विरह-पदावली -सूरदास
(36) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) कन्हैया ने पाता नहीं, मुझसे क्या कहा? सखी! वे (मेरे द्वार पर) कुछ शब्द सुनाते हुए निकल गये। (उन्हें न समझ सकने पर भी) अब मुझसे रहा नहीं जाता। मैं तो बुद्धिमान हूँ, (उनकी बात का) भेद समझा नहीं। दही मथने में ही भूली रही। अब नव-निधियों को लेकर भी क्या किया जाय, वह (प्राणों का) दूत तो दूर चल गया। उस समय सभी अज्ञान (मूर्ख) हो गयी थीं, किसी ने भी रथ को पकड़ा नहीं। अपने स्वामी से व्यर्थ लज्जा करके (हमने) असहनीय वियोग (स्वयं) प्राप्त किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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