नामकरण संस्कार

कृष्ण तथा बलराम का नामकरण संस्कार

'श्रीमद्भागवत महापुराण'[1] के अनुसार- श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! यदुवंशियों के कुल पुरोहित थे श्री गर्गाचार्य जी। वे बड़े तपस्वी थे। वसुदेवजी की प्रेरणा से वे एक दिन नन्दबाबा के गोकुल में आये। उन्हें देखकर नन्दबाबा को बड़ी प्रसन्नता हुई। वे हाथ जोड़कर उठ खड़े हुए। उनके चरणों में प्रणाम किया। इसके बाद ‘ये स्वयं भगवान ही हैं’- इस भाव से उनकी पूजा की।

जब गर्गाचार्य जी आराम से बैठ गये और विधिपूर्वक उनका आतिथ्य-सत्कार हो गया, तब नन्दबाबा ने बड़ी ही मधुर वाणी से उनका अभिनन्दन किया और कहा- "भगवन! आप तो स्वयं पूर्णकाम हैं, फिर मैं आपकी क्या सेवा करूँ? आप जैसे महात्माओं का हमारे जैसे गृहस्थों के घर आ जाना ही हमारे परम कल्याण का कारण है। हम तो घरों में इतने उलझ रहे हैं और इन प्रपंचों में हमारा चित्त इतना दीन हो रहा है कि हम आपके आश्रम तक जा भी नहीं सकते। हमारे कल्याण के सिवा आपके आगमन का और कोई हेतु नहीं है। प्रभो! जो बात साधारणतः इन्द्रियों की पहुँच के बाहर है अथवा भूत और भविष्य के गर्भ में निहित हैं, वह भी ज्योतिष-शास्त्र के द्वारा प्रत्यक्ष जान ली जाती है। आपने उसी ज्योतिष-शास्त्र की रचना की है। आप ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ हैं। इसलिए मेरे इन दोनों बालकों का नामकरण आदि संस्कार आप ही कर दीजिये; क्योंकि ब्राह्मण जन्म से ही मनुष्य-मात्र का गुरु है।"

गर्गाचार्यजी ने कहा- "नन्दजी! मैं सब जगह यदुवंशियों के आचार्य के रूप में प्रसिद्ध हूँ। यदि तुम्हारे पुत्र के संस्कार करूँगा, तो लोग समझेंगे कि यह तो देवकी का पुत्र है। कंस की बुद्धि बुरी है, वह पाप ही सोचा करती है। वसुदेजी के साथ तुम्हारी बड़ी घनिष्ठ मित्रता है। जब से देवकी की कन्या से उसने यह बात सुनी है कि उसको मारने वाला और कहीं पैदा हो गया है, तबसे वह यही सोचा करता है कि देवकी के आठवें गर्भ से कन्या का जन्म नहीं होना चाहिए। यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार कर दूँ और वह इस बालक को वसुदेवजी का लड़का समझकर मार डाले, तो हमसे बड़ा अनर्थ हो जायेगा।"

नन्दबाबा ने कहा- "आचार्यजी! आप चुपचाप इस एकान्त गौशाला में केवल स्वस्तिवाचन करके इस बालक का द्विजाति समुचित नामकरण-संस्कार मात्र कर दीजिये। औरों की कौन कहे, मेरे सगे-सम्बन्धी भी इस बात को न जानने पावें।"

श्रीशुकदेवजी कहते हैं- "गर्गाचार्य जी तो संस्कार करना चाहते ही थे। जब नन्दबाबा ने उनसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने एकान्त में छिपकर गुप्त रूप से दोनों बालकों का नामकरण-संस्कार कर दिया।"

गर्गाचार्य जी ने कहा- "यह रोहिणी का पुत्र है। इसलिये इसका नाम होगा 'रौहिणेय'। यह अपने सगे-सम्बन्धी और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा। इसलिए इसका दूसरा नाम होगा ‘राम’। इसके बल की कोई सीमा नहीं है, अतः इसका एक नाम ‘बल’ भी है। यह यादवों में और तुम लोगों में कोई भेदभाव नहीं रखेगा और लोगों में फूट पड़ने पर मेल करवायेगा, इसलिए इसका एक नाम ‘संकर्षण’ भी है। और यह जो साँवला-साँवला है, यह प्रत्येक युग में शरीर ग्रहण करता है। पिछले युगों में इसने क्रमशः श्वेत, रक्त और पीत, ये तीन विभिन्न रंग स्वीकार किये थे। अब की बार यह 'कृष्णवर्ण' हुआ है। इसलिये इसका नाम ‘कृष्ण’ होगा।

नंदजी! यह तुम्हारा पुत्र पहले कभी वसुदेवजी के घर भी पैदा हुआ था, इसलिये इस रहस्य को जानने वाले लोग इसे ‘श्रीमान वासुदेव’ भी कहते हैं। तुम्हारे पुत्र के और भी बहुत-से नाम हैं तथा रूप भी अनेक हैं। इसके जितने गुण हैं और जितने कर्म, उन सबके अनुसार अलग-अलग नाम पड़ जाते हैं। मैं तो उन नामों को जानता हूँ, परन्तु संसार के साधारण लोग नहीं जानते। यह तुम लोगों का परम कल्याण करेगा। समस्त गोप और गौओं को यह बहुत ही आनन्दित करेगा। इसकी सहायता से तुम लोग बड़ी-बड़ी विपत्तियों को बड़ी सुगमता से पार कर लोगे। व्रजराज! पहले युग की बात है। एक बार पृथ्वी में कोई राजा नहीं रह गया था। डाकुओं ने चारों ओर लूट-खसोट मचा रखी थी। तब तुम्हारे इसी पुत्र ने सज्जन पुरुषों की रक्षा की और इससे बल पाकर उन लोगों ने लुटेरों पर विजय प्राप्त की। जो मनुष्य तुम्हारे इस साँवले-सलोने शिशु से प्रेम करते हैं, वे बड़े भाग्यवान हैं। जैसे विष्णु भगवान के करकमलों की छत्रछाया में रहने वाले देवताओं को असुर नहीं जीत सकते, वैसे ही इससे प्रेम करने वालों को भीतर या बाहर किसी भी प्रकार के शत्रु नहीं जीत सकते। नंदजी! चाहे जिस दृष्टि से देखेँ-गुण में , संपत्ति और सौन्दर्य में, कीर्ति और प्रभाव में तुम्हारा यह बालक साक्षात् भगवान नारायण के समान है। तुम बड़ी सावधानी और तत्परता से इसकी रक्षा करो।"

इस प्रकार नन्दबाबा को भलीभाँति समझाकर, आदेश देकर गर्गाचार्यजी अपने आश्रम को लौट गये। उनकी बात सुनकर नन्दबाबा को बड़ा ही आनन्द हुआ। उन्होंने ऐसा समझा कि मेरी सब आशा-लालसाएँ पूरी हो गयीं, मैं अब कृतकृत्य हूँ।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दशम स्कन्ध अध्याय 8 श्लोक 1-20

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः