- महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 90 में नेवले का सेरभर सत्तूदान को अश्वमेध यज्ञ से बढ़कर बताने का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
नकुल-ब्राह्मण संवाद
नकुल बोला– ब्राह्मणों! कुरुक्षेत्र निवासी द्विज के द्वारा दिये गये न्यायोपार्जित थोड़े– से अन्न के दान का जो उत्तम फल देखने में आया है, उसे मैं आप लोगों को बतलाता हूँ। कुछ दिन पहले की बात है, धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में, जहाँ बहुत– से धर्मज्ञ महात्मा रहा करते हैं, कोई ब्राह्मण रहते थे। वे उंञ्छवृत्ति से अपना जीवन– निर्वाह करते थे। कबूतर के समान अन्न का दाना चुनकर लाते और उसी से कुटुम्ब का पालन करते थे। वे अपनी स्त्री, पुत्र और पुत्रवधू के साथ रहकर तपस्या में संलग्न थे। ब्राह्मण देवता शुद्ध आचार– विचार से रहने वाले धर्मात्मा और जितेन्द्रिय थे। वे उत्तम व्रतधारी द्विज सदा छठे काल में अर्थात तीन– तीन दिन पर ही स्त्री– पुत्र आदि के साथ भोजन किया करते थे।
यदि किसी दिन उस समय भोजन न मिला तो दूसरा छठा काल आने पर ही वे द्विजश्रेष्ठ अन्न ग्रहण करते थे। ब्राह्मणों सुनो। एक समय वहाँ बड़ा भयंकर अकाल पड़ा। उन दिनों उन धर्मात्मा ब्राह्मण के पास अन्न का संग्रह तो था नहीं, खेतों का अन्न भी सूख गया था। अत: वे सर्वथा निर्धन हो गये थे। बारंबार छठा काल आता; किन्तु उन्हें भोजन नहीं मिलता था। अत: वे सब– के– सब भूखे ही रह जाते थे। एक दिन ज्येष्ठ के शुक्ल पक्ष में दोपहरी के समय उस परिवार के सब लोग उंछ लाने के लिये चले। तपस्या में लगे वे ब्राह्मण देवता गर्मी और भूख दोनों से कष्ट पा रहे थे। भूख और परिश्रम से पीड़ित होने पर भी वे उंछ न पा सके।
उन्हें अन्न का एक दाना भी नहीं मिला ; अत: परिवार के सभी लोगो के साथ उसी तरह भूख से पीड़ित रहकर ही उन्होंने वह समय काटा। वे श्रेष्ठ ब्राह्मण बड़े कष्ट से अपने प्राणों की रक्षा करते थे। तदनन्तर एक दिन पुन: छठा काल आने तक उन्होंने सेर भर जौ का उपार्जन किया। उन तपस्वी ब्राह्मणों ने उस जौ का सत्तू तैयार किया और जप तथा नैत्यिक नियम पूर्ण करके अग्नि में विधि पूर्वक आहुति देने के पश्चात वे सब लोग एक – एक कुडव अर्थात एक– एक पाव सत्तू बांटकर खाने के लिये उद्यत हुए।[1]
वे भोजन के लिये अभी बैठे ही थे कि कोई ब्राह्मण अतिथि उनके यहाँ आ पहुँचा। उस अतिथि को आया देख वे मन– ही– मन बहुत प्रसन्न हुए। उस अतिथि को प्रणाम करके उन्होंने उससे कुशल– मंगल पूछा। ब्राह्मण– परिवार के सब लोग विशुद्ध चित्त, जितेन्द्रिय, श्रद्धालु, मन को वश में रखने वाले, दोष दृष्टि से रहित, क्रोधहीन, सज्जन, ईर्ष्यारहित और धर्मज्ञ थे। उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने अभिमान, मद और क्रोध को सर्वथा त्याग दिया था। क्षुधा से कष्ट पाते हुए उस अतिथि ब्राह्मण को अपने ब्रह्मचर्य और गौत्र का परस्पर परिचय देते हुए वे कुटी में ले गये। तत्पश्चात वहाँ उञ्छवृत्ति वाले ब्राह्मण ने कहा– ‘भगवान! अनघ! आपके लिये ये अर्ध्य, पाद्य और आसन मौजूद हैं तथा न्यायपूर्वक उपार्जित किये हुए ये परम पवित्र सत्तू आपकी सेवा में प्रस्तुत हैं।
सेरभर सत्तूदान को अश्वमेध यज्ञ से बढ़कर बताने का वर्णन
द्विजश्रेष्ठ! मैंने प्रसन्नतापूर्वक इन्हें आपको अर्पण किया है। आप स्वीकार करें।’ राजेन्द्र! ब्राह्मण के ऐसा कहने पर अतिथि ने एक पाव सत्तू लेकर खा लिया; परंतु उतने से वह तृप्त नहीं हुआ। उस उञ्छवृत्ति वाले द्विज ने देखा कि ब्रह्मण अतिथि तो अब भी भूखे ही रह गये हैं। तब वे उसके लिये आहार का चिन्तन करने लगे कि यह ब्राह्मण कैसे संतुष्ट हो? तब ब्राह्मण की पत्नी ने कहा– ‘नाथ! यह मेरा भाग इन्हें दे दीजिये, जिससे ये ब्राह्मण देवता इच्छानुसार तृप्ति लाभ करके यहाँ पधारें। अपनी पतिव्रता पत्नी की यह बात सुनिकर उन द्विज श्रेष्ठ ने उसे भूखी जानकर उसके दिये हुए सत्तू को लेने की इच्छा नहीं की। उन विद्वान ब्राह्मण शिरोमणि अपने ही अनुमान से यह जान लिया कि मेरी वृद्धा स्त्री स्वयं भी क्षुधा से कष्ट पा रही है, थकी है और अत्यन्त दुर्बल हो गयी है।
इस तपस्विनी के शरीर में चमड़े से ढकी हुई हड्डियों का ढ़ांचा मात्र रह गया है और यह कांप रही है। उसकी अवस्था पर दृष्टि पात करके उन्होंने पत्नी से कहा- ‘शोभने! अपनी स्त्री की रक्षा और पालन– पोषण करना कीट– पतंग और पशुओं का भी कर्तव्य है; अत: तुम्हें ऐसी बात नहीं करनी चाहिये। ‘जो पुरुष होकर भी स्त्री के द्वारा अपना पालन– पोषण और संरक्षण करता है, वह मनुष्य दया का पात्र है। ‘वह उज्ज्वल कीर्ति से भ्रष्ट हो जाता है और उसे उत्तम लोकों की प्राप्ति नहीं होती। धर्म, काम और अर्थ– सम्बन्धी कार्य, सेवा– शुश्रूषा तथा वंश परम्परा की रक्षा– ये सब स्त्री के ही अधीन हैं। पितरों का तथा अपना धर्म भी पत्नी के ही आश्रित है।
‘जो पुरुष स्त्री की रक्षा करना अपना कर्तव्य नहीं मानता अथवा जो स्त्री की रक्षा करने में असमर्थ है, वह संसार में महान अपयश का भागी होता है और परलोक में जाने पर उसे नरक में गिरना पड़ता है।’ पति के ऐसा कहने पर ब्राह्मणी बोली– ‘ब्रह्मन! हम दोनों के अर्थ और धर्म समान हैं, अत: आप मुझ पर प्रसन्न हों और मेरे हिस्से का यह पाव भर सत्तू ले लें ( इसे लेकर इसे अतिथि को दे दें )।[2]
‘द्विजश्रेष्ठ! स्त्रियों का सत्य, धर्म, रति, अपने गुणों से मिला हुआ स्वर्ग तथा सारी अभिलाषा पति के ही अधीन है। ‘माता का रज और पिता का वीर्य– इन दोनों के मिलने से ही वंश परम्परा चलती है। स्त्री के लिये पति ही सबसे बड़ा देवता है। नारियों को जो रति और पुत्र रूप फल की प्राप्ति होती है, वह पति का ही प्रसाद है। आप पालन करने के कारण मेरे पति, भरण– पोषण करने से भर्ता और पुत्र प्रदान करने के कारण वरदाता हैं, इसलिये मेरे हिस्से का सत्तू अतिथि देवता को अर्पण कीजिये। ‘आप भी तो जराजीर्ण, वृद्ध, क्षुधातुर, अत्यन्त दुर्बल, उपवास से थके हुए और क्षीणकाय हो रहे हैं। (फिर आप जिस तरह भूख का कष्ट सहन करते हैं, उसी प्रकार मैं भी सह लूंगी)’।
ब्राह्मण द्वारा अतिथि से सत्तू ग्रहण करने का अनुरोध
पत्नी के ऐसा कहने पर ब्राह्मण ने सत्तू लेकर अतिथि से कहा– ‘साधु पुरुषों में श्रेष्ठ ब्राह्मण! आप यह सत्तू भी पुन: ग्रहण कीजिये’। अतिथि ब्राह्मण उस सत्तू को भी लेकर खा गया ; किंतु संतुष्ट नहीं हुआ। यह देखकर उंञ्छवृत्ति वाले ब्राह्मण को बड़ी चिन्ता हुई। तब उनके पुत्र ने कहा– सत्पुरुषों में श्रेष्ठ पिता जी! आप मेरे हिस्से का यह सत्तू लेकर ब्राह्मण को दे दीजिये। मैं इसी में पुण्य मानता हूँ, इसलिये ऐसा कर रहा हूँ। मुझे सदा यत्न पूर्वक आपका पालन करना चाहिये; क्योंकि साधु पुरुष सदा इस बात की अभिलाषा रखते हैं कि मैं अपने बूढ़े पिता का पालन– पोषण करूँ। पुत्र होने का यही फल है कि वह वृद्धावस्था में पिता की रक्षा करे। ब्रह्मर्षे! तीनों लोकों में यह सनातन श्रुति प्रसिद्ध है। प्राण धारण मात्र से आप तप कर सकते हैं। देहधारियों के शरीरों में स्थित हुआ प्राण ही परम धर्म है। पिता ने कहा– बेटा! तुम हजार वर्ष के हो जाओ तो भी हमारे लिये बालक ही हो।
पिता पुत्र को जन्म देकर ही उससे अपने को कृतकृत्य मानता है। सामर्थ्यशाली पुत्र! मैं इस बात को अच्छी तरह जानता हूँ कि बच्चों की भूख बड़ी प्रबल होती है। मैं तो बूढ़ा हूँ। भूखे रहकर भी प्राण धारण कर सकता हूँ। तुम यह सत्तू खाकर बलवान होओ– अपने प्राणों की रक्षा करो। बेटा! जीर्ण अवस्था हो जाने के कारण मुझे भूख अधिक कष्ट नहीं देती है। इसके सिवा मैं दीर्घ काल तक तपस्या कर चुका हूँ; इसलिये अब मुझे मरने का भय नहीं है।
पुत्र बोला– तात! मैं आपका पुत्र हूँ, पुरुष का प्राण करने के कारण ही संतान को पुत्र कहा गया है। इसके सिवा पुत्र पिता का अपना ही आत्मा माना गया है; अत: आप अपने आत्मभूत पुत्र के द्वारा अपनी रक्षा कीजिये। पिता ने कहा– बेटा! तुम रूप, शील (सदाचार और सद्भाव) तथा इन्द्रिय संयम के द्वारा मेरे ही समान हो। तुम्हारे इन गुणों की मैंने अनेक बार परीक्षा कर ली है, अत: मैं तुम्हारा सत्तू लेता हूँ। यों कहकर श्रेष्ठ ब्राह्मण ने प्रसन्नतापूर्वक वह सत्तू ले लिया और हंसते हुए– से उस ब्राह्मण अतिथि को परोस दिया।[3]
वह सत्तू खाकर भी ब्राह्मण देवता का पेट न भरा। यह देखकर उञ्छवृत्तिधारी धर्मात्मा ब्राह्मण बड़े संकोच में पड़ गये। उनकी पुत्र वधू भी बड़ी सुशील थी। वह ब्राह्मण का प्रिय करने की इच्छा से उनके पास जा बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने उन श्वशुर देव से बोली- ‘विप्रवर! आपकी सन्तान से मुझे संतान प्राप्त होगी; अत: आप मेरे परम पूज्य हैं। मेरे हिस्से का यह सत्तू लेकर आप अतिथि देवता को अर्पित कीजिये। ‘आपकी कृपा से मुझे अक्षय लोक प्राप्त हो गये। पुत्र के द्वारा मनुष्य उन लोको में जाते हैं, जहाँ जाकर वह कभी शोक में नहीं पड़ता। ‘जैसे धर्म तथा उससे संयुक्त अर्थ और काम– ये तीनों स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाले हैं तथा जैसे आहवनीय, गार्हपत्य और दक्षिणाग्नि– ये तीनों स्वर्ग के साधन हैं, उसी प्रकार पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र– ये त्रिविध संताने अक्षय स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाली हैं। ‘हमने सुना है कि पुत्र पिता को पितृ– ऋण से छुटकारा दिला देता है।
पुत्रों और पौत्रों के द्वारा मनुष्य निश्चय ही श्रेष्ठ लोकों में जाते हैं।’ श्वसुर ने कहा– बेटी! हवा और धूप के मारे तुम्हारा सारा शरीर सूख रहा है– शिथिल होता जा रहा है। तुम्हारी कान्ति फीकी पड़ गयी है। उत्तम व्रत और आचार का पालन करने वाली पुत्री! तुम बहुत दुर्बल हो गयी हो। क्षुधा के कष्ट से तुम्हारा चित्त अत्यन्त व्याकुल है। तुम्हें ऐसी अवस्था में देखकर तुम्हारे हिस्से का सत्तू कैसे ले लूँ। ऐसा करने से तो मैं धर्म की हानि करने वाला हो जाऊंगा। अत: कल्याणमय आचरण करने वाली कल्याणि! तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। तुम प्रतिदिन शौच, सदाचार और तपस्या में संलग्न रहकर छठे काल में भोजन करने का व्रत लिये हुए हो। शुभे! बड़ी कठिनाई से तुम्हारी जीविका चलती है।
आज सत्तू लेकर तुम्हें निराहार कैसे देख सकूंगा। एक तो तुम अभी बालिका हो, दूसरे भूख से पीड़ित हो रही हो, तीसरी नारी हो और चौथे उपवास करते– करते अत्यन्त दुबली हो गयी हो; अत: मुझे सदा तुम्हारी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि तुम अपनी सेवाओं द्वारा बान्धव जनों को आनन्दित करने वाली हो। पुत्रवधु बोली– भगवन! आप मेरे गुरु के भी गुरु, देवताओं के भी देवता और सामान्य देवता की अपेक्षा भी अतिशय उत्कृष्ट देवता हैं, अत: मेरा दिया हुआ यह सत्तू स्वीकार कीजिये। मेरा यह शरीर, प्राण और धर्म – सब कुछ बड़ों की सेवा के लिये ही है। विप्रवर! आप के प्रसाद से मुझे उत्तम लोकों की प्राप्ति हो सकती है। अत: आप मुझे अपना दृढ़ भक्त, रक्षणीय और विचारणीय मानकर अतिथि को देने के लिये यह सत्तू स्वीकार कीजिये। श्वशुर ने कहा– बेटी! तुम सती– साध्वी नारी हो और सदा ऐसे ही शील एवं सदाचार का पालन करने से तुम्हारी शोभा है। तुम धर्म तथा व्रत के आचरण में संलग्न होकर सर्वदा गुरुजनों की सेवा पर ही दृष्टि रखती हो; इसलिये बहू! मैं तुम्हे पुण्य से वंचित न होने दूंगा। धर्मात्माओं में श्रेष्ठ महाभागे! पुण्यात्माओं में तुम्हारी गिनती करके मैं तुम्हारा दिया हुआ सत्तू अवश्य स्वीकार करूंगा।[4]
ऐसा कहकर ब्राह्मण ने उसके हिस्से का भी सत्तू लेकर अतिथि को दे दिया। इससे वह ब्राह्मण उन उंछवृत्तिधारी साधु महात्मा पर बहुत संतुष्ट हुआ। वास्तव में उस श्रेष्ठ द्विज के रूप में मानव – विग्रहधारी साक्षात धर्म ही वहाँ उपस्थित थे। वे प्रवचनकुशल धर्म संतुष्ट चित्त होकर उन उंञ्छवृत्तिधारी श्रेष्ठ ब्राह्मण से इस प्रकार बोले- ‘द्विजश्रेष्ठ! तुमने अपनी शक्ति के अनुसार धर्म पूर्वक जो न्यायोपार्जित शुद्ध अन्न का दान दिया है, इससे तुम्हारे ऊपर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। अहो! स्वर्ग लोक में निवास करने वाले देवता भी वहाँ तुम्हारे दान की घोषणा करते हैं। ‘देखो, आकाश से भूतल पर यह फूलों की वर्षा हो रही है। देवर्षि, देवता, गंधर्व तथा और भी जो देवताओं के अग्रणी पुरुष हैं, वे और देवदूत गण तुम्हारे दान से विस्मित हो तुम्हारी स्तुति करते हुए खड़े हैं।
‘द्विजश्रेष्ठ! ब्रह्मलोक में विचरने वाले जो ब्रह्मर्षिगण विमानों में रहते हैं, वे भी तुम्हारे दर्शन की इच्छा रखते हैं; इसलिये तुम स्वर्गलोक में चलो। ‘तुमने पितृलोक में गये हुए अपने समस्त पितरों का उद्धार कर दिया। अनेक युगों तक भविष्य में होने वाली जो संतानें हैं, वे भी तुम्हारे पुण्य– प्रताप से तर जायंगी।’ ‘अत: ब्रह्मन! तुम अपने ब्रह्मचर्य, दान, यज्ञ, तप तथा संकरता रहित धर्म के प्रभाव से स्वर्गलोक में चलो। ‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मण शिरोमणे! तुम उत्तम श्रद्धा के साथ तपस्या करते हो; इसलिये देवता तुम्हारे दान से अत्यंत संतुष्ट हैं। ‘इस प्राण– संकट के समय भी यह सब सत्तू तुमने शुद्ध हृदय से दान किया है; इसलिये तुमने उस पुण्य कर्म के प्रभाव से स्वर्गलोक पर विजय प्राप्त कर ली है। ‘भूख मनुष्य की बुद्धि को चोपट कर देती है।
दान करने का वर्णन
धार्मिक विचारों को मिटा देती है। क्षुधा से ज्ञान लुप्त हो जाने के कारण मनुष्य धीरज खो देता है। जो भूख को जीत लेता है, वह निश्चय ही स्वर्ग पर विजय पाता है। ‘जब मनुष्य में दान विषयक रुचि जाग्रत होती है, तब उसके धर्म का ह्रास नहीं होता। तुमने पत्नी के प्रेम और पुत्र के स्नेह पर भी दृष्टिपात न करके धर्म को ही श्रेष्ठ माना है और उसके सामने भूख– प्यास को भी कुछ नहीं गिना है। ‘मनुष्य के लिये सबसे पहले न्यायपूर्वक धन की प्राप्ति का उपाय जानना ही सूक्ष्म विषय है। उस धन को सत्पात्र की सेवा में अर्पण करना उससे भी श्रेष्ठ है।
साधारण समय में दान देने की अपेक्षा उत्तम समय पर दान देना और भी अच्छा है; किंतु श्रद्धा का महत्त्व काल से भी बढ़कर है। स्वर्ग का दरवाजा अत्यन्त सूक्ष्म है। मनुष्य मोहवश उसे देख नहीं पाते हैं। ‘उस स्वर्ग द्वार की जो अर्गला (किल्ली) है, वह लोभरूपी बीज से बनी हुई है। वह द्वार राग के द्वारा गुप्त है, इसीलिये उसके भीतर प्रवेश करना बहुत ही कठिन है। जो लोग क्रोध को जीत चुके हैं, इन्द्रियों को वश में कर चुके हैं, वे यथाशक्ति दान देने वाले तपस्वी ब्राह्मण ही उस द्वार को देख पाते हैं।[5]
‘श्रद्धापूर्वक दान देने वाले मनुष्य में यदि एक हजार देने की शक्ति हो तो वह सौ का दान करे, सौ देने की शक्ति वाला दस का दान करे, तथा जिसके पास कुछ न हो, वह अपनी शक्ति के अनुसार जल ही दान कर दे तो इन सबका फल बराबर माना गया है। ‘विप्रवर! कहते हैं, राजा रन्तिदेव के पास जब कुछ भी नहीं रह गया, तब उन्होंने शुद्ध हृदय से केवल जल का दान किया था। इससे वे स्वर्गलोक में गये थे। ‘तात! अन्याय पूर्वक प्राप्त हुए द्रव्य के द्वारा महान फल देने वाले बड़े– बड़े दान करने से धर्म को उतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी न्यायोपार्जित थोड़े– से अन्न का भी श्रद्धापूर्वक दान करने से उन्हें प्रसन्नता होती है। ‘राजा नृग ने ब्राह्मणों को हजारों गौएं दान की थीं; किंतु एक ही गौ दूसरे की दान कर दी, जिसके कारण अन्यायत: प्राप्त द्रव्य का दान करने के कारण उन्हें नरक में जाना पड़ा। ‘उशीनर के पुत्र उत्तम व्रत का पालन करने वाले राजा शिबि श्रद्धापूर्वक अपने शरीर का मांस देकर भी पुण्यात्माओं के लोकों में अर्थात स्वर्ग में आनन्द भोगते हैं। ‘विप्रवर! मनुष्यों के लिये धन ही पुण्य का हेतु नहीं है।
साधु पुरुष अपनी शक्ति के अनुसार सुगमतापूर्वक पुण्य का अर्जन कर लेते हैं। न्याय पूर्वक संचित किये हुए अन्न के दान से जैसा उत्तम फल प्राप्त होता है, वैसा नान प्रकार के यज्ञों का अनुष्ठान करने से भी नहीं सुलभ होता। ‘मनुष्य क्रोध से अपने दान के फल को नष्ट कर देता है। लोभ के कारण वह स्वर्ग में नहीं जाने पाता। न्यायोपार्जित धन से जीवन– निर्वाह करने वाला और दान के महत्त्व को जानने वाला पुरुष दान एवं तपस्या के द्वारा स्वर्गलोक प्राप्त कर लेता है। ‘तुमने जो यह दान जनित फल प्राप्त किया है, इसकी समता प्रचुर दक्षिणा वाले बहुसंख्यक राजसूय और अनेक अश्वमेध– यज्ञों द्वारा भी नहीं हो सकती। तुमने सेर भर सत्तू का दान करके अक्षय ब्रह्मलोक को जीत लिया है। ‘विप्रवर! अब तुम सुख पूर्वक रजोगुण रहित ब्रह्मलोक में जाओ। द्विजश्रेष्ठ! तुम सब लोगों के लिये यह दिव्य विमान उपस्थित है। ‘ब्रह्मन! मेरी ओर देखो, मैं धर्म हूँ।
तुम सब लोग अपनी इच्छा के अनुसार इस विमान पर चढ़ो। तुमने अपने इस शरीर का उद्धार कर दिया और लोक में भी तुम्हारी अविचलित कीर्ति बनी रहेगी। तुम पत्नी, पुत्र और पुत्रवधु के साथ स्वर्गलोक को जाओ’। धर्म क ऐसा कहने पर वे उंञ्छवृत्ति वाले ब्राह्मण देवता अपनी पत्नि, पुत्री और पुत्रवधू के साथ विमान पर आरूढ़ हो स्वर्गलोक को चले गये। ‘स्त्री, पुत्र और पुत्रवधू के साथ वे धर्मज्ञ ब्राह्मण जब स्वर्गलोक को चले गये, तब मैं अपनी बिल से बाहर निकला। तदनन्तर सत्तू की गन्ध सूंघने, वहाँ गिरे हुए जल की कीच से सम्पर्क होने, वहाँ गिरे हुए दिव्य पुष्पों को रौंदने और उन महात्मा ब्राह्मण के दान करते समय गिरे हुए अन्न के कणों में मन लगाने से तथा उन उंञ्छवृत्तिधारी ब्राह्मण की तपस्या के प्रभाव से मेरा मस्तक सोने का हो गया।[6]
नेवले द्वारा सेरभर सत्तूदान कथा सुनाकर गायब होना
विप्रवरो! उन सत्य प्रतिज्ञ ब्राह्मण के सत्तू दान ने मेरा यह आधा शरीर भी सुवर्णमय हो गया। उन बुद्धिमान ब्राह्मण की तपस्या से मुझे जो यह महान फल प्राप्त हुआ है, उसे आप लोग अपनी आंखों से देख लीजिये। ब्राह्मणों! अब मैं इस चिन्ता में पड़ा कि मेरे शरीर का दूसरा पार्श्व भी कैसे ऐसा ही हो सकता है ? इसी उद्देश्य से मैं बड़े हर्ष और उत्साह के साथ बारंबार अनेकानेक तपोवनों और यज्ञ स्थलों मं जाया– आया करता हूँ। परम बुद्धिमान कुरुराज युधिष्ठिर के इस यज्ञ का बड़ा भारी शोर सुनकर मैं बड़ी आशा लगाये यहाँ आया था; किन्तु मेरा शरीर यहाँ सोने का न हो सका।
ब्राह्मण शिरोमणियो! इसी से मैंने हंसकर कहा था कि यह यज्ञ ब्राह्मण के दिये हुए सेर भर सत्तू के बराबर भी नहीं है। सर्वथा ऐसी ही बात है। क्योंकि उस समय सेर भर सत्तू में से गिरे हुए कुछ कणों के प्रभाव से मेरा आधा शरीर सुवर्णमय हो गया था; परन्तु यह महान यज्ञ भी मुझे वैसा न बना सका; अत: मेरे मत में यह यज्ञ उन सेर भर सत्तू के कणों के समान भी नहीं हैं। उन समस्त श्रेष्ठ ब्राह्मणों से ऐसा कहकर वे नेवला वहाँ से गायब हो गया और वे ब्राह्मण भी अपने– अपने घर चले गये। शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले जनमेजय! वहाँ अश्वमेध नामक महायज्ञ में जो आश्चर्य जनक घटना घटित हुई थी, वे सारा प्रसंग मैंने तुम्हें बता दिया।
नरेश्वर! उस यज्ञ के सम्बन्ध में ऐसी घटना सुनकर तुम्हें किसी प्रकार विस्मय नहीं करना चाहिये। सहस्त्रों कोटि ऐसे ऋषि हो गये हैं, जो यज्ञ न करके केवल तपस्या के ही बल से दिव्य लोक को प्राप्त हो चुके हैं। किसी भी प्राणी से द्रोह न करना, मन में संतोष रखना, शील और सदाचार का पालन करना, सबके प्रति सरलतापूर्ण बर्ताव करना, तपस्या करना, मन और इन्द्रियों को संयम में रखना, सत्य बोलना और न्यायोपार्जित वस्तु का श्रद्धा पूर्वक दान करना– इनमें से एक– एक गुर्ण बड़े– बड़े यज्ञों के समान हैं।[7]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 90 श्लोक 18-33
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 90 श्लोक 34-49
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 90 श्लोक 50-65
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 90 श्लोक 66-80
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 90 श्लोक 81-95
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 90 श्लोक 96-110
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 90 श्लोक 111-120
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| श्रीकृष्ण का उत्तंक मुनि को विश्वस्वरूप का दर्शन कराना
| श्रीकृष्ण द्वारा उत्तंक मुनि को मरुदेश में जल प्राप्ति का वरदान
| उत्तंक की गुरुभक्ति का वर्णन
| उत्तंक का गुरुपुत्री के साथ विवाह
| उत्तंक का दिव्यकुण्डल लाने के लिए सौदास के पास जाना
| उत्तंक का सौदास से उनकी रानी के कुण्डल माँगना
| उत्तंक का कुण्डल हेतु रानी मदयन्ती के पास जाना
| उत्तंक का कुण्डल लेकर पुन: सौदास के पास लौटना
| तक्षक द्वारा कुण्डलों का अपहरण
| उत्तंक को पुन: कुण्डलों की प्राप्ति
| श्रीकृष्ण का द्वारका में रैवतक महोत्सव में सम्मिलित होकर सबसे मिलना
| श्रीकृष्ण का वसुदेव को महाभारत युद्ध का वृत्तान्त संक्षेप में सुनाना
| श्रीकृष्ण का वसुदेव को अभिमन्यु वध का वृत्तांत सुनाना
| वसुदेव आदि यादवों का अभिमन्यु के निमित्त श्राद्ध करना
| व्यास का उत्तरा और अर्जुन को समझाकर युधिष्ठिर को अश्वमेध यज्ञ की आज्ञा देना
| युधिष्ठिर का भाइयों से परामर्श तथा धन लाने हेतु प्रस्थान
| पांडवों का हिमालय पर पड़ाव और उपवासपूर्वक रात्रि निवास
| शिव आदि का पूजन करके युधिष्ठिर का धनराशि को ले जाना
| उत्तरा के मृत बालक को जिलाने के लिए कुन्ती की श्रीकृष्ण से प्रार्थना
| परीक्षित को जिलाने के लिए सुभद्रा की श्रीकृष्ण से प्रार्थना
| उत्तरा की श्रीकृष्ण से पुत्र को जीवित करने की प्रार्थना
| श्रीकृष्ण का उत्तरा के मृत बालक को जीवन दान देना
| श्रीकृष्ण द्वारा परीक्षित का नामकरण तथा पाण्डवों का हस्तिनापुर आगमन
| श्रीकृष्ण द्वारा पांडवों का स्वागत
| व्यास तथा श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर को यज्ञ के लिए आज्ञा देना
| व्यास की आज्ञा से अश्व की रक्षा हेतु अर्जुन की नियुक्ति
| व्यास द्वारा भीम, नकुल तथा सहदेव की विभिन्न कार्यों हेतु नियुक्ति
| सेना सहित अर्जुन के द्वारा अश्व का अनुसरण
| अर्जुन के द्वारा त्रिगर्तों की पराजय
| अर्जुन का प्राग्ज्यौतिषपुर के राजा वज्रदत्त के साथ युद्ध
| अर्जुन के द्वारा वज्रदत्त की पराजय
| अर्जुन का सैन्धवों के साथ युद्ध
| दु:शला के अनुरोध से अर्जुन और सैन्धवों के युद्ध की समाप्ति
| अर्जुन और बभ्रुवाहन का युद्ध एवं अर्जुन की मृत्यु
| अर्जुन की मृत्यु से चित्रांगदा का विलाप
| अर्जुन की मृत्यु पर बभ्रुवाहन का शोकोद्गार
| उलूपी का संजीवनी मणि द्वारा अर्जुन को पुन: जीवित करना
| उलूपी द्वारा अर्जुन की पराजय का रहस्य बताना
| अर्जुन का पुत्र और पत्नी से विदा लेकर पुन: अश्व के पीछे जाना
| अर्जुन द्वारा मगधराज मेघसन्धि की पराजय
| अश्व का द्वारका, पंचनद तथा गांधार देश में प्रवेश
| अर्जुन द्वारा शकुनिपुत्र की पराजय
| युधिष्ठिर की आज्ञा से यज्ञभूमि की तैयारी
| युधिष्ठिर के यज्ञ की सजावट और आयोजन
| श्रीकृष्ण का युधिष्ठिर से अर्जुन का संदेश कहना
| अर्जुन के विषय में श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर की बातचीत
| अर्जुन का हस्तिनापुर आगमन
| उलूपी और चित्रांगदा सहित बभ्रुवाहन का स्वागत
| अश्वमेध यज्ञ का आरम्भ
| युधिष्ठिर का ब्राह्मणों और राजाओं को विदा करना
| युधिष्ठिर के यज्ञ में नेवले का आगमन
| नेवले का सेरभर सत्तूदान को अश्वमेध यज्ञ से बढ़कर बताना
| हिंसामिश्रित यज्ञ और धर्म की निन्दा
| महर्षि अगस्त्य के यज्ञ की कथा
वैष्णवधर्म पर्व
युधिष्ठिर का श्रीकृष्ण से वैष्णवधर्म विषयक प्रश्न
| श्रीकृष्ण द्वारा धर्म का तथा अपनी महिमा का वर्णन
| चारों वर्णों के कर्म और उनके फलों का वर्णन
| धर्म की वृद्धि और पाप के क्षय होने का उपाय
| व्यर्थ जन्म, दान और जीवन का वर्णन
| सात्त्विक दानों का लक्षण
| दान का योग्य पात्र
| ब्राह्मण की महिमा
| बीज और योनि की शुद्धि का वर्णन
| गायत्री मन्त्र जप की महिमा का वर्णन
| ब्राह्मणों की महिमा और उनके तिरस्कार के भयानक फल का वर्णन
| यमलोक के मार्ग का कष्ट
| यमलोक के मार्ग-कष्ट से बचने के उपाय
| जल दान और अन्न दान का माहात्म्य
| अतिथि सत्कार का महात्म्य
| भूमि दान की महिमा
| तिल दान की महिमा
| उत्तम ब्राह्मण की महिमा
| अनेक प्रकार के दानों की महिमा
| पंचमहायज्ञ का वर्णन
| विधिवत स्नान और उसके अंगभूत कर्म का वर्णन
| भगवान के प्रिय पुष्पों का वर्णन
| भगवान के भगवद्भक्तों का वर्णन
| कपिला गौ तथा उसके दान का माहात्म्य
| कपिला गौ के दस भेद
| कपिला गौ का माहात्म्य
| कपिला गौ में देवताओं के निवासस्थान का वर्णन
| यज्ञ और श्राद्ध के अयोग्य ब्राह्मणों का वर्णन
| नरक में ले जाने वाले पापों का वर्णन
| स्वर्ग में ले जाने वाले पुण्यों का वर्णन
| ब्रह्महत्या के समान पाप का वर्णन
| जिनका अन्न वर्जनीय है, उन पापियों का वर्णन
| दान के फल और धर्म की प्रशंसा का वर्णन
| धर्म और शौच के लक्षण
| संन्यासी और अतिथि सत्कार के उपदेश
| दानपात्र ब्राह्मण का वर्णन
| अन्नदान की प्रशंसा
| भोजन की विधि
| गौओं को घास डालने का विधान
| तिल का माहात्म्य
| आपद्धर्म, श्रेष्ठ और निन्द्य ब्राह्मण
| श्राद्ध का उत्तम काल
| मानव धर्म-सार का वर्णन
| अग्नि के स्वरूप में अग्निहोत्र की विधि
| अग्निहोत्र के माहात्म्य का वर्णन
| चान्द्रायण व्रत की विधि
| प्रायश्चितरूप में चान्द्रायण व्रत का विधान
| सर्वहितकारी धर्म का वर्णन
| द्वादशी व्रत का माहात्म्य
| युधिष्ठिर के द्वारा भगवान की स्तुति
| विषुवयोग और ग्रहण आदि में दान की महिमा
| पीपल का महत्त्व
| तीर्थभूत गुणों की प्रशंसा
| उत्तम प्रायश्चित
| उत्तम और अधम ब्राह्मणों के लक्षण
| भक्त, गौ और पीपल की महिमा
| श्रीकृष्ण के उपदेश का उपसंहार
| श्रीकृष्ण का द्वारकागमन
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