विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) सखी! इस शरीर के द्वार-रक्षक परम चतुर, सुन्दर और समझदार श्रीनन्दकुमार अब व्रज में नहीं हैं, जो सखी! अपने सौन्दर्य रूपी डंडे को हाथ में लिये सर्वदा नेत्ररूपी द्वार रोके रहते थे। (किंतु अब जिस दिन से वे गये) सखी! उसी दिन से (मेरे) हृदय रूपी भवन में कामदेव का प्रवेश हो गया। भवन को सूना देखकर (उसमें आते हुए अब) दुःख भी कोई रूकावट नहीं मानता तथा आँसू और निःश्वास (हृदय के) भीतर से (निकलकर) चले जाते हैं, (वे भी जाने में) कुछ विचार नहीं करते। रात्रि में पलक रूपी किवाड़ों के लगे बिना (निद्रा आये बिना) चन्द्रमा (हमारे) सत्त्व का सार (धैर्य) चुरा लेता है; किंतु फिर भी (हमारे) प्राण (श्यामसुन्दर के लौटने की) अवधि के आधार का स्मरण करके (इस क्षीण शरीर में) लटके हुए लज्जा के कारण साथ नहीं छोड़ते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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