नारद की आज्ञा से मरुत्त की संवर्त से भेंट

महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अश्वमेधिक पर्व के अंतर्गत अध्याय 6 में नारद की आज्ञा से मरुत्त की संवर्त से भेंट का वर्णन हुआ है।[1]

मरुत्त और बृहस्पति का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! व्यास जी कहते हैं- राजन! इस प्रसंग में बुद्धिमान राजा मरुत्त और बृहस्पति के इस पुरातन संवाद विषयक इतिहास का उल्लेख किया जाता है। राजा मरुत्त ने जब यह सुना कि अंगिरा के पुत्र बृहस्पति जी ने मनुष्य के यज्ञ न कराने की प्रतिज्ञा कर ली है, तब उन्होंने एक महान यज्ञ का आयोजन किया। बातचीत करने में कुशल करन्धम पौत्र मरुत्त ने मन-ही-मन यज्ञ का संकल्प करके बृहस्पति जी के पास जाकर उनसे इस प्रकार कहा- ‘भगवन! तपोधन! गुरुदेव! मैंने पहले एक बार आकर जो आप से यज्ञ के विषय में सलाह ली थी और आपने जिसके लिये मुझे आज्ञा दी थी, उस यज्ञ को अब मैं प्रारम्भ करना चाहता हूँ। आपके कथनानुसार मैंने सब सामग्री एकत्र कर ली है। साधु पुरुष! मैं आपका पुराना यजमान भी हूँ। इसलिये चलिये, मेरा यज्ञ करा दीजिये’। बृहस्पति जी ने कहा- राजन! अब मैं तुम्हारा यज्ञ कराना नहीं चाहता। देवराज इन्द्र ने मुझे अपना पुरोहित बना लिया है और मैंने भी उनके सामने यह प्रतिज्ञा कर ली है। मरुत्त बोले- विप्रवर! मैं अपके पिता के समय से ही आपका यजमान हूँ तथा विशेष सम्मान करता हूँ। आपका शिष्य हूँ और आपकी सेवा में तत्पर रहता हूँ अत: मुझे अपनाइये। बृहस्पति जी ने कहा- मरुत्त! अमरों का यज्ञ कराने के बाद मैं मरणधर्मा मनुष्यों का यज्ञ कैसे कराऊँगा? तुम जाओ या रहो। अब मैं मनुष्यों का यज्ञकार्य कराने से निवृत्त हो गया हूूँ। महाबाहो! मैं तुम्हारा यज्ञ नहीं कराऊँगा। तुम दूसरे जिसको चाहो उसी को अपना पुरोहित बना लो। जो तुम्हारा यज्ञ करायेगा।

नारद की आज्ञा से मरुत्त की संवर्त से भेंट

व्यास जी कहते हैं- राजन! बृहस्पति जी से ऐसा उत्तर पाकर महाराज मरुत्त को बड़ा संकोच हुआ। वे बहुत खिन्न होकर लौटे जा रहे थे, उसी समय मार्ग में उन्हें देवर्षि नारद जी का दर्शन हुआ। देवर्षि नारद के साथ समागम होने पर राजा मरुत्त यथाविधि हाथ जोड़कर खड़े हो गये। तब नारद जी ने उनसे कहा। ‘राजर्षे! तुम अधिक प्रसन्न नहीं दिखायी देते हो। निष्पाप नरेश! तुम्हारे यहाँ कुशल तो है न? कहाँ गये थे और किस कारण तुम्हें यह खेद का अवसर प्राप्त हुआ है। राजन! नृपश्रेष्ठ! यदि मेरे सुनने योज्य हो तो बताओ। नरेश्वर! मैं पूर्ण यत्न करके तुम्हारा दु:ख दूर करूँगा। महर्षि नारद के ऐसा कहने पर राजा मरुत्त ने उपाध्याय (पुरोहित)- से बिछोह होने का सारा समाचार उन्हें कहा सुनाया। मरुत्त ने कहा- नारद जी! मैं अंगिरा के पुत्र देवगुय बृहस्पति के पास गया। मेरी यात्रा का उद्देश्य यह था कि उन्हें अपना यज्ञ कराने के लिये ऋत्विज के रूप में देखूँ, किंतु उन्होंने मेरी प्रार्थना स्वीकार नहीं की। नारद! मेरे गुरु ने मुझ पर मरणधर्मा मनुष्य होने का दोष लगाकर मुझे त्याग दिया। उनके द्वारा प्रकार अस्वीकार किये जाने के कारण अब मैं जीवित रहना नहीं चाहता। व्यास जी कहते हैं- महाराज! राजा मरुत्त ने ऐसा कहने पर देवर्षि नारद ने अपनी अमृतमयी वाणी के द्वारा अविक्षित कुमार को जीवन प्रदान करते हुए से कहा। नारद जी बोले राजन! अंगिरा के दूसरे पुत्र संवर्त बड़े धार्मिक है। वे दिगम्बर होकर प्रजा को मोह में डालने हुए अर्थात सबसे छिपे रहकर सम्पूर्ण दिशाओं में भ्रमण करते करते हैं। यदि बृहस्पति तुम्हें अपना यजमान बनाना नहीं चाहते है तो तुम संवर्त के ही पास चले जाओ। संवर्त बड़े तेजस्वी हैं, वे प्रसन्नतापूर्वक तुम्हारा यज्ञ करा देंगें।[1]

मरुत्त बोले- वक्ताओं में श्रेष्ठ नारद जी! आपने यह बात बताकर मुझे जिला दिया। अब यह बताइये कि मैं संवर्त मुनिका दर्शन कहाँ कर सकूँगा? मुझे उनके साथ कैसा बर्ताव करूँ, जिससे वे मेरा परित्याग न करें। यदि उन्होंने भी मेरी प्रार्थना ठुकरा दी तब मैं जीवित नहीं रह सकूँगा। नारद जी ने कहा- महाराज! वे इस समय वाराणसी में महेश्वर विश्वनाथ के दर्शन की इच्छा से पागल का-सा वेष धारण ये अपनी मौज से धूम रहे हैं। तुम उस पुरी के प्रवेश द्वार पहुँचकर वहाँ कहीं से एक मुर्दा लाकर रख देना। पृथ्वी नाथ! जो उस मुर्दे को देखकर सहसा पीछे की ओर लौट पड़े, उसे ही संवर्त समझना और वे शक्तिशाली मुनी जहाँ कहीं जाएं उनके पीछे-पीछे चले जाना। जब वे किसी एकान्त स्थान में पहुँचे, तब हाथ जोड़कर शरणापन्न हो जाना। यदि तुमसे पूछें कि किसने तुम्हें मेरा पता बताया है तो कह देना- ‘संवर्त जी! नारद जी मुझे आपका पता बताया है’। यदि वे तुमसे मेरे पास आने के लिये मेरा पता पूछें तो तुम निर्भिक कह देना कि ‘नारद जी आग में समा गये’। व्यास जी कहते है- राजन! यह सुनकर राजर्षि मरुत्त ने बहुत अच्छा कहकर नारद जी की भूमि-भूरि प्रशंसा की और उनसे जाने की आज्ञा ले वे वाराणसीपुरी की ओर चल दिये। वहाँ जाकर नारद जी के कथन का स्मरण करते हुए महायशस्वी नरेश ने उनके बताये अनुसार काशीपुरी के द्वार पर एक मुर्दा ला कर रख दिया। इसी तरह विप्रवर संवर्त भी पुरी के द्वार आये किंतु उस मुर्दे को देखकर वे सहसा पीछे की ओर लोट पड़े। उन्हें लौटा देख राजा मरुत्त सवंर्त से शिखा लेने के लिये हाथ जोड़े उनके पीछे-पीछे गये। एकान्त में पहुँचने पर राजा को अपने पीछे-पीछे आते देख संवर्त ने उन पर धूल फेंकी, कीचड़ उछाला तथा थूक और खखार डाल दिये। इस प्रकार संवर्त पर भी राजा मरुत्त हाथ जोड़ उन्हें प्रसन्न करने के उद्देश्य से उन महर्षि के पीछे-पीछे ही गये। तब संवर्त मुनि लौटकर शीतल छाया से युक्त तथा अनेक शाखाओं से सुशोभित एक बरगद के नीच थककर बैठ गये।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 6 श्लोक 1-19
  2. महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 6 श्लोक 20-33

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अश्वमेध पर्व
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