नामदेव
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पूरा नाम | नामदेव |
जन्म | संवत 1327 विक्रमी (1270 ई.) |
जन्म भूमि | नरसी ब्राह्मणी ग्राम, हैदराबाद (दक्षिण) |
मृत्यु | संवत 1407 विक्रमी (1350 ई.) |
अभिभावक | पिता- दामा सेठ, माता- गोणाई |
पति/पत्नी | राजाई |
कर्म भूमि | भारत |
भाषा | मराठी |
प्रसिद्धि | संत कवि तथा भगवान विट्ठल के एकनिष्ठ उपासक। |
विशेष योगदान | महाराष्ट्र में 'वारकरी पन्थ' के एक प्रकार से नामदेव जी ही संस्थापक थे। अनेक लोग उनकी प्रेरणा से भक्ति के पावन पथ में प्रवृत्त हुए। |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | नामदेव के जीवन का पूर्वार्ध पण्ढरपुर में और उत्तरार्ध पंजाब आदि में भक्ति का प्रचार करते हुए बीता। विसोबा खेचर से इन्हें पूर्ण ज्ञान का बोध हुआ था, अत: उन्हें ये गुरु मानते थे। |
नामदेव प्रमुख मध्यकालीन संत कवि थे, जिन्होंने मराठी भाषा में अपनी रचनाएँ लिखीं। नामदेव प्रत्येक पदार्थ में केवल भगवान को ही देखते थे। इनकी इस सुदुर्लभ स्थिति का पता उनके जीवन की अनेक घटनाओं से लगता है।
परिचय
हैदराबाद (दक्षिण) के नरसी ब्राह्मणी ग्राम में एक भगवद भक्त छीपी (दर्जी) दामा सेठ रहते थे। इनकी पत्नी का नाम था गोणाई। इन्हीं भाग्यवान दम्पत्ति के यहाँ रविवार कार्तिक शुक्ल प्रतिपद् संवत 1327 विक्रमी (1270 ई.) को सूर्योदय के समय नामदेव जी का जन्म हुआ। यह कुल ही परम भागवत था। भगवान विट्ठल के एकनिष्ठ उपासक यदुसेठ जी की पांचवीं पीढ़ी में दामाजी हुए थे। पूर्वजों की भगवन्निष्ठा, सदाचार, सरल प्रकृति, अतिथि-सेवा आदि सब गुण उनमें थे। माता-पिता जो कुछ करते हैं, बालक भी वही सीखता है। नामदेव को शैशव से ही विट्ठल के श्रीविग्रह की पूजा, विट्ठल के गुणगान ‘विट्ठल’ नाम का जप आदि देखने-सुनने को निरन्तर मिला। वे स्वयं विट्ठलमय हो गये।
भगवान विट्ठल की पूजा
एक समय दामा सेठ को घर से कहीं बाहर जाना पड़ा। उन्होंने नामदेव पर ही घर में विट्ठल की पूजा का भार सौंपा। नामदेव ने सरल हृदय से पूजा की और भगवान को कटोरे में दूध का नैवेद्य अर्पित करके नेत्र बंद कर लिये। कुछ देर में नेत्र खोलकर देखते हैं कि दूध तो वैसा ही रखा है। बालक नामदेव ने सोचा कि "मेरे ही किसी अपराध से विट्ठल प्रभु दूध नहीं पीते हैं।" वे बड़ी दीनता से नाना प्रकार से प्रार्थना करने लगे और जब उससे भी काम न चला तो रोते-रोते बोले- "विठोबा! यदि तुमने आज दूध नहीं पिया तो मैं जीवनभर दूध नहीं पीऊँगा’। बालक नामदेव के लिये वह पत्थर की मूर्ति नहीं थी। वे तो साक्षात पण्ढरीनाथ थे, जो पता नहीं क्यों रूठकर दूध नहीं पी रहे थे। बच्चे की प्रतिज्ञा सुनते ही वे दयामय साक्षात प्रकट हो गये। उन्होंने दूध पिया। उसी दिन से नामदेव के हाथ से वे बराबर दूध पी लिया करते थे।
पण्ढरपुर आगमन
छोटी उम्र में ही जातीय प्रथा के अनुसार नामदेव जी का विवाह गोविन्द सेठ सदावर्ते की कन्या राजाई के साथ हो गया था। पिता के परलोक-गमन के अनन्तर घर का भार इन्हीं पर पड़ा। स्त्री तथा माता चाहती थीं कि ये व्यापार में लगें, किंतु इन्होंने हरि-कीर्तिन का व्यवसाय कर लिया था। नरसी ब्राह्मणी गांव छोड़कर ये पण्ढरपुर आ बसे। यहाँ गोरा कुम्हार, सांवता माली आदि भक्तों से इनकी प्रीति हो गयी। चन्द्रभागा नदी का स्नान, भक्त पुण्डलीक तथा उनके भगवान पाण्डुरंग के दर्शन और विट्ठल के गुण का कीर्तन नामदेव की उपासना का यही स्वरूप था। नामदेव जी के अभंगों में विट्ठल की महिमा है, तत्वज्ञान है, भक्ति है और विट्ठल के प्रति आभार का अपार भाव है।
ज्ञानेश्वर के साथ तीर्थयात्रा
ज्ञानेश्वर महाराज नामदेव जी को तीर्थयात्रा में अपने साथ ले जाना चाहते थे। नामदेव जी ने कहा- "आप पाण्डुरंग से आज्ञा दिला दें तो चलूँगा।" भगवान ने ज्ञानेश्वर जी से कहा- "नामदेव मेरा बड़ा लाडला है। मैं उसे अपने से क्षण भर के लिये भी दूर नहीं करना चाहता। तुम इसे ले तो जा सकते हो, पर इसकी संभाल रखना।" स्वयं पाण्डुरंग ने ज्ञानेश्वर को नामदेव का हाथ पकड़ा दिया। नामदेव जी ज्ञानेश्वर महाराज के साथ तीर्थयात्रा को निकले। भगवद चर्चा करते हुए वे चले तो जा रहे थे, पर उनका चित्त पाण्डुरंग के वियोग से व्याकुल था। ज्ञानेश्वर जी ने भगवान की सर्वव्यापकता बताते हुए समझाना चाहा तो वे बोले- "आपकी बात तो ठीक है, किंतु पुण्डलीक के पास खड़े पाण्डुरंग को देखे बिना मुझे कल नही पड़ती।"
ज्ञानेश्वर महाराज के पूछने पर नामदेव ने भजन के सम्बन्ध में कहा- "मेरे भाग्य में ज्ञान कहाँ है। मैं न ज्ञानी हूँ, न बहुश्रुत। मुझे तो विठोबा की कृपा का ही भरोसा है। मुझे तो नाम-संकीर्तन ही प्रिय लगता है। यही भजन है। गुण-दोष न देखकर सबसे सच्ची नम्रता का व्यवहार करना ही वन्दन है। समस्त विश्व में एकमात्र विट्ठल को देखना और हृदय में उनके चरणों का स्मरण करते रहना ही उत्तम ध्यान है। मुख के उच्चारण किये जाते हुए नाम में मन को दृढ़तापूर्वक लगाकर तल्लीन हो जाना ही श्रवण है। भगवच्चरणों का दृढ़ अनुसंधान निदिध्यासन है। सर्वभाव से एकमात्र विट्ठल का ही ध्यान, समस्त प्राणियों में उन्हीं का दर्शन, सब ओर से आसक्ति हटाकर उनका ही चिन्तन भक्ति है। अनुराग से एकान्त में गोविन्द का ध्यान करने के सिवा अन्य कहीं भी विश्राम नहीं है।"
चमत्कारिक प्रसंग
प्रभास, द्वारका आदि तीर्थों के दर्शन करते हुए दोनों महापुरुष लौट रहे थे। मार्ग में बीकानेर, राजस्थान के पास कौलायत गांव पहुँचकर दोनों को बड़ी प्यास लगी। पास में एक कुंआ तो था, पर वह सूख चुका था। ज्ञानेश्वर सिद्धयोगी थे। उन्होंने लघिमा सिद्धि से कुएं के भीतर पृथ्वी में प्रवेश करके जल पिया और नामदेव जी के लिये जल ले आये। नामदेव ने वह जल पीना स्वीकार नहीं किया। वे भावमग्न होकर कह रहे थे- "मेरे विट्ठल को क्या मेरी चिन्ता नहीं है, जो मैं इस प्रकार जल पीऊँ?" सहसा कुआं अपने आप जल से भर गया। ऊपर से जल बहने लगा। नामदेव ने इस प्रकार जल पिया। कुछ दिनों में यात्रा करके वे पण्ढरपुर लौट आये। अपने हृदयधन पाण्डुरंग के दर्शन करके आनन्द में भरकर कहने लगे- "मेरे मन में भ्रम था, इसीलिये तो आपने मुझे भटकाया। संसार में अनेक तीर्थ हैं, पर मेरा मन तो चन्द्रभागा की ओर ही लगा रहता है। आपके बिना अन्य देव की ओर मेरे चरण चलना नहीं चाहते। जहाँ गरुड़-चिह्नांकित पताकाएं नहीं हैं, वह स्थान कैसा। जहाँ वैष्णवों का मेला न हो, जहाँ अखण्ड हरिकथा न चलती हो, वह क्षेत्र भी कैसा।"
- उत्तर भारत की यात्रा
ज्ञानेश्वर महाराज के समाधि लेने के बाद नामदेव उत्तर भारत की यात्रा पर गये। नामदेव के जीवन का पूर्वार्ध पण्ढरपुर में और उत्तरार्ध पंजाब आदि में भक्ति का प्रचार करते हुए बीता। विसोबा खेचर से इन्हें पूर्ण ज्ञान का बोध हुआ था, अत: उन्हें ये गुरु मानते थे। जो मनुष्य सर्वत्र भगवान का ही दर्शन करता है, वही धन्य है। वही सच्चा भगवद्भक्त है।
प्रत्येक पदार्थ में भगवान का दर्शन
नामदेव प्रत्येक पदार्थ में केवल भगवान को ही देखते थे। इनकी इस सुदुर्लभ स्थिति का पता उनके जीवन की अनेक घटनाओं से लगता है।
- एक बार नामदेव जी की कुटिया में एक ओर आग लग गयी। आप प्रेम में मस्त होकर दूसरी ओर की वस्तुएं भी अग्नि में फेंकते हुए कहने लगे- "स्वामी! आज तो आप लाल-लाल लपटों का रूप बनाये बड़े अच्छे पधारे, किंतु एक ही ओर क्यों। दूसरी ओर की इन वस्तुओं ने क्या अपराध किया है, जो इन पर आपकी कृपा नहीं हुई? आप इन्हें भी स्वीकार करें।" कुछ देर में आग बुझ गई। कुटिया जल गयी वर्षा ऋतु में, पर नामदेव को कोई चिन्ता ही नहीं। उनकी चिन्ता करने वाले श्रीविट्ठल स्वयं मजदूर बनकर पधारे और उन्होंने कुटिया बनाकर छप्पर छा दिया। तब से पाण्डुरंग ‘नामदेव की छान छान देने वाले’ प्रसिद्ध हुए।
- एक बार नामदेव किसी गांव के सूने मकान में ठहरने लगे। लोगों ने बहुत मना किया कि इसमें अत्यन्त निष्ठुर ब्रह्मराक्षस रहता है। आप बोले- "मेरे विट्ठल ही तो भूत भी बने होंगे। आधी रात को भूत आया। उसका शरीर बड़ा भारी था। नामदेव उसे देखकर भावमग्न होकर नृत्य करने और गाने लगे-
"भले पधारे लंबकनाथ।
धरनी पांव स्वर्ग लौं माथा, जोजन भरके लांबे हाथ।।
सिव सनकादिक पार न पावैं अनगिन साज सजायें साथ।
नामदेव के तुमही स्वामी, कीजै प्रभुजी मोहि सनाथ।।"
अब भला वहाँ प्रेत का प्रेतत्त्व कहाँ से टिक सकता था। वहाँ तो शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी श्रीपाण्डुरंग नामदेव के सामने प्रत्यक्ष खड़े थे, मन्द-मन्द मुसकाते हुए।
- एक बार नामदेव ने जंगल में पेड़ के नीचे रोटी बनायी। भोजन बनाकर लघुशंका करने गये। लौटकर देखते हैं तो एक कुत्ता मुख में रोटी दबाये भागा जा रहा है। आपने घी की कटोरी उठायी और दौड़े उसके पीछे यह पुकारते हुए- "प्रभो! ये रोटियां रूखी हैं। आप रूखी रोटी न खायं। मुझे घी चुपड़ लेने दें। फिर भोग लगायें।" भगवान उस कुत्ते के शरीर से ही प्रकट हुए अपने चतुर्भुज रूप में। नामदेव उनके चरणों पर गिर पड़े।
परमधाम गमन
महाराष्ट्र में 'वारकरी पन्थ' के एक प्रकार से नामदेव जी ही संस्थापक हैं। अनेक लोग उनकी प्रेरणा से भक्ति के पावन पथ में प्रवृत्त हुए। 80 वर्ष की अवस्था में संवत 1407 विक्रमी (1350 ई.) में नश्वर देह त्यागकर ये परमधाम पधारे।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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