- कौरवसभा में श्रीकृष्ण कहते हैं कि- "कौरवनरेश! इस समय इन दोनों पक्षों में संधि कराना आपके और मेरे अधीन है। आप अपने पुत्रों को मर्यादा में रखिए और मैं पांडवों को नियंत्रण में रखूँगा।" कृष्ण के कथनों का सभा में उपस्थित सभी राजाओं ने हृदय से आदर किया। वहाँ उसके उत्तर में कोई भी कुछ कहने के लिए अग्रसर न हो सका। अब सभा में उपस्थित परशुराम नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन के महत्त्व का वर्णन करते हैं, जिसका उल्लेख महाभारत उद्योग पर्व में भगवद्यान पर्व के अंतर्गत अध्याय 96 में निम्न प्रकार हुआ है[1]-
विषय सूची
परशुराम जी का दम्भोद्भव की कथा सुनाना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! महात्मा श्रीकृष्ण के ऐसी बात कहने पर सम्पूर्ण सभासद चकित हो गये। उनके अंगों में रोमांच हो आया। वे सब भूपाल मन-ही-मन यह सोचने लगे कि भगवान के इन वचनों का उत्तर कोई भी मनुष्य नहीं दे सकता है। इस प्रकार उन सब राजाओं के मौन ही रह जाने पर जमदग्निनंदन परशुराम ने कौरव सभा में इस प्रकार कहा- 'राजन! तुम नि:शंक होकर मेरी यह उदाहरण युक्त बात सुनो। सुनकर यदि इसे कल्याणकारी और उत्तम समझो तो स्वीकार करो। पूर्वकाल की बात है, दम्भोद्भव नाम से प्रसिद्ध एक सार्वभौम सम्राट इस सम्पूर्ण अखंड भूमंडल का राज्य भोगते थे, यह हमारे सुनने में आया है। वे महारथी और पराक्रमी नरेश प्रतिदिन रात बीतने पर प्रात: काल उठकर ब्राह्मणों और क्षत्रियों से इस प्रकार पूछा करते थे- क्या इस जगत में कोई ऐसा शस्त्रधारी शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण है, जो युद्ध में मुझसे बढ़कर अथवा मेरे समान भी हो सके? इसी प्रकार पूछते हुए वे राजा दम्भोद्भव महान गर्व से उन्मत्त हो दूसरे किसी को कुछ भी न समझते हुए इस पृथ्वी पर विचरने लगे उस समय सर्वथा निर्भय, उदार एवं विद्वान ब्राह्मणों ने बारंबार आत्मप्रशंसा करने वाले उन नरेश को मना किया। उनके मना करने पर भी वे ब्राह्मणों से बार-बार प्रश्न करते ही रहे। उनका अहंकार बहुत बढ़ गया था। वे धन-वैभव के मद से मतवाले हो गये थे। राजा को यही बारंबार प्रश्न दुहराते देख वेद के सिद्धान्त का साक्षात्कार करने वाले महामना तपस्वी ब्राह्मण क्रोध से तमतमा उठे और उनसे इस प्रकार बोले- राजन! दो ऐसे पुरुष रत्न हैं, जिन्होंने युद्ध में अनेक योद्धाओं पर विजय पायी है। तुम कभी उनके समान न हो सकोगे।
उनके ऐसा कहने पर राजा ने पुन: उन ब्राह्मणों से पूछा- वे दोनों वीर कहाँ हैं? उनका जन्म किस स्थान में हुआ है? उनके कर्म कौन-कौन से हैं और उनके नाम क्या हैं? ब्राह्मण बोले- भूपाल! हमने सुना है कि वे नर-नारायण नाम वाले तपस्वी हैं और इस समय मनुष्य लोक में आए हैं। तुम उन्हीं दोनों के साथ युद्ध करो। सुना है, वे दोनों महात्मा नर और नारायन गंधमादन पर्वत पर ऐसी घोर तपस्या कर रहे हैं, जिसका वाणी द्वारा वर्णन नहीं हो सकता। राजा को यह सहन नहीं हुआ। उन्होंने रथ, हाथी, घोड़े, पैदल, शकट और ऊंट इन छ: अंगों से युक्त विशाल सेना को सुसज्जित करके उस स्थान की यात्रा की, जहाँ कभी पराजित न होने वाले वे दोनों महात्मा विद्यमान थे। राजा उनकी खोज करते हुए दुर्गम एवं भयंकर गंधमादन पर्वत पर गये और वन में स्थित उन तपस्वी महात्माओं के पास जा पहुँचे। वे दोनों पुरुष रत्न भूख-प्यास से दुर्बल हो गये थे। उनके सारे अंगों में फैली हुई नस-नाड़ियाँ स्पष्ट दिखाई देती थीं। वे सर्दी-गर्मी और हवा का कष्ट सहते-सहते अत्यंत कृशकाय हो रहे थे।[1] निकट जाकर उनके चरणों में नमस्कार करके दम्भोद्भव ने उन दोनों का कुशल समाचार पूछा। तब नर और नारायण ने राजा का स्वागत-सत्कार करके आसान, जल और फल-मूल देकर उन्हें भोजन के लिए निमंत्रित किया। तदनंतर पूछा कि हम आपकी क्या सेवा करें? यह सुनकर उन्होंने अपना सारा वृतांत पुन: अक्षरश: सुना दिया। और कहा- 'मैंने अपने बाहुबल से सारी पृथ्वी को जीत लिया है तथा सम्पूर्ण शत्रुओं का संहार कर डाला है। अब आप दोनों से युद्ध करने की इच्छा लेकर इस पर्वत पर आया हूँ। यही मेरा चिरकाल से अभिलषित मनोरथ है। आप अतिथि-सत्कार के रूप में इसे ही पूर्ण कर दीजिये। नर-नारायण बोले- नृपश्रेष्ठ! हमारा यह आश्रम क्रोध और लोभ से रहित है। इस आश्रम में कभी युद्ध नहीं होता, फिर अस्त्र-शस्त्र और कुटिल मनोवृति का मनुष्य यहाँ कैसे रह सकता है? इस पृथ्वी पर बहुत-से क्षत्रिय हैं, अत: आप कहीं और जाकर युद्ध की अभिलाषा पूर्ण कीजिये।
परशुराम जी कहते हैं- भारत! उन दोनों महात्माओं ने बारंबार ऐसा कहकर राजा से क्षमा मांगी और उन्हें विविध प्रकार से सान्त्वना दी। तथापि दम्भोद्भव युद्ध की इच्छा से उन दोनों तापसों को कहते और ललकारते ही रहे। भरतनन्दन! तब महात्मा नर ने हाथ में एक मुट्ठी सींक लेकर कहा- 'युद्ध चाहने वाले क्षत्रिय! आ, युद्ध कर। अपने सारे अस्त्र-शस्त्र ले ले। सारी सेना को तैयार कर ले, कवच बांध ले, तेरे पास और भी जितने साधन हों, उन सबसे सम्पन्न हो जा। तू बड़े घमंड में आकर ब्राह्मण आदि सभी वर्ण के लोगों को ललकारता फिरता है; इसलिए मैं आज से तेरे युद्ध विषयक निश्चय को दूर किए देता हूँ।' दम्भोद्भव ने कहा- तापस! यदि आप यही अस्त्र हमारे लिए उपयुक्त मानते हैं तो मैं इसके होने पर भी आपके साथ युद्ध अवश्य करूंगा, क्योंकि मैं युद्ध के लिए ही यहाँ आया हूँ। परशुराम जी कहते हैं- ऐसा कहकर सैनिकों सहित दम्भोद्भव ने तपस्वी नर को मार डालने की इच्छा से सब ओर से उन पर बाणों की वर्षा आरंभ कर दी। उनके भयंकर बाण शत्रु के शरीर को छिन्न-भिन्न कर देने वाले थे, परंतु मुनि ने उन बाणों का प्रहार करने वाले दम्भोद्भव की कोई परवा न करके सींकों से ही उनको बींध डाला। तब किसी से पराजित न होने वाले महर्षि नर ने उनके ऊपर भयंकर ऐषीकास्त्र का प्रयोग किया, जिसका निवारण करना असंभव था। यह एक अद्भुत सी घटना हुई। इस प्रकार लक्ष्यवेध करने वाले नर मुनि ने माया द्वारा सींक के बाणों से ही दम्भोद्भव के सैनिकों की आँखों, कानों और नासिकाओं को बींध डाला। राजा दम्भोद्भव सींकों से भरे हुए समूचे आकाश को श्वेतवर्ण हुआ देखकर मुनि के चरणों में गिर पड़े और बोले- 'भगवन! मेरा कल्याण हो।' राजन! शरण चाहने वालों को शरण देने वाले भगवान नर ने उनसे कहा- 'आज से तुम ब्राह्मण हितैषी और धर्मात्मा बनो। फिर कभी ऐसा साहस न करना। नरेश्वर! नृपश्रेष्ठ! शत्रुनगर विजयी वीर पुरुष क्षत्रिय धर्म को स्मरण रखते हुए कभी मन से ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता, जैसा कि तुमने किया है।[2]
राजन! आज से फिर कभी घमंड में आकर अपने से बड़े या छोटे किन्हीं राजाओं पर किसी प्रकार भी आक्षेप न करना। इस बात के लिए मैंने तुम्हें सावधान कर दिया। भूपाल! तुम विनीतबुद्धि, लोभशून्य, अहंकार रहित, मनस्वी, जितेंद्रिय, क्षमाशील, कोमलस्वभाव और सौम्य होकर प्रजा का पालन करो। फिर कभी दूसरों के बलाबल को जाने बिना किसी पर आक्षेप न करना। मैंने तुम्हें आज्ञा दे दी, तुम्हारा कल्याण हो, जाओ। फिर ऐसा बर्ताव न करना। विशेषत: हम दोनों के कहने से तुम ब्राह्मणों से उनका कुशल-समाचार पूछते रहना।' तदनंतर राजा दम्भोद्भव उन दोनों महात्माओं के चरणों में प्रणाम करके अपनी राजधानी में लौट आए और विशेष रूप से धर्म का आचरण करने लगे।[3]
परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप अर्जुन और श्रीकृष्ण का महत्त्व बताना
इस प्रकार पूर्वकाल में महात्मा नर ने वह महान कर्म किया था। उनसे भी बहुत गुणों के कारण भगवान नारायण श्रेष्ठ हैं। अत: राजन! जब तक श्रेष्ठ धनुष गांडीव पर (दिव्य) अस्त्रों का संधान नहीं किया जाता, तब तक ही तुम अभिमान छोड़कर अर्जुन से मिल जाओ। काकुदीक (प्रस्वापन), शुक (मोहन), नाक (उन्मादन), अक्षिसंतर्जन (त्रासन), संतान (दैवत), नर्तक (पैशाच), घोर (राक्षस) और आस्यमोदक (याम्य)- ये आठ प्रकार के अस्त्र हैं। इन अस्त्रों से विद्ध होने पर सभी मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मान, मात्सर्य और अहंकार – ये क्रमश: आठ दोष बताए गए हैं, जिनके प्रतीकस्वरूप उपयुर्क्त आठ अस्त्र हैं। इन अस्त्रों के प्रयोग से कुछ लोग उन्मत्त हो जाते हैं और वैसी ही चेष्टाएँ करने लगते हैं। कितनों को सुध-बुध नहीं रह जाती, वे अचेत हो जाते हैं। कई मनुष्य सोने लगते हैं। कुछ उछलते-कूदते और छींकते हैं। कितने ही मल-मूत्र करने लग जाते हैं और कुछ लोग निरंतर रोते-हँसते रहते हैं।
राजन! सम्पूर्ण लोकों का निर्माण करने वाले ईश्वर एवं सब कर्मों के ज्ञाता नारायण जिनके बंधु [4] हैं, वे नरस्वरूप अर्जुन युद्ध में दु:सह हैं क्योंकि उन्हें उपर्युक्त सभी अस्त्रों का अच्छा ज्ञान है। भारत! युद्धभूमि में जिनकी समानता कोई भी नहीं कर सकता, उन विजयशील वीर कपिध्वज अर्जुन को जीतने का साहस तीनों लोकों में कौन कर सकता है? महाराज! अर्जुन में असंख्य गुण हैं एवं भगवान जनार्दन तो उनसे भी बढ़कर हैं। तुम भी कुंती के पुत्र अर्जुन को अच्छी तरह जानते हो। जो दोनों महात्मा नर और नारायण के नाम से प्रसिद्ध हैं, वे ही अर्जुन और श्रीकृष्ण हैं। तुम्हें यह ज्ञात होना चाहिए कि वे दोनों पुरुषरत्न सर्वश्रेष्ठ वीर हैं। भारत! यदि तुम इस बात को इस रूप में जानते हो और मुझ पर तुम्हें तनिक भी संदेह नहीं है तो मेरे कहने से श्रेष्ठ बुद्धि का आश्रय लेकर पांडवों के साथ संधि कर लो। भरतश्रेष्ठ! यदि तुम्हारी यह इच्छा हो कि हम लोगों में फूट न हो और इसी में तुम अपना कल्याण समझो, तब तो संधि करके शांत हो जाओ और युद्ध में मन न लगाओ। कुरुश्रेष्ठ! तुम्हारा कुल इस पृथ्वी पर बहुत प्रतिष्ठित है। वह उसी प्रकार सम्मानित बना रहे और तुम्हारा कल्याण हो, इसके लिए अपने वास्तविक स्वार्थ का ही चिंतन करो।[3]
टीका टिप्पणी व संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 96 श्लोक 1-18
- ↑ महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 96 श्लोक 19-34
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 96 श्लोक 35-52
- ↑ सहायक
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| संजय का धृतराष्ट्र को कृष्ण की महिमा बताना
| संजय द्वारा धृतराष्ट्र को कृष्णप्राप्ति एवं तत्त्वज्ञान का साधन बताना
| कृष्ण के विभिन्न नामों की व्युत्पत्तियों का कथन
| धृतराष्ट्र द्वारा भगवद्गुणगान
भगवद्यान पर्व
युधिष्ठिर का कृष्ण से अपना अभिप्राय निवेदन करना
| कृष्ण का शांतिदूत बनकर कौरव सभा में जाने का निश्चय
| कृष्ण का युधिष्ठिर को युद्ध के लिए प्रोत्साहन देना
| भीमसेन का शांति विषयक प्रस्ताव
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को उत्तेजित करना
| कृष्ण को भीमसेन का उत्तर
| कृष्ण द्वारा भीमसेन को आश्वासन देना
| अर्जुन का कथन
| कृष्ण का अर्जुन को उत्तर देना
| नकुल का निवेदन
| सहदेव तथा सात्यकि की युद्ध हेतु सम्मति
| द्रौपदी का कृष्ण को अपना दु:ख सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रौपदी को आश्वासन
| कृष्ण का हस्तिनापुर को प्रस्थान
| युधिष्ठिर का कुन्ती एवं कौरवों के लिए संदेश
| कृष्ण को मार्ग में दिव्य महर्षियों का दर्शन
| वैशम्पायन द्वारा मार्ग के शुभाशुभ शकुनों का वर्णन
| कृष्ण का मार्ग में लोगों द्वारा आदर-सत्कार
| कृष्ण का वृकस्थल पहुँचकर विश्राम करना
| दुर्योधन का कृष्ण के स्वागत-सत्कार हेतु मार्ग में विश्रामस्थान बनवाना
| धृतराष्ट्र का कृष्ण की अगवानी करके उन्हें भेंट देने का विचार
| विदुर का धृतराष्ट्र को कृष्णआज्ञा का पालन करने के लिए समझाना
| दुर्योधन का कृष्ण के विषय में अपने विचार कहना
| दुर्योधन की कुमन्त्रणा से भीष्म का कुपित होना
| हस्तिनापुर में कृष्ण का स्वागत
| धृतराष्ट्र एवं विदुर के यहाँ कृष्ण का आतिथ्य
| कुन्ती का कृष्ण से अपने दु:खों का स्मरण करके विलाप करना
| कृष्ण द्वारा कुन्ती को आश्वासन देना
| कृष्ण का दुर्योधन के भोजन निमंत्रण को अस्वीकार करना
| कृष्ण का विदुर के घर पर भोजन करना
| विदुर का कृष्ण को कौरवसभा में जाने का अनौचित्य बतलाना
| कृष्ण का कौरव-पांडव संधि के प्रयत्न का औचित्य बताना
| कृष्ण का कौरवसभा में प्रवेश
| कौरवसभा में कृष्ण का स्वागत और उनके द्वारा आसनग्रहण
| कौरवसभा में कृष्ण का प्रभावशाली भाषण
| परशुराम द्वारा नर-नारायणरूप कृष्ण-अर्जुन का महत्त्व वर्णन
| कण्व मुनि का दुर्योधन को संधि के लिए समझाना
| कण्व मुनि द्वारा मातलि का उपाख्यान आरम्भ करना
| मातलि का नारद संग वरुणलोक भ्रमण एवं अनेक आश्चर्यजनक वस्तुएँ देखना
| नारद द्वारा पाताललोक का प्रदर्शन
| नारद द्वारा हिरण्यपुर का दिग्दर्शन और वर्णन
| नारद द्वारा गरुड़लोक तथा गरुड़ की संतानों का वर्णन
| नारद द्वारा सुरभि तथा उसकी संतानों का वर्णन
| नारद द्वारा नागलोक के नागों का वर्णन
| मातलि का नागकुमार सुमुख के साथ पुत्री के विवाह का निश्चय
| नारद का नागराज आर्यक से सुमुख तथा मातलि कन्या के विवाह का प्रस्ताव
| विष्णु द्वारा सुमुख को दीर्घायु देना तथा सुमुख-गुणकेशी विवाह
| विष्णु द्वारा गरुड़ का गर्वभंजन
| दुर्योधन द्वारा कण्व मुनि के उपदेश की अवहेलना
| नारद का दुर्योधन से धर्मराज द्वारा विश्वामित्र की परीक्षा लेने का वर्णन
| गालव द्वारा विश्वामित्र से गुरुदक्षिणा माँगने के लिए हठ का वर्णन
| गालव की चिन्ता और गरुड़ द्वारा उन्हें आश्वासन देना
| गरुड़ का गालव से पूर्व दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से दक्षिण दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से पश्चिम दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ का गालव से उत्तर दिशा का वर्णन करना
| गरुड़ पर सवार गालव का उनके वेग से व्याकुल होना
| गरुड़ और गालव की तपस्विनी शाण्डिली से भेंट
| गरुड़ और गालव का ययाति के यहाँ आगमन
| ययाति द्वारा गालव को अपनी कन्या देना
| हर्यश्व का ययातिकन्या से वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना
| दिवोदास का ययातिकन्या से प्रतर्दन नामक पुत्र उत्पन्न करना
| उशीनर का ययातिकन्या से शिबि नामक पुत्र उत्पन्न करना
| गालव द्वारा ययातिकन्या को विश्वामित्र की सेवा में देना
| ययातिकन्या माधवी का वन में जाकर तपस्या करना
| ययाति का स्वर्ग में सुखभोग तथा मोहवश तेजोहीन होना
| ययाति का स्वर्गलोक से पतन
| ययाति के दौहित्रों तथा गालव द्वारा उन्हें पुन: स्वर्गलोक भेजने का प्रयास
| ययाति का फिर से स्वर्गारोहण
| स्वर्गलोक में ययाति का स्वागत
| नारद द्वारा दुर्योधन को समझाना
| धृतराष्ट्र के अनुरोध से कृष्ण का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्र का दुर्योधन को समझाना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को पुन: समझाना
| दुर्योधन द्वारा पांडवों को राज्य न देने का निश्चय
| कृष्ण का दुर्योधन को फटकारना
| कृष्ण द्वारा धृतराष्ट्र को दुर्योधन आदि को कैद करने की सलाह
| गांधारी का दुर्योधन को समझाना
| सात्यकि द्वारा दुर्योधन के षड़यंत्र का भंडाफोड़
| धृतराष्ट्र और विदुर का दुर्योधन को पुन: समझाना
| कृष्ण का विश्वरूप
| कृष्ण का कौरवसभा से प्रस्थान
| कुंती का पांडवों के लिये संदेश
| कुंती द्वारा विदुलोपाख्यान का प्रारम्भ
| विदुला का पुत्र को युद्ध हेतु उत्साहित करना
| विदुला और उसके पुत्र का संवाद
| विदुला द्वारा कार्य में सफलता प्राप्ति और शत्रुवशीकरण उपायों का निर्देश
| विदुला के उपदेश से उसके पुत्र का युद्ध हेतु उद्यत होना
| कुंती का संदेश तथा कृष्ण का उनसे विदा लेना
| भीष्म और द्रोण का दुर्योधन को समझाना
| द्रोणाचार्य का दुर्योधन को पुन: संधि के लिए समझाना
| कृष्ण का कर्ण को पांडवपक्ष में आने के लिए समझाना
| कर्ण का दुर्योधन के पक्ष में रहने का निश्चित विचार
| कर्ण द्वारा कृष्ण से समरयज्ञ के रूपक का वर्णन
| कृष्ण का कर्ण से पांडवपक्ष की निश्चित विजय का प्रतिपादन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से पांडवों की विजय और कौरवों की पराजय दर्शाने वाले लक्षणों का वर्णन
| कर्ण द्वारा कृष्ण से अपने स्वप्न का वर्णन
| कुंती का कर्ण के पास जाना
| कुंती का कर्ण से पांडवपक्ष में मिल जाने का अनुरोध
| कर्ण की अर्जुन को छोड़कर शेष पांडवों को न मारने की प्रतिज्ञा
| कृष्ण का युधिष्ठिर से कौरवसभा में व्यक्त किये भीष्म के वचन सुनाना
| कृष्ण द्वारा द्रोणाचार्य, विदुर तथा गांधारी के महत्त्वपूर्ण वचनों का वर्णन
| दुर्योधन के प्रति धृतराष्ट्र के युक्तिसंगत वचनों का वर्णन
| कृष्ण का कौरवों के प्रति दण्ड के प्रयोग पर जोर देना
सैन्यनिर्याणपर्व
पांडवपक्ष के सेनापति का चुनाव
| पांडव सेना का कुरुक्षेत्र में प्रवेश
| कुरुक्षेत्र में पांडव सेना का पड़ाव तथा शिविर निर्माण
| दुर्योधन द्वारा सेना को सुसज्जित होने और शिविर निर्माण का आदेश
| कृष्ण का युधिष्ठिर से युद्ध को ही कर्तव्य बताना
| युधिष्ठिर का संताप और अर्जुन द्वारा कृष्ण के वचनों का समर्थन
| दुर्योधन द्वारा सेनाओं का विभाजन और सेनापतियों का अभिषेक
| दुर्योधन द्वारा भीष्म का सेनापति पद पर अभिषेक
| युधिष्ठिर द्वारा अपने सेनापतियों का अभिषेक
| बलराम का पांडव शिविर में आगमन और तीर्थयात्रा के लिए प्रस्थान
| रुक्मी का सहायता हेतु पांडवों और कौरवों के पास आगमन
| धृतराष्ट्र और संजय का संवाद
उलूकदूतागमनपर्व
दुर्योधन का उलूक को दूत बनाकर पांडवों के पास भेजना
| पांडव शिविर में उलूक द्वारा दुर्योधन का संदेश सुनाना
| पांडवों की ओर से दुर्योधन को उसके संदेश का उत्तर
| पंडवों का संदेश लेकर उलूक का लौटना
| धृष्टद्युम्न द्वारा योद्धाओं की नियुक्ति
रथातिरथसंख्यानपर्व
भीष्म द्वारा कौरव पक्ष के रथियों और अतिरथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथियों का परिचय
| कौरव पक्ष के रथी, महारथी और अतिरथियों का वर्णन
| कर्ण और भीष्म का रोषपूर्वक संवाद
| भीष्म द्वारा पांडव पक्ष के रथी और उनकी महिमा का वर्णन
| पांडव पक्ष के महारथियों का वर्णन तथा विराट और द्रुपद की प्रशंसा
| पांडव पक्ष के रथी, महारथी एवं अतिरथी आदि का वर्णन
| भीष्म का शिखण्डी और पांडवों का वध न करने का कथन
अम्बोपाख्यानपर्व
भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का अपहरण
| अम्बा का भीष्म से शाल्वराज के प्रति अनुराग प्रकट करना
| अम्बा का शाल्व द्वारा परित्याग
| अम्बा और शैखावत्य संवाद
| होत्रवाहन तथा अकृतव्रण का आगमन और उनका अम्बा से वार्तालाप
| अकृतव्रण और परशुराम का अम्बा से वार्तालाप
| अम्बा और परशुराम का संवाद तथा अकृतव्रण की सलाह
| परशुराम और भीष्म का रोषपूर्ण वार्तालाप
| परशुराम और भीष्म का युद्ध हेतु कुरुक्षेत्र में उतरना
| परशुराम के साथ भीष्म द्वारा युद्ध प्रारम्भ करना
| परशुराम और भीष्म का घोर युद्ध
| भीष्म और परशुराम का युद्ध
| भीष्म को प्रस्वापनास्त्र की प्राप्ति
| भीष्म तथा परशुराम द्वारा शक्ति और ब्रह्मास्त्र का प्रयोग
| भीष्म और परशुराम के युद्ध की समाप्ति
| अम्बा की कठोर तपस्या
| अम्बा को महादेव से वरप्राप्ति तथा उसका चिता में प्रवेश
| अम्बा का द्रुपद का यहाँ जन्म और शिखण्डी नामकरण
| शिखण्डी का विवाह और दशार्णराज का कोप
| हिरण्यवर्मा के आक्रमण से द्रुपद का घबराना
| द्रुपद द्वारा नगररक्षा की व्यवस्था और देवाराधन
| शिखण्डिनी का वनगमन और स्थूणाकर्ण यक्ष से प्रार्थना
| शिखण्डी को पुरुषत्व की प्राप्ति
| स्थूणाकर्ण को कुबेर का शाप
| भीष्म का शिखण्डी को न मारने का निश्चय
| भीष्म आदि द्वारा अपनी-अपनी शक्ति का वर्णन
| अर्जुन द्वारा अपने सहायकों और युधिष्ठिर की शक्ति का परिचय देना
| कौरव सेना का रण के लिए प्रस्थान
| पांडव सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान
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