परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा

महाभारत शान्ति पर्व के ‘राजधर्मानुशासन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 49 के अनुसार परशुराम के उपाख्यान क्षत्रियों का विनाश तथा पुन: उत्पन्न होने की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

श्रीकृष्ण द्वारा परशुराम जी के जन्म की कथा

भगवान श्रीकृष्ण बोले-कुन्तीनन्दन! मैंने महर्षियो के मुख से परशुराम जी के प्रभाव, पराक्रम तथा जन्म की कथा जिस प्रकार सुनी है, वह सब आपको बताता हूँ, सुनिये। जिस प्रकार जगदग्निन्दन परशुराम ने करोड़ों क्षत्रियों का संहार किया था, पुनः जो क्षत्रिय राजवंशों में उत्पन्न हुए, वे अब फिर भारतयुद्ध में मारे गये। प्राचीन काल में जह्नुनामक एक राजा हो गये हैं, उनके पुत्र का नाम था अज। पृथ्वीनाथ! अज से बलाकाश्व नामक पुत्र का जन्म हुआ। बलाकाश्व के कुशिक नामक पुत्र हुआ। कुशिक बड़े धर्मज्ञ थे। वे इस भूतल पर सहनेत्रधारी इन्द्र के समान पराक्रमी थे। उन्होंने यह सोचकर कि मैं एक ऐसा पुत्र प्राप्त करूँ, जो तीनों लोकों का शासक होने के साथ ही किसी से पराजित न हो, उत्तम तपस्या आरम्भ की। उनकी भयंकर तपस्या देखकर और उन्हें शक्तिशाली पुत्र उत्पन्न करनें में समर्थ जानकर लोकपालों के स्वामी सहनेत्रों वाले पाकशासन इन्द्र स्वयं ही उनके पुत्र रूप में अवतीर्ण हुए। राजन्! कुशिक का वह पुत्र गाधिनाम से प्रसिद्ध हुआ।

सत्यवती और ऋचीक का संवाद

प्रभो! गाधि के एक कन्या थी, जिसका नाम था सत्यवती। राजा गाधि ने अपनी इस कन्या का विवाह भृगुपुत्र ऋचीक के साथ कर दिया। कुरुनन्दन! सत्यवती बड़े शुद्ध आचार-विचार से रहती थी। उसकी शुद्धता से प्रसन्न हो ऋचीक मुनि ने उसे तथा राजा गाधि को भी पुत्र देने के लिये चरू तैयार किया। भृगुवंशी ऋचीक ने उस समय अपनी पत्नी सत्यवती को बुलाकर कहा- यह चरू तो तुम खा लेना और यह दूसरा अपनी माँ को खिला देना। तुम्हारी माता के जो पुत्र होगा, वह अत्यन्त तेजस्वी एवं क्षत्रियशिरोमणि होगा। इस जगत् के क्षत्रिय उसे जीत नहीं सकेंगे। वह बडे-बडे क्षत्रियों का संहार करने वाला होगा। कल्याणि! तुम्हारे लिये जो यह चरू तैयार किया है, यह तुम्हें धैर्यवान, शान्त एवं तपस्यापरायण श्रेष्ठ ब्राह्मण पुत्र प्रदान करेगा। अपनी पत्नी से ऐसा कहकर भृगुनन्दन श्रीमान ऋचीक मुनि तपस्या में तत्पर हो जंगल में चले गये। इसी समय तीर्थयात्रा करते हुए राजा गाधि अपनी पत्नी के साथ ऋचीक के मुनि के आश्रम पर आये। राजन्! उस समय सत्यवती वह दोनों चरू लेकर शान्तभाव से माता के पास गयी और बड़े हर्ष के साथ पति की कही हुई बात को उससे निवेदित किया।
कुन्तीकुमार! सत्यवती की माता ने अज्ञानवश अपना चरू तो पुत्री को दे दिया और उसका चरू लेकर भोजन द्वारा अपने में स्थित कर लिया। तदनन्तर सत्यवती ने अपने तेजस्वी शरीर से एक ऐसा गर्भ धारण किया, जो क्षत्रियों का विनाश करने वाला था और देखने में बड़ा भयंकर जान पड़ता था। सत्यवती के गर्भगत बालक को देखकर भृगुश्रेष्ठ ऋचीक ने अपनी उस देवरूपिणी पत्नी से कहा- भद्रे! तुम्हारी माता ने चुरू बदलकर तुम्हें ठग लिया। तुम्हारा पुत्र अत्यन्त क्रोधी और क्रूरकर्म करने वाला होगा। परंतु तुम्हारा भाई ब्राह्मणस्वरूप् एवं तपस्या परायण होगा। तुम्हारे चरू में मैने सम्पूर्ण महान् तेज ब्रह्म की प्रतिष्ठा की थी और तुम्हारी माता के लिये जो चरू था, उसमें सम्पूर्ण क्षत्रियोचित बल पराक्रम का समावेश किया गया था, परंतु कल्याणि। चरू के बदल देने से अब ऐसा नहीं होगा। तुम्हारी माता का पुत्र तो ब्राह्मण होगा और तुम्हारा क्षत्रिय।[1] पति के ऐसा कहने पर महाभागा सत्यवती उनके चरणों में सिर रखकर गिर पड़ी और काँपती हुई बोली- प्रभो! भगवन्! आज आप मुझसे ऐसी बात न कहें कि तुम ब्राह्मणाधम पुत्र उत्पन्न करोगी। ऋचीक बोले- कल्याणि! मैंने यह सकंल्प नहीं किया था कि तुम्हारे गर्भ से ऐसा पुत्र उत्पन्न हो। परंतु चरू बदल जाने के कारण तुम्हें भयंकर कर्म करने वाले पुत्र को जन्म देना पड़ रहा है। सत्यवती बोली- मुने! आप चाहें तो सम्पूर्ण लोकों की नयी सृष्टि कर सकते है; फिर इच्छानुसार पुत्र उत्पन्न करने की तो बात ही क्या है? अतः प्रभो! मुझे तो शान्त एवं सरल स्वभाववाला पुत्र ही प्रदान कीजिये। ऋचीक बोले - भद्रे! मैंने कभी हास-परिहास में भी झूठी बात नहीं कही है; फिर अग्नि की स्थापना करके मन्त्रयुक्त चरू तैयार करते समय मैंने जो संकल्प किया है, वह मिथ्या कैसे हो सकता है? कल्याणि! मैंने तपस्या द्वारा पहले ही यह बात देख और जान ली है कि तुम्हारे पिता का समस्त कुल ब्राह्मण होगा। सत्यवती बोली - प्रभो! आप जप करने वाले ब्राह्मणों में सबसे श्रेष्ठ है, आपका और मेरा पौत्र भले ही उग्र स्वभाग हो जायः परंतु पुत्र तो मुझे शान्तस्वभाव का ही मिलना चाहिये।[2]

परशुराम का जन्म

ऋचीक बोले -सुन्दरी! मेरे लिये पुत्र और पौत्र में कोई अन्तर नहीं है। भद्रे! तुमने जैसा कहा है, वैसा ही होगा। श्रीकृष्ण बोले- राजन्! तदन्तर सत्यवती ने शान्त, संयमपरायण और तपस्वी भृगुवंशी जमदग्रि को पुत्र के रूप् में उत्पन्न किया। कुशिकनन्दन गाधि ने विश्वामित्र नामक पुत्र प्राप्त किया, जो सम्पूर्ण ब्राह्मणोचित गुणों से सम्पन्न थे और ब्रह्मर्षि पदवी को प्राप्त हुए। ऋचीक ने तपस्या के भंडार जमदग्रिकी को जन्म दिया और जमदग्रि ने अत्यन्त उग्र स्वभाव वाले जिस पुत्र को उत्पन्न किया, वहीं ये सम्पूर्ण विद्याओं तथा धनुर्वेद के पारंगत विद्वान प्रज्वलित अग्नि के समान तेजस्वी क्षत्रियहन्ता परशुरामजी है। परशुरामजी ने गन्धमादन पर्वत पर महादेव जी को संतुष्ट करके उनसे अनेक प्रकार के अस्त्र और अत्यन्त तेजस्वी कुठार प्राप्त किये। उस कुठार की धार कभी कुण्ठित नहीं होती थीं। वह जलती हुई आग के समान उद्दीप्त दिखायी देता था। उस अप्रमेय शक्तिशाली कुठार के कारण परशुरामजी सम्पूर्ण लोकों में अप्रतिम वीर हो गये।[2]

कृतवीर्य अर्जुन की कथा

इसी समय राजा कृतवीर्य का बलवान पुत्र अर्जुन हैहयवश्ं का राजा हुआ, जो एक तेजस्वी क्षत्रिय था। दत्तात्रेयजी की कृपा से राजा अर्जुन ने एक हजार भुजाएँ प्राप्त की थीं। वह महातेजस्वी चक्रवर्ती नरेश था। उस परम धर्मज्ञ नरेश ने अपने बाहुबल से पर्वतों और द्वीपों सहित इस सम्पूर्ण पृथ्वी को युद्ध में जीतकर अश्वमेध यज्ञ में ब्राह्मणों को दान कर दिया था। कुन्तीनन्दन! एक समय भूखे-प्यासे हुए अग्निदेव ने पराक्रमी सहस्रबाहु अर्जुन से भिक्षा माँगी और अर्जुन ने अग्नि को वह भिक्षा दे दी। तत्पश्चात् बलशाली अग्निदेव कार्तवीर्य अर्जुन के बाणों के अग्रभाग से गाँवों, गोष्ठों, नगरों और राष्ट्रों को भस्म कर डालने की इच्छा से प्रज्वलित हो उठे। उन्होंने उस महापराक्रमी नरेश कार्तवीर्य के प्रभाव से पर्वतों और वनस्पतियों को जलाना आरम्भ किया। हवा का सहारा पाकर उत्तरोत्तर प्रज्वलित होते हुए अग्निदेव ने हैहयराज को साथ लेकर महात्मा आपव के सूने एवं सुरम्य आश्रम को जलाकर भस्म कर दिया।[2] महाबाहु अच्युत! कार्तवीर्य के द्वारा अपने आश्रम के जला दिये जाने पर शक्तिशाली आपव मुनि को बडा रोष हुआ। उन्होंने कृतवीर्य पुत्र अर्जुन को शाप देते हुए कहा। अर्जुन! तुमने मेरे इस विशाल वन को भी जलाये बिना नहीं छोडा, इसलिये संग्राम में तुम्हारी इन भुजाओं को परशुराम जी काट डालेंगे।[3]

परशुराम द्वारा क्षत्रियों के विनाश का वर्णन

भारत! अर्जुन महातेजस्वी, बलवान, नित्य शान्ति परायण, ब्राह्मण भक्त शरणागतों को शरण देने वाला, दानी और शूरवीर था। अतः उसने उस समय उन महात्मा के दिये हुए शाप पर कोई ध्यान नहीं दिया। शापवश उसके बलवान पुत्र ही पिता के वध में कारण बन गये। भरतश्रेष्ठ !उस शाप के कारण सदा क्रूरकर्म करने वाले वे घमंडी राजकुमार एक दिन जमदग्नि मुनि की होमधेनु के बछडे को चुरा ले आये। उस बछड़े के लाये जाने की बात बुद्धिमान हैहयराज कार्तवीर्य को मालूम नहीं थी, तथापि उसी के लिये महात्मा परशुराम का उसके साथ घोर युद्ध छिड़ गया। राजेन्द्र! तब रोष में भरे हुए प्रभावशाली जमदग्निनन्दन परशुराम ने अर्जुन की उन भुजाओं को काट डाला और इधर-उधर घूमते हुए उस बछडे को वे हैहयों के अन्तः पुर से निकालकर अपने आश्रम में ले आये। नरेश्वर! अर्जुन के पुत्र बुद्धिहीन और मुर्ख थे। उन्होंने संगठित हो महात्मा जगदग्नि के आश्रम पर जाकर भल्लों के अग्रभाग से उनके मस्तक को धड से काट गिराया। उस समय यशस्वी परशुरामजी समिधा और कुशा लाने के लिये आश्रम से दूर चले गये थे। पिता के इस प्रकार मारे जाने से परशुराम के क्रोध की सीमा न रही। उन्होंने इस पृथ्वी को क्षत्रियों से सूनी कर देने की भीष्म प्रतिज्ञा करके हथियार उठाया। भृगुकुल के सिंह पराक्रमी परशुराम ने सहस्रों हैहयों का वध करके इस पृथ्वी पर रक्त की कीच मचा दी। इस प्रकार शीघ्र ही पृथ्वी को क्षत्रियों से हीन करके महातेजस्वी परशुराम अत्यन्त दया से द्रवित हो वन में ही चले गये।[3]

परावसु द्वारा परशुराम पर आक्षेप लागाना

तदनन्तर कई हजार वर्ष बीत जाने पर एक दिन वहाँ स्वभावतः क्रोधी परशुराम पर आक्षेप किया गया। महाराज! विश्वामित्र के पौत्र तथा रैभ्य के पुत्र महातेजस्वी परावसु ने भरी सभा में आक्षेप करते हुए कहा- राम! राजा ययाति के स्वर्ग से गिरने के समय जो प्रतर्दन आदि सज्जन पुरुष यज्ञ में एकत्र हुए थे, क्या वे क्षत्रिय नहीं थे? तुम्हारी प्रतिज्ञा झूठी है। तुम व्यर्थ ही जनता की सभा में डींग हाँका करते हो कि मैंने क्षत्रियों का अन्त कर दिया। मैं तो समझता हूँ कि तुमने क्षत्रिय वीरों के भय से ही पर्वत की शरण ली है। इस समय पृथ्वी पर सब और पुनः सैकडों क्षत्रिय भर गये है।[3]

परशुराम का पुन: शस्त्र उठाना

राजन्! परावसु की बात सुनकर भृगुवंशी परशुराम ने पुनः शस्त्र उठा लिया। पहले उन्होंने जिन सैकडों क्षत्रियों को छोड दिया था, वे ही बढकर महापराक्रमी भूपाल बन बैठे थे। नरेश्वर! उन्होंने पुनः उन सबके छोटे छोटे बच्चों तक को शीघ्र ही मार डाला। जो बच्चे गर्भ में रह गये थे, उन्हीं से पुनः यह सारी पृथ्वी व्याप्त हो गयी। परशुरामजी एक एक गर्भ के उत्पन्न होने पर पुनः उसका वध कर डालते थे। उस समय क्षत्राणियाँ कुछ ही पुत्रों को बचा सकी थी।[3]

कश्यप जी के आदेश से परशुराम का दूसरे देश में जाना

राजन्! तदनन्तर कुछ क्षत्रियों को बचाये रखने की इच्छा से कश्यपजी ने स्त्रुक लिये हुए हाथ से संकेत करते हुए यह बात कही- महामुने! अब तुम दक्षिण समुद्र के तट पर चले जाओ। अब कभी मेरे राज्य में निवास न करना।[3] (यह सुनकर परशुरामजी चले गये ) समुद्र ने सहसा जमदग्निकुमार परशुराम जी के लिये जगह ख़ाली करके शूर्पारक देश का निर्माण किया; जिसे अपरान्त भूमि भी कहते है।[4]

पृथ्वी द्वारा बचाये गये क्षत्रिय

महाराज! कश्यप ने पृथ्वी को दान में लेकर उसे ब्राह्मणों के अधीन कर दिया और वे स्वयं विशाल वन के भीतर चले गये। भरतश्रेष्ठ! फिर तो स्वेच्छाचारी वैश्य और शूद्र श्रेष्ठ द्विजों की स्त्रियों के साथ अनाचार करने लगे। सारे जीवनजगत में अराजकता फैल गयी। बलवान मनुष्य दुर्बलों को पीड़ा देने लगे। उस समय ब्राह्मणों में से किसी की प्रभुता कायम न रही। कालक्रम से दुरात्मा मनुष्य अपने अत्याचारों से पृथ्वी को पीड़ित करने लगे। इस उलट फेर से पृथ्वी शीघ्र ही रसातल में प्रवेश करने लगी; क्योंकि उस समय धर्मरक्षक क्षत्रियों द्वारा विधिपूर्वक पृथ्वी की रक्षा नहीं की जा रही थी। भय के मारे पृथ्वी को रसातल की ओर भागती देख महामनस्वी कश्यप ने अपने ऊरूओं का सहारा देकर उसे रोक दिया। कश्यपजी ने ऊरू से इस पृथ्वी को धारण किया था; इसलिये यह उर्वी नाम से प्रसिद्ध हुई। उस समय पृथ्वी देवी ने कश्यपजी को प्रसन्न करके अपनी रक्षा के लिये यह वर माँगा कि मुझे भूपाल दीजिये। पृथ्वी बोली- ब्राह्मण! मैंने स्त्रियों में कई क्षत्रियशिरोमणियों को छिपा रखा है। मुने! वे सब हैहयकुल में उत्पन्न हुए है, जो मेरी रक्षा कर सकते है। प्रभो! उनके सिवा पुरूवंशी विदूरथ का भी एक पुत्र जीवित है, जिसे ऋक्षवान पर्वत पर रीछों ने पालकर बड़ा किया है। इसी प्रकार अमित शक्तिशाली यज्ञपरायण महर्षि पराशर ने दयावश सौदास के पुत्र की जान बचायी है, वह राजकुमार द्विज होकर भी शूद्रों के समान सब कर्म करता है, इसलिये सर्वकर्मा नाम से विख्यात है। वह राजा होकर मेरी रक्षा करे। राजा शिबिका एक महातेजस्वी पुत्र बचा हुआ है, जिसका नाम है गोपति। उसे वन में गौओं ने पाल पोसकर बडा किया है। मुने! आपकी आज्ञा हो तो वही मेरी रक्षा करे। प्रतर्दन का महाबली पुत्र वत्स भी राजा होकर मेरी रक्षा कर सकता है। उसे गोशाला में बछडों ने पाला था, इसलिये उसका नाम वत्स हुआ है। दधिवाहन का पौत्र और दिविरथ का पुत्र भी गंगातट पर महर्षि गौतम के द्वारा सुरक्षित है। महातेजस्वी महाभाग बृहद्रथ महान ऐश्वर्य से सम्पन्न है। उसे गृध्रकूट पर्वत पर लंगूरों ने बचाया था। राजा मरुत के वंश में भी कई क्षत्रिय बालक सुरक्षित है, जिनकी रक्षा समुद्र ने की है। उन सबका पराक्रम देवराज इन्द्र के तुल्य है। ये सभी क्षत्रिय बालक जहाँ-तहाँ विख्यात है। वे सदा शिल्पी और सुनार आदि जातियों के आश्रित होकर रहते है। यदि वे क्षत्रिय मेरी रक्षा करें तो मैं अविचल भाव से स्थिर हो सकूँगी। इन बेचारों के बाप दादे मेरे ही लिये युद्ध अनायास ही महान् कर्म करने वाले परशुरामजी के द्वारा मारे गये है। महामुने! मुझे उन राजाओं से उऋण होने के लिये उनके इन वंशजों का सत्कार करना चाहिये। मै धर्म की मर्यादा को लाँघने वाले क्षत्रिय के द्वारा कदापि अपनी रक्षा नहीं चाहती। जो अपने धर्म में स्थित हो, उसी के संरक्षण में रहूँ, यही मेरी इच्छा है; अतः आप इसकी शीघ्र व्यवस्था करें।[4]

भूपालों का अभिषेक

श्रीकृष्ण कहते हैं-राजन्! तदनन्तर पृथ्वी के बताये हुए उन सब पराक्रमी क्षत्रिय भूपालों को बुलाकर कश्यपजी ने उनका भिन्न-भिन्न राज्यों पर अभिषेक कर दिया। उन्हीं के पुत्र-पौत्र बढे़, जिनके वंश इस समय प्रतिष्ठित हैं। पाण्डुनन्दन !तुमने जिसके विषय में मुझसे पूछा था, वह पुरातन वृतांत ऐसा ही हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं-राजन्! धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर से इस प्रकार वार्तालाप करते हुए यदुकुल-तिलक महात्मा श्रीकृष्ण उस रथ के द्वारा भगवान सूर्य के समान सम्पूर्ण दिशाओं में प्रकाश फैलाते हुए शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़ते चले गयें।[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 49 श्लोक 1-20
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 49 श्लोक 21-41
  3. 3.0 3.1 3.2 3.3 3.4 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 49 श्लोक 42-65
  4. 4.0 4.1 4.2 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 49 श्लोक 66-89

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राजधर्मानुशासन पर्व
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वृद्धि के उपाय | प्रजा से कर लेने तथा कोश संग्रह करने का प्रकार | राजा के कर्तव्य का वर्णन | उतथ्य का मान्धाता को उपदेश | राजा के लिए धर्मपालन की आवश्यकता | उतथ्य के उपदेश में धर्माचरण का महत्व | राजा के धर्म का वर्णन | राजा के धर्मपूर्वक आचार के विषय में वामदेवजी का वसुमना को उपदेश | वामदेव जी के द्वारा राजोचित बर्ताव का वर्णन | वामदेव के उपदेश में राजा और राज्य के लिए हितकर वर्ताव | विजयाभिलाषी राजा के धर्मानुकूल बर्ताव तथा युद्धनीति का वर्णन | राजा के छलरहित धर्मयुक्त बर्ताव की प्रशंसा | शूरवीर क्षत्रियों के कर्तव्य तथा सद्नति का वर्णन | इन्द्र और अम्बरीष के संवाद में नदी और यज्ञ के रूपों का वर्णन | समरभूमि में जुझते हुए मारे जाने वाले शूरवीरों को उत्तम लोकों की प्राप्ति का कथन | शूरवीरों को स्वर्ग और कायरों को नरक की प्राप्ति | सैन्यसंचालन की रीति-नीति का वर्णन | भिन्न-भिन्न देश के योद्धाओं का स्वभाव व आचरण के लक्षण | विजयसूचक शुभाशुभ लक्षणों व बलवान सैनिकों का वर्णन | शत्रु को वश में करने के लिये राजा का नीति से काम लेना | दुष्टों को पहचानने के विषय में इन्द्र और बृहस्पति का संवाद | राज्य, खजाना और सेना से वंचित क्षेमदर्शी राजा को कालकवृक्षीय मुनि का उपदेश | कालकवृक्षीय मुनि के द्वारा गये हुए राज्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न उपायों का वर्णन | कालकवृक्षीय मुनि का विदेहराज तथा कोसलराजकुमारों का मेल कराना | विदेहराज का कोसलराज को अपना जामाता बनाना | गणतन्त्र राज्य का वर्णन और उसकी नीति | माता-पिता तथा गुरु की सेवा का महत्त्व | सत्य-असत्य का विवेचन | धर्म के लक्षण व व्यावहारिक नीति का वर्णन | सदाचार और ईश्वरभक्ति को दु:खों से छुटने का उपाय | मनुष्य के स्वभाव की पहचान बताने वाली बाघ और सियार की कथा | तपस्वी ऊँट के आलस्य का कुपरिणाम और राजा का कर्तव्य | सरिताओं और समुद्र का संवाद | दुष्ट मनुष्य द्वारा की हुई निन्दा को सह लेने से लाभ | राजा तथा राजसेवकों के आवश्यक गुण | सज्जनों के चरित्र के विषय में महर्षि और कुत्ते की कथा | कुत्ते का शरभ की योनि से महर्षि के शाप से पुन: कुत्ता हो जाना | राजा के सेवक, सचिव आदि और राजा के गुणों व उनसे लाभ का वर्णन | सेवकों को उनके योग्य स्थान पर नियुक्त करने का वर्णन | सत्पुरुषों का संग्रह व कोष की देखभाल के लिए राजा को प्रेरणा देना | राजधर्म का साररूप में वर्णन | दण्ड के स्वरूप, नाम, लक्षण और प्रयोग का वर्णन | दण्ड की उत्पत्ति का वर्णन | दण्ड का क्षत्रियों कें हाथ में आने की परम्परा का वर्णन | त्रिवर्ग के विचार का वर्णन | पाप के कारण राजा के पुनरुत्थान के विषय में आंगरिष्ठ और कामन्दक का संवाद | इन्द्र और प्रह्लाद की कथा | शील का प्रभाव, अभाव में धर्म, सत्य, सदाचार और लक्ष्मी के न रहने का वर्णन | सुमित्र और ऋषभ ऋषि की कथा | राजा सुमित्र का मृग की खोज में तपस्वी मुनियों के आश्रम पर पहुँचना | सुमित्र का मुनियों से आशा के विषय में प्रश्न करना | ऋषभ का सुमित्र को वीरद्युम्न व तनु मुनि का वृतान्त सुनाना | तनु मुनि का वीरद्युम्न को आशा के स्वरूप का परिचय देना | ऋषभ के उपदेश से सुमित्र का आशा को त्याग देना | यम और गौतम का संवाद | आपत्ति के समय राजा का धर्म

आपद्धर्म पर्व

आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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