नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन

महाभारत शान्ति पर्व में मोक्षधर्म पर्व के अंतर्गत 218वें अध्याय में नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता के प्रतिपादन का वर्णन हुआ है, जो इस प्रकार है[1]

पंचशिख ऋषि कहते हैं- राजन! यदि आत्‍मा है या नहीं यह संशय उपस्थित होने पर अनुमान से उसके अस्तित्‍व का साधन किया जाय तो इसके लिये कोई ऐसा ज्ञापक हेतु नहीं उपलब्‍ध होता, जो कहीं दोषयुक्‍त न होता हो; फिर किस अनुमान का आश्रय लेकर लोकव्‍यवहार का निश्‍चय किया जा सकता है। अनुमान और आगम इन दोनों प्रमाणों का मूल प्रत्‍यक्ष प्रमाण है। आगम या अनुमान यदि प्रत्‍यक्ष अनुभव के विरुद्ध है तो वह कुछ भी नहीं है उसकी प्रामाणिकता नहीं स्‍वीकार की जा सकती। जहाँ-कहीं भी ईश्‍वर, अदृष्ट अथवा नित्‍य आत्‍मा की सिद्धि के लिये अनुमान किया जाता है, वहाँ साध्‍य-साधन के लिये हुई भावना भी व्‍यर्थ है, अत: नास्तिकों के मत में जीवात्‍मा की शरीर से भिन्‍न कोई सत्‍ता नहीं है यह बात स्थिर हुई। जैसे वट वृक्ष के बीज में पत्र, पुष्‍प, फल, मूल तथा त्‍वचा आदि छिपे होते हैं, जैसे गाय के द्वारा खायी हुई घास में से घी, दूध आदि प्रकट होते हैं तथा जिस प्रकार अनेक औषध द्रव्‍यों का पाक एवं अधिवासन करने से उसमें नशा पैदा करने वाली शक्ति आ जाती है, उसी प्रकार वीर्य से शरीर आदि के साथ चेतनता भी प्रकट होती है। इसके सिवा जाति, स्‍मृति, अयस्‍कान्‍तमणि, यूर्यकान्‍त‍मणि और बड़वालन के द्वारा समुद्र के जल का पान आदि दृ‍ष्टान्‍तों से भी देहाति रिक्‍त चैतन्‍य की सिद्धि नहीं होती[2] (इस नास्तिक मत का खण्‍डन इस प्रकार समझना चाहिये) मरे हुए शरीर में जो चेतनता का अभाव देखा जाता है, वही देहातिरिक्‍त आत्‍मा के अस्तित्‍व में प्रमाण है (यदि चेतनता देह का ही धर्म हो तो मृतक शरीर में भी उसकी उपलब्धि होनी चाहिये; परंतु मृत्‍यु के पश्‍चात कुछ काल तक शरीर तो रहता है, पर उसमे चेतनता नहीं रहती; अत: यह सिद्ध हो जाता है कि चेतन आत्‍मा शरीर से भिन्‍न है) नास्तिक भी रोग आदि की निवृत्ति के लिये मन्‍त्र, जप तथा तान्त्रिक पद्धति से देवता आदि की आराधना करते हैं। (वह देवता क्‍या है? यदि पाँच भौतिक है तो घट आदि की भाँति उसका दर्शन होना चाहिये और यदि वह भौतिक पदार्थों से भिन्‍न है तो चेतन की सत्‍ता स्‍वत: सिद्ध हो गयी; अत: देह से भिन्‍न आत्‍मा है, यह प्रत्‍यक्ष अनुभव के विरुद्ध जान पड़ता है।)[1]

यदि शरीर की मृत्‍यु के साथ आत्‍मा की भी मृत्‍यु मान ली जाय, तब तो उसके किेये हुए कर्मों का भी नाश मानना पड़ेगा; फिर तो उसके शुभाशुभ कर्मों का फल भोगने वाला कोई नहीं रह जायगा और देह की उत्‍पत्ति में अकृताभ्‍यागम (बिना किये हुए कर्म का ही भोग प्राप्‍त हुआ ऐसा) मानने का प्रसंग उपस्थित होगा। ये सब प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि देहातिरिक्‍त चेतन आत्‍मा की सत्‍ता अवश्‍य है। नास्तिकों की ओर से जो कोई हेतुभूत दृष्टान्‍त दिये गये हैं, वे सब मूर्त पदार्थ हैं। मूर्त जड पदार्थ से मूर्त जड पदार्थ की ही उत्‍पत्ति होती है। यही उन दृष्टान्‍तों द्वारा सिद्ध होता है। जैसे काष्ठ से अग्नि की उत्‍पत्ति (यदि पंचभूतों से आत्‍मा की तब तो पृथ्‍वी आदि मूर्त पदार्थो से आकाश की भी उत्‍पत्ति माननी पड़ेगी, जो असम्‍भव है।) आत्‍मा अमूर्त पदार्थ है और देह मूर्त; अत: अमृर्त की मूर्त के साथ समानता अथवा मूर्त भूतों के संयोग से अमूर्त चेतन आत्‍मा की उत्‍पत्ति नहीं हो सकती। कुछ लोग अविद्या, कर्म, तृष्‍णा, लोभ, मोह तथा दोषों के सेवन को पुनर्जन्‍म में कारण बताते हैं। अविद्या को वे क्षेत्र कहते हैं। पूर्व जन्‍मों का किया हुआ कर्म बीज है और तृष्‍णा अंकुर की उत्‍पत्ति कराने वाला स्‍नेह या जल है। यही उनके मत में पुनर्जन्‍म का प्रकार है। वे अविद्या आदि कारणसमूह सुषुप्ति और प्रलय में भी संस्‍काररूप में गूढ़भाव से स्थित रहते हैं। उनके रहते हुए जब एक मरणधर्मा शरीर नष्ट हो जाता है, तब उसी से पूर्वोक्‍त अविद्या आदि के कारण दूसरा शरीर उत्‍पन्‍न हो जाता है। जब ज्ञान के द्वारा अविद्या आदि निमित्‍त दग्‍ध हो जाते हैं, तब शरीर नाश के पश्‍चात सत्त्व (बुद्धि) का क्षयरूप मोक्ष होता है, ऐसा उनका कथन है।[3]

(उपर्युक्‍त नास्तिक मत में आस्तिक लोग इस प्रकार दोष देते हैं-) क्षणिक विज्ञानवादी की मान्‍यता के अनुसार शरीर से परक्षणवर्ती शरीर रूप, जाति, धर्म और प्रयोजन सभी दृष्टियों से भिन्‍न हैं। ऐसी अवस्‍था में यह वही है, इस प्रकार प्रत्‍यभिज्ञा (स्‍मृति) नहीं हो सकती। अथवा भोग, मोक्ष आदि सब कुछ बिना इच्‍छा किये ही अकस्‍मात् प्राप्‍त हो जाता है, ऐसा मानना पड़ेगा (उस दशा में यह भी कहा जा सकता है कि मोक्ष की इच्‍छा करने वाला दूसरा है, साधन करने वाला दूसरा है और उससे मुक्‍त होने वाला भी दूसरा ही है।) यदि ऐसी ही बात है, तब दान, विद्या, तपस्‍या और बल से किसी को क्‍या प्रसन्‍नता होगी? क्‍योंकि उसका किया हुआ सारा कर्म दूसरे को ही अपना फल प्रदान करेगा (अर्थात दान करते समय जो दाता है, वह क्षणिक विज्ञानवाद के अनुसार फल-भोग काल में नहीं रह जाता, अत: पुण्‍य या पाप एक करता है और उसका फल दूसरा भोगता है।) (यदि कहें, यह आपत्ति तो अभीष्ट ही है कि कर्म करते समय जो कर्ता है, वह फल भोग काल में नहीं है। एक विज्ञान से उत्‍पन्‍न हुआ दूसरा विज्ञान ही फल भोगता है, तब तो) इस जगत में यह देवदत्त नामक पुरुष यज्ञदत्त आदि दूसरों के किये हुए अशुभ कर्मों से दुखी एवं परकृत शुभ कर्मों से सुखी हो सकता है (क्‍योंकि जब कर्ता दूसरा और भोक्‍ता दूसरा है, तब तो किसी का भी कर्म किसी को भी सुख-दु:ख दे सकता है।) उस दशा में दृश्‍य और अदृश्‍य का निर्णय भी यही होगा कि जो पूर्वक्षण में दृश्‍य था, वह वर्तमान क्षण में अदृश्‍य हो गया तथा जो पहले अदृश्‍य था, वही इस समय दृश्‍य हो रहा है।[3]

यदि कहें, देवदत्त के ज्ञान से यज्ञदत्त का ज्ञान पृथक एवं विजातीय है, सजातीय विज्ञानधारा में ही कर्म और उसके फल का भोग प्राप्‍त होता है; अत: देवदत्त के किये हुए कर्म का योग यज्ञदत्त को नहीं प्राप्‍त हो सकता, उस कारण पूर्वोक्‍त दोष की उत्‍पत्ति सम्‍भव नहीं हैं, तब हम यह पूछते हैं कि आपके मत में जो यह सादृश्‍य या सजातीय विज्ञान उत्‍पन्‍न होता है, उसका उपादान क्‍या है? यदि पूर्वक्षणवर्ती विज्ञान को ही उपादान बताया जाय तो यह ठीक नहीं है; क्‍योंकि वह विज्ञान नष्ट हो चुका और यदि पूर्वक्षणवर्ती विज्ञान का नाश ही उत्तरक्षणवर्ती सजातीय विज्ञान की उत्‍पत्ति में कारण है, तब तो यदि कुछ लोग किसी के शरीर को मूसलों से मार डालें तो उस मरे हुए शरीर से भी दूसरे शरीर की पुन: उत्‍पत्ति हो सकती है (अत: यह मत ठीक नहीं है।) ऋतु, संवत्‍सर, युग, सर्दी, गर्मी तथा प्रिय और अप्रिय- ये सब वस्‍तुएँ आकर चली जाती हैं और जाकर फिर आ जाती हैं, यह सब लोग प्रत्‍यक्ष देखते हैं। उसी प्रकार सत्त्वसंक्षयरूप मोक्ष भी फिर आकर निवृत्‍त हो सकता है (क्‍यों‍कि विज्ञान धारा का कहीं अन्‍त नहीं है।) जैसे मकान के दुर्बल-दुर्बल अंग पहले नष्ट होने लगता हैं और फिर क्रमश: सारा मकान ही गिर जाता है, उसी प्रकार वृद्धावस्‍था और विनाशकारी मृत्‍यु से आक्रान्‍त हुए शरीर के दुर्बल-दुर्बल अंग क्षीण होते-होते एक दिन सम्‍पूर्ण शरीर का नाश हो जाता है। इन्द्रिय, मन, प्राण, रक्‍त, मांस और हड्डी ये सब क्रमश: नष्ट होते और अपने कारण में मिल जाते हैं। यदि आत्‍मा की सत्‍ता न मानी जाय तो लोकयात्रा का निर्वाह नहीं होगा। दान और दूसरे धर्मों के फल की प्राप्ति के लिये कोई आस्‍था नहीं रहेगी; क्‍योंकि वैदिक शब्‍द और लौकिक व्‍यवहार सब आत्‍मा को ही सुख देने के लिये हैं। इस प्रकार मन में अनेक प्रकार के तर्क उठते हैं और उन तर्कों तथा युक्तियों से आत्‍मा की सत्‍ता या असत्‍ता का निर्धारण कुछ भी होता नहीं दिखायी देता। इस तरह विचार करते हुए भिन्‍न-भिन्‍न मतों की ओर दौड़ने वाले लोगों की बुद्धि कहीं एक जगह प्रवेश करती है और वहीं वृक्ष की भाँति जड़ जमाये जीर्ण हो जाती है।[4]

इस प्रकार अर्थ और अनर्थ से सभी प्राणी दुखी रहते हैं। केवल शास्त्र के वचन उन्‍हें खींचकर राह पर लाते हैं। ठीक उसी तरह, जैसे महावत हाथी पर अंकुश रखकर उन्‍हें काबू में किये रहते हैं। बहुत से शुष्‍क हृदयवाले लोग ऐसे विषयों की लिप्‍सा रखते हैं, जो अत्‍यन्‍त सुखदायक हों; किंतु इस लिप्‍सा में उन्‍हें भारी से भारी दु:खों का ही सामना करना पड़ता है और अन्‍त में वे भोगों को छोड़कर मृत्‍यु के ग्रास बन जाते हैं। जो एक दिन नष्ट होने वाला है, जिसके जीवन का कुछ ठिकाना नहीं, ऐसे अनित्‍य शरीर को पाकर इन बन्‍धु-बान्‍धवों तथा स्त्री-पुत्र आदि से क्‍या लाभ हैं? यह सोचकर जो मनुष्‍य इन सबकों क्षणभर में वैराग्‍यपूर्वक त्‍यागकर चल देता है, उसे मृत्‍यु के पश्‍चात फिर इस संसार में जन्‍म नहीं लेना पड़ता। पृथ्‍वी, आकाश, जल, अग्नि और वायु ये सदा शरीर की रक्षा करते रहते हैं। इस बात को अच्‍छी तरह समझ लेने पर इसके प्रति आसक्ति कैसे हो सकती है? जो एक दिन मृत्‍यु के मुख में पड़ने वाला है, ऐसे शरीर से सुख कहाँ है। पंचशिख का यह उपदेश जो भ्रम और वंचना से रहित, सर्वथा निर्दोष तथा आत्‍मा का साक्षात्‍कार कराने वाला था, सुनकर राजा जनक को बड़ा विस्‍मय हुआ; अत: उन्‍होंने पुन: प्रश्‍न करने का विचार किया।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 218 श्लोक 26-29
  2. जाति कहते हैं जन्‍म को। जैसे गुड़ या महुवे आदि से अनेक द्रव्‍यों के संयोग द्वारा जो मद्य तैयार किया जाता है, उसमें उपादान की अपेक्षा विलक्षण मादक शक्ति का जन्‍म हो जाता है, उसी प्रकार पृथ्‍वी, जल, तेज और वायु इन चार द्रव्‍यों के संयोग से इस शरीर में ही जीव चैतन्‍य प्रकट हो जाता है। जैसे जड मन से अजड स्‍मृति उत्‍पन्‍न होती है, उसी प्रकार जड शरीर से चेतन जीव की उत्‍पत्ति हो जाती है। जैसे अयस्‍कान्‍तमणि (चुम्‍बक) जड होकर भी लोह को खींच लेती है, उसी प्रकार जड शरीर भी इन्द्रियों का संचालन और नियन्‍त्रण कर लेता है; अत: आत्‍मा उससे भिन्‍न नहीं है। जैसे सूर्यकान्‍तमणि शीतल होकर भी सूर्य की किरणों के संयोग से आग प्रकट करने लगती है, उसी प्रकार वीर्य शीतल होकर भी रस और रक्‍त के संयोग से जठरानल का अविष्‍कार करता है और जैसे जल से उत्‍पन्‍न हुआ बडवानल जल को ही भक्षण करता है, उसी प्रकार वीर्य से उत्‍पन्‍न हुआ यह शरीर स्‍वयं भी वीर्य का आधान एवं धारण करता है। अत: शरीर से भिन्‍न आत्‍मा की सत्‍ता मानने की कोई आवश्‍यकता नहीं हैं।
  3. 3.0 3.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 218 श्लोक 30-37
  4. 4.0 4.1 महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 218 श्लोक 38-49

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आपत्तिग्रस्त राजा के कर्त्तव्य का वर्णन | ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओं के धर्म का वर्णन | धर्म की गति को सूक्ष्म बताना | राजा के लिए कोश संग्रह की आवश्यकता | मर्यादा की स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्ति की निन्दा | बल की महत्ता और पाप से छूटने का प्रायश्रित्त | मर्यादा का पालन करने वाले कायव्य दस्यु की सद्गति का वर्णन | राजा के द्वारा किसका धन लेने व न लेने तथा कैसे बर्ताव करे इसके विचार का वर्णन | शत्रुओं से घिरे राजा के कृर्त्तव्य का वर्णन | राजा के कृर्त्तव्य के विषय में बिडाल व चूहे का आख्यान | शत्रु से सावधान रहने के विषय में राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़िया का संवाद | भारद्वाज कणिक का सौराष्ट्रदेश के राजा को कूटनीति का उपदेश | विश्वामित्र और चाण्डाल का संवाद | आपत्काल में धर्म का निश्चय | उत्तम ब्राह्मणों के सेवन का आदेश | बहेलिये और कपोत-कपोती का प्रसंग | कबूतर द्वारा अपनी भार्या का गुणगान व पतिव्रता स्त्री की प्रशंसा | कबूतरी का कबूतर से शरणागत व्याध की सेवा के लिए प्रार्थना | कबूतर द्वारा अतिथि-सत्कार और अपने शरीर का बहेलिये के लिए परित्याग | बहेलिये का वैराग्य | कबूतरी का विलाप और अग्नि में प्रवेश कर उन दोनों को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | बहेलिये को स्‍वर्गलोक की प्राप्ति | इन्द्रोत मुनि का जनमेजय को फटकारना | जनमेजय का इन्द्रोत मुनि की शरण में जाना | इन्द्रोत का जनमेजय को शरण देना | इन्द्रोत का जनमेजय को धर्मोपदेश देना | ब्राह्मण बालक के जीवित होने की कथा | नारद जी का सेमल वृक्ष से प्रश्न | नारद जी का सेमल को उसका अहंकार देखकर फटकारना | वायु का सेमल को धमकाना और सेमल का विचारमग्न होना | सेमल का हार स्वीकार कर बलवान के साथ वैर न करने का उपदेश | समस्त अनर्थो का कारण लोभ को बताकर उसने होने वाले पापों का वर्णन | श्रेष्ठ महापुरुषों के लक्षण | अज्ञान और लोभ को ही समस्त दोषों का कारण सिद्ध करना | मन और इंद्रियों के संयम रूप दम का माहात्म्य | तप की महिमा | सत्य के लक्षण, स्वरूप और महिमा का वर्णन | काम, क्रोध आदि दोषों का निरूपण व नाश का उपाय | नृशंस अर्थात अत्यन्त नीच पुरुष के लक्षण | नाना प्रकार के पापों और प्रायश्रितों का वर्णन | खड्ग की उत्पत्ति और प्राप्ति व महिमा का वर्णन | धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर व पाण्डवों के पृथक-पृथक विचार | अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय | मित्र बनाने व न बनाने योग्य पुरुषों के लक्षण | कृतघ्न गौतम की कथा का आरम्भ | गौतम का समुद्र की ओर प्रस्थान व बकपक्षी के घर पर अतिथि होना | गौतम का आतिथ्यसत्कार व विरूपाक्ष के भवन में प्रवेश | गौतम का राक्षसराज के यहाँ से सुर्वणराशि लेकर लौटना | गौतम का अपने मित्र बक के वध का विचार मन में लाना | कृतघ्न गौतम द्वारा राजधर्मा का वध | राक्षसों द्वार कृतघ्न की हत्या व उसके माँस को अभक्ष्य बताना | राजधर्मा और गौतम का पुन: जीवित होना

मोक्षधर्म पर्व

शोकाकुल चित्त की शांति के लिए सेनजित और ब्राह्मण संवाद | पिता के प्रति पुत्रद्वारा ज्ञान का उपदेश | त्याग की महिमा के विषय में शम्पाक का उपदेश | धन की तृष्णा से दु:ख का वर्णन | धन के त्याग से परम सुख की प्राप्ति | जनक की उक्ति तथा राजा नहुष के प्रश्नों के उत्तर मे बोध्यगीता | प्रह्लाद और अवधूत का संवाद | आजगर वृत्ति की प्रशंसा का वर्णन | काश्यप ब्राह्मण और इन्द्र का संवाद | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम कर्ता को भोगने का प्रतिपादन | भरद्वाज और भृगु के संवाद में जगत की उत्पत्ति का वर्णन | आकाश से अन्य चार स्थूल भूतों की उत्पत्ति का वर्णन | पंचमहाभूतों के गुणों का विस्तारपूर्वक वर्णन | शरीर के भीतर जठरानल आदि वायुओं की स्थिति का वर्णन | जीव की सत्ता पर अनेक युक्तियों से शंका उपस्थित करना | जीव की सत्ता तथा नित्यता को युक्तियों से सिद्ध करना | मनुष्यों की और समस्त प्राणियों की उत्पत्ति का वर्णन | कर्मो का और सदाचार का वर्णन | वैराग्य से परब्रह्मा की प्राप्ति | सत्य की महिमा, असत्य के दोष व लोक और परलोक के सुख-दु:ख का विवेचन | ब्रह्मचर्य और गार्हस्थ्य आश्रमों के धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास धर्मों का वर्णन | हिमालय के उत्तर में स्थित लोक की विलक्षणता व महत्ता का प्रतिपादन | भृगु और भरद्वाज के संवाद का उपसंहार | शिष्टाचार का फलसहित वर्णन | पाप को छिपाने से हानि और धर्म की प्रशंसा | अध्यात्मज्ञान का निरूपण | ध्यानयोग का वर्णन | जपयज्ञ के विषय में युधिष्ठिर का प्रश्न | जप और ध्यान की महिमा और उसका फल | जापक में दोष आने के कारण उसे नरक की प्राप्ति | जापक के लिए देवलोक भी नरक तुल्य इसके प्रतिपादन का वर्णन | जापक को सावित्री का वरदान | धर्म, यम और काल का आगमन | राजा इक्ष्वाकु और ब्राह्मण का संवाद | सत्य की महिमा तथा जापक की गति का वर्णन | ब्राह्मण और इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन | जापक को मिलने वाले फल की उत्कृष्टता | मनु द्वारा कामनाओं के त्याग एवं ज्ञान की प्रशंसा | परमात्मतत्त्व का निरूपण | आत्मतत्त्व और बुद्धि आदि पदार्थों का विवेचन | साक्षात्कार का उपाय | शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धि से आत्मा की सत्ता का प्रतिपादन | आत्मा व परमात्मा के साक्षात्कार का उपाय तथा महत्त्व | परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | मनु बृहस्पति संवाद की समाप्ति | श्री कृष्ण से सम्पूर्ण भूतों की उत्पत्ति | श्री कृष्ण की महिमा का कथन | ब्रह्मा के पुत्र मरीचि आदि प्रजापतियों के वंश का वर्णन | प्रत्येक दिशा में निवास करने वाले महर्षियों का वर्णन | विष्णु का वराहरूप में प्रकट हो देवताओं की रक्षा और दानवों का विनाश | नारद को अनुस्मृतिस्तोत्र का उपदेश | नारद द्वारा भगवान की स्तुति | श्री कृष्ण सम्बन्धी अध्यात्मतत्तव का वर्णन | संसारचक्र और जीवात्मा की स्थिति का वर्णन | निषिद्ध आचरण के त्याग आदि के परिणाम तथा सत्त्वगुण के सेवन का उपदेश | जीवोत्पत्ति के दोष और बंधनों से मुक्त तथा विषय शक्ति के त्याग का उपदेश | ब्रह्मचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति | आसक्ति छोड़कर सनातन ब्रह्म की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करने के उपदेश | स्वप्न और सुषुप्ति-अवस्था में मन की स्थिति का वर्णन | गुणातीत ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | सच्चिदान्नदघन परमात्मा, दश्यवर्ग प्रकृति और पुरुष उन चारों के ज्ञान से मुक्ति का वर्णन | परमात्मा प्राप्ति के अन्य साधनों का वर्णन | राजा जनक के दरबार में पञ्चशिख का आगमन | नास्तिक मतों के निराकरणपूर्वक शरीर से भिन्न आत्मा की नित्य सत्ता का प्रतिपादन | पञ्चशिख के द्वारा मोक्षतत्त्व के विवेचन का वर्णन | विष्णु द्वारा मिथिलानरेश जनकवंशी जनदेव की परीक्षा और उनके के लिए वर प्रदान | श्वेतकेतु और सुवर्चला का विवाह | पति-पत्नी का अध्यात्मविषयक संवाद | दम की महिमा का वर्णन | व्रत, तप, उपवास, ब्रह्मचर्य तथा अतिथि सेवा का विवेचन | सनत्कुमार का ऋषियों को भगवत्स्वरूप का उपदेश | इंद्र और प्रह्लाद का संवाद | इन्द्र के आक्षेप युक्त वचनों का बलि के द्वारा कठोर प्रत्युत्तर | बलि और इन्द्र का संवाद | बलि द्वारा इन्द्र को फटकारना | इन्द्र और लक्ष्मी का संवाद | बलि को त्यागकर आयी हुई लक्ष्मी की इन्द्र के द्वारा प्रतिष्ठा | इन्द्र और नमुचि का संवाद | काल और प्रारब्ध की महिमा का वर्णन | लक्ष्मी का दैत्यों को त्यागकर इन्द्र के पास आना | सद्गुणों पर लक्ष्मी का आना व दुर्गुणों पर त्यागकर जाने का वर्णन | जैगीषव्य का असित-देवल को समत्वबुद्धि का उपदेश | श्रीकृष्ण और उग्रसेन का संवाद | शुकदेव के प्रश्नों के उत्तर में व्यास जी द्वारा काल का स्वरूप बताना | व्यास जी का शुकदेव को सृष्टि के उत्पत्ति-क्रम तथा युगधर्मों का उपदेश | ब्राह्मप्रलय एंव महाप्रलय का वर्णन | ब्राह्मणों का कर्तव्य और उन्हें दान देने की महिमा का वर्णन | ब्राह्मण के कर्तव्य का प्रतिपादन करते हुए कालरूप नद को पार करने का उपाय | ध्यान के सहायक योग | फल और सात प्रकार की धारणाओं का वर्णन | मोक्ष की प्राप्ति | सृष्टि के समस्त कार्यों में बुद्धि की प्रधानता | प्राणियों की श्रेष्ठता के तारतम्य का वर्णन | नाना प्रकार के भूतों की समीक्षापूर्वक कर्मतत्त्व का विवेचन | युगधर्म का वर्णन एवं काल का महत्त्व | ज्ञान का साधन और उसकी महिमा | योग से परमात्मा की प्राप्ति का वर्णन | कर्म और ज्ञान का अन्तर | ब्रह्मप्राप्ति के उपाय का वर्णन | ब्रह्मचर्य-आश्रम का वर्णन | गार्हस्थ्य-धर्म का वर्णन | वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम के धर्म और महिमा का वर्णन | संन्यासी के आचरण | ज्ञानवान संन्यासी का प्रशंसा | परमात्मा की श्रेष्ठता व दर्शन का उपाय | ज्ञानमय उपदेश के पात्र का निर्णय | महाभूतादि तत्त्वों का विवेचन | बुद्धि की श्रेष्ठता और प्रकृति-पुरुष-विवेक | ज्ञान के साधन व ज्ञानी के लक्षण और महिमा | परमात्मा की प्राप्ति का साधन | ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति | ब्रह्मवेत्ता के लक्षण व परब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | शरीर में पंचभूतों के कार्य व गुणों की पहचान | जीवात्मा और परमात्मा का योग द्वारा साक्षात्कार | कामरूपी अद्भुत वृक्ष व शरीर रूपी नगर का वर्णन | मन और बुद्धि के गुणों का विस्तृत वर्णन | युधिष्ठिर का मृत्युविषयक प्रश्न व ब्रह्मा की रोषाग्नि से प्रजा के दग्ध होने का वर्णन | ब्रह्मा के द्वारा रोषाग्नि का उपसंहार व मृत्यु की उत्पत्ति | मृत्यु की तपस्या व प्रजापति की आज्ञा से मृत्यु का प्राणियों के संहार का कार्य स्वीकार करना | धर्माधर्म के स्वरूप का निर्णय | युधिष्ठिर का धर्म की प्रमाणिकता पर संदेह उपस्थित करना | जाजलि की घोर तपस्या व जटाओं में पक्षियों का घोंसला बनाने से उनका अभिमान | आकाशवाणी की प्रेरणा से जाजलि का तुलाधार वैश्य के पास जाना | जाजलि और तुलाधार का धर्म के विषय में संवाद | जाजलि को तुलाधार का आत्मयज्ञविषयक धर्म का उपदेश | जाजलि को पक्षियों का उपदेश | राजा विचख्नु के द्बारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा | महर्षि गौतम और चिरकारी का उपाख्यान | दीर्घकाल तक सोच-विचारकर कार्य करने की प्रशंसा | द्युमत्सेन और सत्यवान का संवाद | अहिंसापूर्वक राज्यशासन की श्रेष्ठता का कथन | स्यूमरश्मि और कपिल का संवाद | प्रवृत्ति एवं निवृत्तिमार्ग के विषय में स्यूमरश्मि व कपिल संवाद | चारों आश्रमों में उत्तम साधनों के द्वारा ब्रह्म की प्राप्ति का कथन | ब्रह्मण और कुण्डधार मेघ की कथा | यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा | धर्म, अधर्म, वैराग्य और मोक्ष के विषय में युधिष्ठिर के प्रश्न | मोक्ष के साधन का वर्णन | नारद और असितदेवल का संवाद | तृष्णा के परित्याग के विषय में माण्डव्य मुनि और जनक का संवाद | पिता और पुत्र का संवाद | हारित मुनि के द्वारा आचरण व धर्मों का वर्णन | ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय | ब्रह्म की प्राप्ति के विषय में वृत्र और शुक्र का संवाद | वृत्रासुर को सनत्कुमार का आध्यात्मविषयक उपदेश | भीष्म द्वारा युधिष्ठिर की शंका निवारण | इन्द्र और वृत्रासुर के युद्ध का वर्णन | वृत्रासुर के वध से प्रकट हुई ब्रह्महत्या का ब्रह्मा जी के द्वारा चार स्थानों में विभाजन | शिवजी के द्वारा दक्ष के यज्ञ का भंग | शिवजी के क्रोध से ज्वर की उत्पत्ति व उसके विविध रूप | पार्वती के रोष के निवारण के लिए शिव द्वारा दक्ष-यज्ञ का विध्वंस | महादेव जी का दक्ष को वरदान | स्तोत्र की महिमा | अध्यात्म ज्ञान और उसके फल का वर्णन | समंग द्वारा नारद जी से अपनी शोकहीन स्थिति का वर्णन | नारद जी द्वारा गालव मुनि को श्रेय का उपदेश | अरिष्टनेमि का राजा सगर को मोक्षविषयक उपदेश | उशना का चरित्र | उशना को शुक्र नाम की प्राप्ति | पराशर मुनि का राजा जनक को कल्याण की प्राप्ति के साधन का उपदेश | कर्मफल की अनिवार्यता | कर्मफल से लाभ | धर्मोपार्जित धन की श्रेष्ठता, व अतिथि-सत्कार का महत्त्व | गुरुजनों की सेवा से लाभ | सत्संग की महिमा व धर्मपालन का महत्त्व | ब्राह्मण और शूद्र की जीविका | मनुष्यों में आसुरभाव की उत्पत्ति व शिव के द्वारा उसका निवारण | विषयासक्त मनुष्य का पतन | तपोबल की श्रेष्ठता व दृढ़तापूर्वक स्वधर्मपालन का आदेश | वर्ण विशेष की उत्पत्ति का रहस्य | हिंसारहित धर्म का वर्णन | धर्म व कर्तव्यों का उपदेश | राजा जनक के विविध प्रश्नों का उत्तर | ब्रह्मा को साध्यगणों को उपदेश | योगमार्ग के स्वरूप, साधन, फल और प्रभाव का वर्णन | सांख्ययोग के अनुसार साधन का वर्णन | सांख्ययोग के फल का वर्णन | वसिष्ठ और करालजनक का संवाद | प्रकृति-संसर्ग के कारण जीव का बारंबार जन्म ग्रहण करना | प्रकृति के संसर्ग दोष से जीव का पतन | क्षर-अक्षर एवं प्रकृति-पुरुष के विषय में राजा जनक की शंका | योग और सांख्य के स्वरूप का वर्णन तथा आत्मज्ञान से मुक्ति | विद्या-अविद्या व पुरुष के स्वरूप के उद्गार का वर्णन | वसिष्ठ व जनक संवाद का उपसंहार | जनकवंशी वसुमान को मुनि का धर्मविषयक उपदेश | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश | इन्द्रियों में मन की प्रधानता का प्रतिदान | संहार क्रम का वर्णन | अध्यात्म व अधिभूत वर्णन तथा राजस और तामस के भावों के लक्षण | राजा जनक के प्रश्न | प्रकृति पुरुष का विवेक और उसका फल | योग का वर्णन व उससे परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति | मृत्यु सूचक लक्षण व मृत्यु को जीतने का उपाय | याज्ञयवल्क्य द्वारा सूर्य से वेदज्ञान की प्राप्ति का प्रसंग सुनाना | विश्वावसु को जीवात्मा और परमात्मा की एकता के ज्ञान का उपदेश देना | याज्ञवल्क्य का जनक को उपदेश देकर विदा होना | पञ्चशिख और जनक का संवाद | सुलभा का राजा जनक के शरीर में प्रवेश करना | राजा जनक का सुलभा पर दोषारोपण करना | सुलभा का राजा जनक को अज्ञानी बताना | व्यास जी का शुकदेव को धर्मपूर्ण उपदेश देते हुए सावधान करना | शुभाशुभ कर्मों के परिणाम का वर्णन | शंकर द्वारा व्यास को पुत्रप्राप्ति के लिये वरदान देना | शुकदेव की उत्पति तथा संस्कार का वृतान्त | पिता की आज्ञा से शुकदेव का मिथिला में जाना | शुकदेव का ध्यान में स्थित होना | राजा जनक द्वारा शुकदेव जी का पूजन तथा उनके प्रश्न का समाधान | जनक द्वारा बह्मचर्याश्रम में परमात्मा की प्राप्ति | शुकदेव द्वारा मुक्त पुरुष के लक्षणों का वर्णन | शुकदेव का पिता के पास लौट आना


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