्तु कहकर भीष्मजी के साथ परम पवित्र स्थान में पाण्डु का अन्तिम संस्कार कराया। राजन्! तदनन्तर शीघ्र ही पाण्डु का दाह-संस्कार करने के लिये पुरोहित गण घृत ओर संगन्ध आदि के साथ प्रज्वलित अग्नि लिये नगर से बाहर निकले। इसके बाद वसन्त-ॠतु में सुलभ नाना प्रकार के सुन्दर पुष्पों तथा श्रेष्ठ गन्धों से एक शिविका (वैकुण्ठी) को सजाकर उसे सब ओर से वस्त्र द्वारा ढंक दिया। उसमें माद्री के साथ पाण्डु की अस्थियां भली-भाँति बांध कर रक्खी गयी थीं। मनुष्यों द्वारा ढोई जाने वाली ओर अच्छी तरह सजायी हुइ उस शिविका के द्वारा सभी बन्धु-बान्धव माद्री सहित नरश्रेष्ठ पाण्डु की अस्थियों को ढोने लगे। शिविका के ऊपर श्वेत छत्र तना हुआ था। चंवर डुलाये जा रहे थे। सब प्रकार के बाजो-गाजों से उसकी शोभा ओर भी बढ़ गयी थी। सैंकडों मनुष्यों ने उन महाराज पाण्डु के दाह-संस्कार के दिन बहुत-से रत्न लेकर याचकों को दिये। इसके बाद कुरुराज पाण्डु के लिये अनेक श्वेत छत्र, बहुतेरे बड़े-बड़े चंवर तथा कितने ही सुन्दर-सुन्दर वस्त्र लोग वहाँ ले आये। पुरोहित लोग सफेद वस्त्र धारण करके अग्निहोत्र की अग्नि में आहुति डालते जाते थे। वे अग्नियां माला आदि से अलंकृत एवं प्रज्वलित हो पाण्डु की पालकी के आगे चल रही थीं। सहस्रों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र शोक से संतप्त हो रोते हुए महाराज पाण्डु की शिविका के पीछे जा रहे थे। वे कहते जाते थे-हाय! ये महाराज हम लोगों को छोड़कर, हमें सदा के लिये भारी दु:ख में डालकर और हम सबको अनाथ करके कहाँ जा रहे हैं। समस्त पाण्डव, भीष्म तथा विदुरजी क्रन्दन करते हुए जा रहे थे। वन के रमणीय प्रदेश में गंगाजी के शुभ एवं समतल तट पर उन लोगों ने, अनायास ही महान् पराक्रम करने वाले सत्यवादी नर श्रेष्ठ पाण्डु और उनकी पत्नी माद्री की शिविका को रक्खा। तदनन्तर राजा पाण्डु की अस्थियों को सब प्रकार की सुगन्धों से सुवासित करके उन पर पवित्र काले अगर का लेप किया गया। फिर उन्हें दिव्य चन्दन से चर्चित करके सोने के कलशों द्वारा लाये हुए गंगा जल से भाई-बन्धुओं ने उसका अभिषेक किया। तत्पश्चात् उन पर सब ओर से काले अगर से मिश्रित तुगंरस नामक गन्ध–द्रव्य का एवं श्वेत चन्दन का लेप किया गया। इसके बाद उन्हें सफेद स्वदेशी वस्त्रों से ढक दिया गया।[1]
युधिष्ठिर द्वारा सम्पूर्ण विधि से दाह संस्कार
इस प्रकार बहुमूल्य शय्या पर शयन करने योग्य नरश्रेष्ठ राजा पाण्डु की अस्थियां वस्त्रों से आच्छादित हो जीवित मनुष्य की भाँति शोभा पाने लगीं। समस्त याजकों और पुरोहितों ने अश्वमेध की अग्नि से वेदोक्त विधि के अनुसार मन्त्रोच्चारण पूर्वक सारी क्रियाएं सम्पन्न कीं। याजकों की आज्ञा लेकर प्रेत कर्म आरम्भ करते समय माद्री सहित अलंकार युक्त राजा का घृत से अभिषेक किया गया। फिर तु्ंग ओर पद्यकमिश्रित सुगन्धित चन्दन तथा अन्य विविध प्रकार के गन्ध-द्रव्यों से भाई-बन्धुओं ने युधिष्ठिर द्वारा विधिपुर्वक उन दोनों का दाह-संस्कार कराया। उस समय उन दोनों की अस्थियों को देखकर माता कौसल्या (अम्बालिका) हापुत्र! हापुत्र! कहती हुई सहसा मुर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर पड़ी। उसे इस प्रकार शोकातुर हो भूमि पर पड़ी देख नगर और जनपद के लोग राजभक्ति तथा दया से द्रवित एवं दु:ख से संतप्त हो फूट- फूट कर रोने लगे। कुन्ती के आर्तनाद से मनुष्यों सहित समस्त पशु आदि भी करुणा क्रन्दन करने लगे। शन्तनुनन्दन भीष्म, परम बुद्धिमान् विदुर तथा सम्पूर्ण कौरव भी अत्यन्त दु:ख में निमग्न हो रोने लगे। तदनन्तर भीष्म, विदुर, राजा धृतराष्ट्र तथा पाण्डवों के सहित कुरु-कुल की सभी स्त्रियों ने राजा पाण्डु के लिये जलाञ्जलि दी। उस समय सभी पाण्डव पिता के लिये रो रहे थे। शन्तनुनन्दन भीष्म, विदुर तथा अन्य भाई-बन्धुओं की भी यही दशा थी। सबने जलाञ्जलि देने की क्रिया पूरी की। जलाञ्जलि दान करके शोक से दुर्बल हुए पाण्डवों को साथ ले मन्त्री आदि सब लोग स्वयं भी दु:खी हो उन सबको समझा-बुझाकर शोक करने से रोकने लगे। राजन्! बारह रात्रियों तक जिस प्रकार बन्धु-बान्धवों सहित पाण्डव भूमि पर सोये, उसी प्रकार ब्राह्मण आदि नागरिक भी धरती पर सोते रहे। उतने दिनों तक हस्तिनापुर नगर पाण्डवों के साथ आनन्द और हर्षोल्लास से शून्य रहा। बूढ़ों से लेकर बच्चे तक सभी वहाँ दु:ख में डूबे रहे। सारा नगर ही अस्वस्थ चित्त हो गया था।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
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वकवध पर्व
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| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
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| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
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चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
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| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
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| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
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वैवाहिक पर्व
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